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Friday, May 18, 2012

कविता- पिंजरे में देवता


शोर-शराबे से दूर
आधुनिकता से दूर
पर्वतों के घेरे में
जंगलों के घेरे में :
बनाये हैं स्वर्ग द्वार
पैसों  से करने वाले प्यार ।                 
दुर्गम है पथ पहुँचने के
फिर भी पहुँचते हैं वे
मीलों पैदल चलके :
क्योंकि सबको दे दी गई है ख़बर
मिलते है ईश्वर वहाँ दर-दर ।

मद्यपान निषेध
मांसाहार निषेध
उल्लंघनकारी होंगे दंडित
मूर्तियों को पूजेंगे सिर्फ़ पंडित
और मंदिर के भीतर
कुछ लोगो का प्रवेश है निषेध् ।
ये सारी हिदायतें
मोटे-मोटे लाल-काले अक्षरों में
दर्ज़ है मुख्य द्वार पर ।

समाजवादी उक्तियाँ
साधुवादी सुक्तियाँ
कबीर, नानक के दोहे
जो सब मन मोहे
खुदे हुए है पत्थरों पे
लिखे हुए है दीवारों पे
रुपहले-सुनहले अक्षरों में ।
फ़र्श पर बिछे हुए हैं पत्थर
लिखे हुए हैं नाम उनपर, उन अनजान लोगों के
जो जा चुके है जग छोड़कर।
रोजाना रौंदे जाते हैं वे नाम
जो कभी थे किसी के लिए
श्रद्धा के पर्याय।
ईश्वर तक पहुँचने के
अजीबो ग़रीब  है रास्ते,
कोई चढ़ाये भेंट
फल-फूल मालाओं की,
कोई चढ़ाय भेंट
मिठाई बेसन-खोये की,
भैंस, बकरे, माला नोटों  की,
और कोई-कोई करे
वायदे बड़े-बड़े घूसों की।

मंज़िल है काफ़ी ऊँची
मूर्तियाँ भी ऊँची-ऊँची,
देवता है कैद, पिंजरों में।
जैसे रहते है शेर पिंजरों में :
मूर्ति चोरों के भय से
जेवर चोरों के भय से
सारे के सारे देवता हैं
सलाखों के ही पीछे।
भद्रजन फेंकते फूल वैसे
लाशों पर फेंके जाते फूल जैसे।
फल-फूल फेंके जाते वैसे
मूंग्फलियाँ, छिलके फेंके जाते जैसे
चिड़ियाघरों के बंदरों को दूर से।
हे मेरे ईश्वर !
छोड़ो बंधन,आओ बाहर !
ठहरो ! मैं आ रहा हूँ
तुम्हें मुक्त करने मैं आ रहा हुँ ।

देखो ! देखो !
देखो वह आती है ,
आहिस्ता-आहिस्ता वह आती है,
भिखारिन सी वह लगती
लाठी के बल चलती
इधर-उधर टुकुर-टुकुर ताकती
ईश्वर से मिलने वह आती,
आँखों में है उमंग
होठों पर है खुशी के तरंग
भेंट चढ़ाने वह आती
भेंट करने वह आती
पेट है उसका खली
पर भरी हुई है भेंट थाली।

सोच-सागर में डूबा मैं बढ़ा
सातवीं मंज़िल पर चढ़ा
पिंजड़े में सुंदर सा एक देवता :
साधु एक निकट आता
दान-पात्र मुझे दिखाता,
पीया हुआ है वह लीकर,
सूरत से लगता है जोकर,
एक सिक्का मैं उसे देता
जोरों से वह मुझे फटकारता
अरे मुर्ख ! सोने का है यह देवता
और तू इसे मात्र एक रुपया चढ़ाता ?

बीसों तल्ला घंटों देखा
देवताओं को बंद पिंजड़े में देखा
मन को जो न भाये सो देखा।
मन भावन कुछ भी ना देखा।
था मैं थका-हारा
सरोवर के पास आकर रुका,
देखा मछलियों को लोग आटा खिलाते
नब्बे के बूढ़े को देखा आटा बेचते
मैंने एक पुड़िया ली
बीस पैसे न देकर
एक रुपए का सिक्का दिया,
ज्योही मैं आगे बढ़ा
उसने मेरा बाजू पकड़ लिया,
अस्सी पैसा उसने लौटा दिया
बीस ही पैसा लिया :
मैंने पूरा लेने को कहा
मगर उसने बीस ही लिया
कंपित अधरों से उसने कहा
बाबू मैं ज़न्म से अंधा सही
पर लाचार तो नहीं ।

चिंता सागर में डूबा मैं बढ़ा
व्यर्थ नहीं था भ्रमण मेरा।


© सुभाष चंद्र गाँगुली 
("भारत माँ कीगोद में" काव्य संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2022)
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* मूल अंग्रेजी में : Gods in Cages written in October 1973.
* हिन्दी अनुवाद "पिंजड़े में देवता ' अमरकांत द्वारा सम्पादित' बहाव ' पत्रिका अंक तीन 5/2006 में प्रकाशित ।

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