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Monday, June 14, 2021

कहानी- पलंग



शर्माजी के घर का मशहूर, बहुचर्चित पलंग बिकाऊ है। उसे खरीदने के लिए शर्माजी के घर की भूतपूर्व महरी बेला, शर्माजी के घर पहुँची। शर्माजी ने कहा- 'तुम इसको लेकर क्या करोगी? दो झुग्गी में दस जने रहते हो, पहले रहने की उचित व्यवस्था करो फिर साधन जुटाना। मैं खुद इससे परेशान हूँ. मेरा इतना बड़ा मकान है फिर भी इसे रख नहीं पा रहा

'बाबूजी! इ हमार चिन्ता है। हम सोच-विचार के आए हैं। आपन आदमी और बेटवन से बातव कर लिए हैं।'

'क्या सोच लिए हो?... मेरा ख़याल है तुम अपने लिए नहीं लेना चाहती होगी, हमसे लेकर किसी और को ऊँचे दाम बेच दोगी, किसी और को बेचना हो तो सीधा हमसे बात करा दो, हम तुम्हें अच्छा कमीशन दे देंगे।

'बाबूजी! एका हम न बेचब, अपने पास रखब... जगह-वगह की चिन्ता हमार है, आपका बेचै से मतलब है, आपका दुई हजार नकद लाए हैं।' पैसा चाहि... इ हम

'देखो, इस समय इस पलंग की कीमत पन्द्रह-सोलह हजार होगी। अगर पुरातत्त्व दृष्टि यानी पुराने जमाने का सामान समझकर कोई खरीदे तो इसके लिए चालीस-पचास हजार भी दे सकता है।'

'आप तो पहिले दस हजार माँगत रहे फिर घटावत-घटावत अभी  
केहू से दुई हजार माँगे रहे, हमहूँ दुई हजार देईत है। आप चाहें तो सौ पचास और देई सकित ही। 'देखो बेला, मेरा पलंग तो आज नहीं कल बिक जाएगा, मगर क्या है कि तुम हमारे घर की हो इसलिए हम तुम्हें समझा रहे हैं, जो कुछ कह रहे हैं तुम्हारी भलाई के लिए कह रहे हैं, पैर उतना ही फैलाना चाहिए जितनी बड़ी चादर हो, तुम अपना रुपया फ़ालतू बर्बाद करना चाह रही हो, बाल-बच्चेदार औरत हो, बड़ी गृहस्थी है, मेहनत की कमाई से मुश्किल से पैसा जोड़े हो, संभालकर रख दो पैसा काम आएगा, तुम्हारे लिए दो हजार रुपया माने रखता है।

'बाबूजी! आप हमरे बारे में इत्ता सोचत हैं इ हमार तकदीर है। पर हमार बलवा धूप मा सफेद नहीं भवा है, आपन भला-बुरा हमहूँ अच्छी तरह समझित है, हम सोच समिझकर आए हैं....आप तो इ पलंगवा कब से बेचै चाहत हैं अब तलक कौनो न मिला। अब आप सोच लें हाथ की लक्ष्मी ठुकराए न चाही नाही तो बाद में पछतावे पड़ी, दुईऔ हजार न मिली, हम जाईथी, आप सोच लें, आपका मन्जूर हो तो हमका ख़बर पठैयें।'

'ठीक है, मैं जरा सोच लूँ. अभी माँजी घर पर नहीं है, जरा उनसे भी

बात कर लूँ....!"

'बाबूजी, जियादा न सोचैं, जल्दी कह दैहें नाही तो हमार मन बदल जाई तो आपका मुसीबत बना रही मनई ढूँढ़त-ढूँढ़त और चार साल गुजर जाई, चलित ही, पाँव लागी।

'ठीक है, मैं ख़बर भेजूँगा।'

शर्माजी ने पलंग को बेला के हाथ बेचने का मन बना लिया। जब उन्होंने इस बात की जानकारी पत्नी को दी तो वह रूठ गई- फटी कथरी पर लेटने वाली सोने के पलंग का सपना देख रही है. बड़ी आई है... अभी भी तो उतरन पहनकर घूमती है, उससे कह देना था अपनी औकात में रहे, ऐसा नया पलंग खरीदे तो समझें... आयी है चुड़ैल दो हजार लेकर रईसी झाड़ने। आपही ने उसे सिर चढ़ाया था। उसकी यह हिम्मत कि वह मेरे घर का पलंग खरीदना चाहती!..रखेगी कहाँ ? झुग्गी के सामने खुले मैदान में ?"

पत्नी को मनाते हुए शर्माजी ने कहा-बेला ठीक ही तो कह रही थी। हमें इससे क्या मतलब कि पलंग को लेकर क्या करेगी, कहाँ रखेगी। अगर वह दो हजार में खरीदकर दस हजार में बेच भी देती है तो भी हमें क्या लेना देना ? हम तो इसे बेच भी नहीं पा रहे हैं। बेला से मैंने ही कई बार कहा था कोई खरीदना चाहे तो बताना। बहू हर चिट्ठी में रिमाइंड कराती है, फोन पर अलग कहती है और सबसे बड़ी बात यह पलंग मेरे लिए गले का फंदा बन गया है, इससे मुक्ति मिले तो किराए पर कमरा उठा दूँ। दोनों बेटे अपना-अपना मकान बना लिङमा-खाकर मस्त हैं, इन बूढ़ों को फिकिर तो किसी को है नहीं... कुछ किराया आ जाए तो सहूलियत हो, बाईस सौ पेंशन और जायसवाल का किराया तीन सौ. पचीस सौ में चलता नहीं हमेशा कड़की बनी रहती और जाने कब से तुम्हें चश्मा नहीं दिला पा रहा हूँ, एकाध फल तक सोच कर खरीदना पड़ता है. जायसवाल को आए हुए चौदह बरस हो गए. तीन सौ में आया था. कहा था हर साल पचीस रुपया भाड़ा बढ़ा देगा, जल्दी से जल्दी अपना मकान बनवाकर चला जाएगा मगर तीन सौ पे डटा है तो डटा है। अपने लिए कुछ तो करना ही पड़ेगा....मैंने मन बना लिया है बेला के हाथ बेच दूँगा. फिर वह तो गैर नहीं है, अपने ही घर की महरी थी. बरसों हमारी सेवा की, उचित दाम भी दे रही है।'

पत्नी का चेहरा तमतमा उठा और आवाज ऊँची हो गई- उसने हमारी सेवा की या आपने उसकी सेवा की, मुफ्त में उसके बच्चों को पढ़ते तनख्वाह अलग से देते...बड़ी हमदर्दी है उस कंटाइन से, गोरी है ना खूब सिर चढ़ाते रहे वर्ना उसकी यह हिम्मत कि वह मेरे घर की बहू को उल्टी-सीधी कहे, उषा ने भगा दिया था ठीक ही किया था।" "क्या बेतुकी बात करती हो, बेला मेरी बेटी समान है, उसके बेटों को मैं पढ़ता रहा तभी वह मेरा कितना सम्मान करती थी, आज भी मानती है....उषा तो हर महरी के पीछे पड़ जाती थी।'

कुछ नहीं सुनना चाहती, आप इस पलंग का टुकड़ा-टुकड़ा करके लकड़ी के भाव बेच दीजिए मगर उस नौकरानी के हाथ नहीं बेचेंगे...कोई और नहीं मिला बेला को बेचेंगे, हुँ! लोग क्या कहेंगे कभी सोचा है?'

'क्या कहेंगे? लोगों से हमें क्या लेना-देना? लोगों के कहने पर ही न आपने उस पलंग की कीमत समझी थी? तब न आप फूलने लगे थे? तब न बेटे की ससुराल पर बलबल खाने लगे थे?

'बात तो सही है' शर्माजी बुदबुदाए।

बेटे की शादी में दहेज के तमाम सामान के साथ उस पलंग को देखकर शर्माजी का पारा चढ़ गया था। बिदाई के लिए अनेक मेहमानों की मौजूदगी में शर्माजी समधी से उलझ गए थे-'आप क्या हमें बेवकूफ समझ रहे हैं। अरे, हम इलाहाबादी हैं, हम सारी दुनिया की चालाकी जल्दी समझ लेते हैं....यह आपका खानदानी पलंग होगा। जब हम बर्मा में थे तब मेरे पिताजी के पास ऐसा पलंग था, बर्मा छोड़ते समय वे उसे पानी के भाव बेच आए थे, लगता है आपके पिताजी ने ही खरीदा था, आजकल ऐसा पलंग वही खरीदता है जो मूर्ख हो, कौन इस्तेमाल करता है....इतना बड़ा पलंग लेकर हम क्या करेंगे? पति-पत्नी के लिए छह बाई साढ़े तीन काफी होता है, यह तो उसके डबल से भी ज्यादा है।

बिना धीरज खोए समधी बोले- आप खामखाह गुस्सा कर रहे हैं. छोटा घरेलू पलंग जैसा अमूमन लोग दहेज में दिया करते हैं वैसा ले लिया होता तो मेरा ही रुपया बच जाता. इस पलंग के लिए मैंने दस गुना ज्यादा खर्च किया है, अब आप मूर्ख कहिए या महामूर्ख कहिए, मैंने सोचा बेटी और दामाद को यादगार चीज भेंट करूँ और साथ ही आपके महल की भी शोभा बढ़े। 'यह तो बेटे का पूरा कमरा घेर लेगा, बाकी सामान कहाँ रखेगा? आपको सोच लेना चाहिए था।

मैंने आपका घर, आपके बेटे का कमरा देखा हुआ है। इस पलंग में ढेर सारी सुविधाएँ हैं जिसे मैंने अलग से ऑर्डर देकर बनवाया। इनमें रजाई गद्दा, कपड़ा-लत्ता, गर्म कपड़े सब कुछ रखने की व्यवस्था है। बड़ी सी मच्छरदानी टाँगी जा सकती है। दीवारों पर कील ठोकने की और रोज-रोज मच्छरदानी टाँगने-उतारने का झमेला नहीं होगा, दो-तीन बच्चों के साथ आराम से सोया जा सकेगा, छोटे-छोटे बच्चों के लिए रोजाना छोटी-छोटी खाटफैलाना, बिस्तर बिछाना, बखेड़ा तो है ही गंदा कितना लगता है। इस एक आइटम से कमरे की डिसेंसी बनी रहेगी। और हाँ. इसी में शृंगारदान है, बड़ा आइना लगा हुआ है, गहने और रुपए-पैसे सुरक्षित रखने के लिए चोर डिब्बा बना हुआ है किसी को पता तक नहीं चलेगा कहाँ क्या है.... आप जरा ठीक से देख तो लीजिए क्या गजब की चीज है मेरी बेटी को सबसे अधिक यही पसंद आया है, आप इत्मीनान से ले जाइए जब सब लोग तारीफ करेंगे तो आप भी मान जाइएगा आपकी हवेली की शोभा अगर न बढ़े और दरअसल अगर आपको और आपके घरवालों को नापसंद हो तो बताइएगा. मैं इसे वापस ले आऊँगा और आप जैसा कहेंगे वैसा ही पलंग दे दूँगा।"

वापस लौटते समय शर्माजी झुंझलाते रहे-'क्या बेढब पलंग है. लड़की के साथ-साथ एक सिरदर्द लिए जा रहा हूँ, क्या तमाशा, कहाँ रखें, कैसे एडजस्ट करें समझ में नहीं आता।

मगर पलंग को जब अतरसुईया की सकरी गली के मुहाने सड़क पर उतारा गया तो उसे देखने के लिए इतनी भीड़ हो गई कि गली तो गली सड़क तक जाम हो गई और जब परचित अपरिचित सबों ने उसकी भरपूर तारीफ़ की तब शर्माजी की समझ में आया कि वाकई समधी ने धुआँधार पलंग दिया है। 

बहूभात की रात नई दुल्हन के साथ-साथ पलंग भी आकर्षक बिन्दु था। उसी दिन सुहागरात थी। सागौन की लकड़ी से बना मोटा-मोटा पाँवा 'चारों तरफ ऊपर से नीचे तक मुगलकालीन इमारतों से मिलने वाली नक्काशी, जगह-जगह अमरीकन डायमंड जड़ा, रंग-बिरंगे खुशबूदार फूलों से लदा वह विराट भव्य पलंग किसी राजकुमार का ही पलंग लग रहा था। उसे देखने के लिये बहूभात में आमंत्रित लगभग सारे लोगों का ताँता लगा हुआ था। उस अद्भुत अनोखे नजारे को देख शर्माजी और उनके घर वाले अत्यन्त पुलकित हो गए।

किन्तु शर्माजी की आशंका भी कुछ हद तक सही निकली। बारह बाई चौदह का कमरा उनके घर में सबसे बड़ा कमरा था। उसमें पलंग के अलावा स्टील की दो अलमारियाँ, एक ड्रेसिंग टेबुल, एक छोटा स्टूल और एक कॉर्नर टेबुल रखने के बाद कमरे में हिलना-डुलना दुश्वार हो गया। दीवार से सटकर चलना पड़ता।

खैर, बेटा और बहू तो दो-चार हफ्ते में एडजस्ट हो गए मगर एडजस्ट नहीं हो पाईं महरियाँ महरी ठीक से झाडू-बुहार नहीं कर पाती. पलंग के नीचे धूल की परतें जमते जमते मोटी हो जातीं, पलंग के कोने कोने मकड़े जाले बुनते, चींटियाँ लम्बी कतार में चलकर प्रीतिभोज में शामिल होतीं और उषा की टोकाटोकी व डाँट-फटकार के बाद कभी ज्यादा सफाई के चक्कर में पलंग की देह पर जगह-जगह महरी की उँगलियों के निशान पड़ जाते और फिर उषा बुरी तरह बरसती। जब डाँट-डपट हद से ज्यादा हो जाती तो महरी के स्वाभिमान को ठेस पहुँचती, महरी अपना रास्ता नाप लेती। दो बरस के भीतर तीन-तीन महरिनें बदल गई।

पूरे मोहल्ले में काम करने वाली औरतों में खासा चर्चा का विषय बन गया कि शर्माजी के घरमें काम करना किसी के बस की बात नहीं। चौथी महरी बेला को शर्माजी काफ़ी चिरौरी कर कुछ ज्यादा रुपए का लालच देकर समझा बुझाकर ले आए थे।

शर्माजी बेला के दोनों बेटों को खुद पढ़ाने लगे थे। बेला शर्माजी की इस नेकी से कृतज्ञ थी. कृतज्ञता बोध के कारण ही उसने कई बरस तक उषा के नखरे बर्दाश्त किए मगर एक दिन जब पलंग पॉछते समय पलंग का एक काँच जमीन पर गिर पड़ा और उषा ने कहा-'अंधी हो गई हो क्या? दिखाई नहीं देता ? इससे पहले भी दो-दो बार काँच टूटा पड़ा मिला था. अब समझी, तुम्हारा ही काम है. इस पलंग को देखने के लिए लोगों की आँखें तरस जाती हैं और तुम हो कि जानबूझकर हरकत करती हो।' बेला ने कहा- 'बहूजी, हम काहे को जानबूझ कर ऐसा करें, हमका का मिली. धीरे-धीरे समनवा पुरान होत है खराब तो होबै करि।'

कमरे से बाहर निकलकर उषा चीखने-चिल्लाने लगी-'माँजी! इसकी हिम्मत देखिए, जब तक बाबू जी इसके बच्चों को पढ़ाते रहे यह भीगी बिल्ली बनी रहती थी, अब मतलब निकल गया तो यह चोंच चलाने लगी है, एक तो देखकर काम नहीं करती, काँच निकलता चला जा रहा है ऊपर से जबान लड़ाती है कहती "समनवा पुरान होत है, खराब तो होबे करि...अरे बन्दर क्या जाने अदरक का स्वाद, इसके खानदान में न कभी किसी न ऐसा पलंग देखा है और न ही देखेगा....मैं पूछती हूँ तुझे मालूम कितना महँगा सामान है? मालूम मेरे बाबू ने कितने हजार खर्च किए थे?

बेला ने पलट कर वार किया-'तनिक बोली तो सुनो! बड़ी आयी है महारानी! अरे हमार मरद अच्छा कमावत रहा, सरकारी दफ्तर मा ड्रेवर रहा, नोकरिया न जात तो तोहरे यहाँ के आवत, बात करे का सहूर नहीं.. महिंगा सामान बाबू कित्ते हजार खरच किए...अरे बाप दिए हैं तो औकर जतन खुद काहे नाही करते हो, एक नम्बर का कामचोर जब देखो पलंग पर महारानी बनकर बैठी रहत, बैठे-बैठे खाए के मुटाए गए है...हम जाए रहे हैं. अब कौनो न आई इ घरवा मा. आपन कमवा जब खुद करबो तब समझ मा आयी, माजी बहुत सीधी है तोका हमार जईसा सास चाहि रहा, माजी का खटावत शरम नहीं आवत?" बात ख़त्म करके वह तनफनाती हुई निकल गई।

बेला के जाने के बाद उस घर का काम सचमुच किसी ने नहीं लिया। थोड़े दिनों के बाद शर्माजी के बेटे का प्रोमोशन हो गया और साथ-साथ ट्रांसफर भी हुआ। बाहर क्वार्टर के कमरे छोटे-छोटे होने के कारण पलंग जस का तस धरा रहा। बेटे ने कहा था अपना मकान बनवाने के बाद पलंग ले जाएगा मगर उसने एक एल. आई. जी. फ्लैट खरीदा जहाँ उस पलंग को रखने की गुंजाइश नहीं थी। फिर उषा ने उस पलंग को बेच देने की फरमाइश की।

अत्यन्त निरुपाय होकर शर्माजी ने पलंग को बेला के हाथ बेच दिया। पलंग खरीदने के लगभग एक माह बाद बेला ने शर्माजी और उनकी पत्नी को अपने घर भोज पर बुलाया। बेला ने शर्माजी से दोनों हाथ जोड़कर कहा- 'बाबूजी, आपन जमीनिया पर हम एक छोटा मकान बनवाए हैं। गिरह परवेश है, हमार घर मा आपका पैर पड़े तो घरवा पवित्तर होय जाई। आप की किरपा से हमार दुईनों पढ़ लिख नौकरी करत हैं आप ऐहें जरूर, हम आसरा देखब।'

शर्माजी अकेले बेला के घर होकर लौटे। पत्नी ने कटाक्ष किया-'हो आए? कहाँ रखा पलंग को ? झुग्गी के सामने खुली जमीन पर?"

"अब उसके दिन फिर गए हैं। उसकी हालत हम लोगों से बेहतर है' शर्माजी ने गंभीरता से कहा। 'वह कैसे?'

पत्नी चकित हुई। शर्माजी ने कहा- अब झुग्गी-उग्गी का नामोनिशान नहीं है, सब तोड़ ताड़कर दो मंजिला मकान बनवाया है.... उसका पति कोर्ट केस जीत गया है, पूरे दस साल की तनख़्वाह इकट्ठी मिली है....ग्राउंड फ्लोर में दो बड़े बड़े कमरे हैं, काफ़ी बड़े-बड़े हैं. एक ड्राइंग रूम है और दूसरे में पलंग रखा है, पलंग को खूब सजाकर रखा है, एक फुट ऊँचा गददा बिछाया है....चार-पाँच सौ लोगों को दावत दिया था।'

इतने में उषा का फोन आया - -'बाबूजी! बैंक ड्राफ्ट मिल गया है, बहुत मौके पर आपने पलंग को बेचा है, हमें रुपए की सख्त जरूरत थी. बाजूजी! आपसे एक शिकायत भी है, आपने पलंग को उस नौकरानी के हाथ क्यों बेचा? सौ दो सौ कम सही किसी और को बेच सकते थे।'

शर्माजी ने कहा-'बहू! बहुत कोशिश तो की थी, यह मौका अगर गँवा देता तो पता नहीं कब बिकता या न भी बिकता, आजकल इतना बड़ा सामान रखने का स्थान किसी के पास नहीं रहता! बेला ने बहुत सुन्दर और बड़ा सा मकान बनवाया है... अभी-अभी मैं उसके घरसे लौट रहा हूँ, आज वह अपनी शादी के पचीस वर्ष मना रही है, खूब सजधजकर पलंग पर बैठी हुई थी...एकदम महारानी लग रही थी।'

© सुभाष चंद्र गाँगुली

(कहानी संग्रह: सवाल तथा अन्य कहानियाँ से, 
प्रथम संस्करण: 2002)
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* " साक्षात्कार " मई 2000 अंक में प्रकाशित ।
** " मरू गुलशन " सम्पादक अनिल अनवर, एयरफोर्स कालोनी, जोधपुर में 2003मे ।
** बांग्ला कहानी संग्रह ' शेषेर लाइन' ( आखिरी लाइन)10/2003 में संकलित ।
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** जनवादी लेखक संघ, इलाहाबाद द्वारा निराला सभागार, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रख्यात साहित्यकार दूधनाथ सिंह की अध्यक्षता में दिनांक 13/8/2000 मेंचर्चा आयोजित की गई थी ।
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कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियां :--
** " ' पलंग ' मध्य वर्ग के बदलते स्वरुप की कहानी है । श्री गांगुली ने बड़ी खूबसूरती से एक अर्थशास्त्र को दूसरे अर्थशास्त्र में स्थानांतरण की समस्या दर्शाया है ।"
प्रो॰ दूधनाथ सिंह, 
हिन्दी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय तथा
अध्यक्ष, जनवादी लेखक संघ 

** ' पलंग' कहानी में पिछड़ा वर्ग आगे बढ़ता है । बदला लेने की भावना नहीं विकास मे है । उसी शीर्षक की उपेंद्र नाथ 'अश्क ' की कहानी ' पलंग' तथा प्रियंवद की कहानी 'पलंग' से बेहतर यह कहानी है ।''
श्रीप्रकाश मिश्र, 
प्रतिष्ठित उपन्यासकार एवं कवि

* " आपकी कहानी ' पलंग ' काफ़ी अच्छी बन पड़ी है। ' सबरंग', में भी एक कहानी पढ़ी थी " -- पलाश विश्वास । पत्र दिनांक 31/12/2000

*  " ' पलंग ' इस संग्रह की पहली और महत्त्वपूर्ण कहानी है। इस कहानी के माध्यम से सुभाष चन्द्र गांगुली ने महानगरों में उपस्थित दो समानांतर उपस्थित जीवन, स्थितियों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत किया है। नक्काशीदार पुराने पलंग को जहां एक ओर बहू और बेटे के बीच बेचने की बेसब्री है क्योंकि वह अब आज के हिसाब से गैर जरूरी वस्तु की श्रेणी में शामिल है वहीं उनकी नौकरानी के लिए उसे खरीदना एक उपलब्धि है। नये फैशन की दौर और किसी तरह पुराने से ही खुद को समृद्ध दिखाने की ललक दो अलग-अलग बिंदु है जिन्हें बड़े मनोवैज्ञानिक ढंग से सुभाषचन्द्र गांगुली ने सम्प्रेषित किया है। "
 --श्रीरंग
 प्रतिष्ठित साहित्यकार एवं समालोचक (विमर्श- चतुर्थ अंक 2005मे 'सवाल तथा अन्यकहानियां' संग्रह की समीक्षा से।)

** " ' पलंग' शीर्षक कहानी में मध्यम वर्ग के सदस्यों की मानसिकता तथा आर्थिक बदहाली का यथार्थवादी चित्रण जिस रोचक ढंग से किया गया है वह बेजोड़ है। निम्न वर्ग की महत्वाकांक्षा तथा परिवार के मुखिया शर्माजी का कहना " अब उसके दिन फिर गये हैं। उसकी हालत हमलोगों से बेहतर है " निम्न वर्ग के उज्जवल भविष्य की ओर संकेत भी करता है ।"
--कृष्णेश्वर डींगर( 'तटस्त' जनवरी-मार्च 2004 से ) अध्यक्ष, वैचारिकी संस्था , इलाहाबाद

** पलंग कहानी सशक्त और रोचक है और बांधे रखती है। यह कहानी पूरा सुख और मनोरंजन देने में सफल से ।
--डॉ तिलकराज गोस्वामी
** पलंग कहानी की भाषा बहुत आकर्षक है। इसमें कथा का विकास भला लगा । रोचकता भी जबरदस्त है।
--रतीनाथ योगेश्वर
** सुभाष चंद्र गांगुली ने कहानी के शिल्प को संवारने का प्रयास किया । उनकी कहानी में बांग्ला कहानी और उपन्यासों का प्रभाव दिखता है । पलंग को सार्वजनिक कहना रचनात्मक विशेषता ।
--मत्स्येंन्द्र नाथ शुक्ल
** श्री गांगुली ने जिस तरह से समाज का चेहरा उकेरा है वह अप्रतिम है । कहानी खासी इलाहाबादी तेवर की है ।
-- यश मालवीय

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