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Saturday, June 26, 2021

कहानी- बाँसुरीवाला






आज फिर बहुत दिनों के बाद, बहुत लंबे इंतजार के बाद बाँसुरी की धुन सुनाई दे रही है। अभी वह दूर है, काफी दूर है, गली के उस मोड़ पर है। लेकिन उसकी बाँसुरी से निकला राग यमन, जनरेटर्स और पंपो की गड़गड़ाहट के बीच उसी तरह बहकर मेरे पास आया है, जैसे किसी बच्चे की किलकारी दुखों को चीरकर मन हिला देती है। सच! बाँसुरी की धुन के आगे दुनिया की सारी धुनें फीकी पड़ जाती हैं।

आज मुझे वह धुन शायद इसलिए और अधिक मधुर लग रही है। क्योंकि मुझे फटे-चिथड़े जोकर की पोशाक में सजा उस बाँसुरीवाले का बेसब्रीसे इंतजार था। अभी वह आहिस्ता-आहिस्ता कदम बढ़ा रहा होगा, दरवाजे-दरवाजे रुकेगा। कोई रोकेगा। कहीं कोई बच्चा कुलाँचे मार दरवाजे के बाहर आकर पुकारेगा-'बाँसुरीवाले! बाँसुरीवाले! इधर आओ, जल्दी आओ, कहीं कोई किशोर हंसता-मुस्कराता, तनिक शरमाया हुआ बाँसुरीवाले को रोकेगा, कई बाँसुरिया रिजेक्ट करने के बाद एक छाँटेगा और कहेगा-“मेरा मन डोले तन डोले....कौन बजाये बाँसुरिया सुनाओ ना। सुनने के बाद वह पू.पू.. पू-पू. करके बजाने की कोशिश करेगा: फिर कहेगा- नहीं हो रहा है, हमें सिखा दो ना, और बाँसुरीवाला मुस्कुराकर बोलेगा-'बजाते रहो, आ जायेगा।'

कहीं किसी बच्चे का मन वाकई डोल उठेगा और वह रो-धोकर पचास पैसा लेकर दौड़ता हुआ आयेगा, मगर बाँसुरीवाला बोलेगा-'पचास पैसे में भोंपू मिलेगा, लो भोंपू बजाओ और पास खड़ा एक नन्हा बच्चा पच्चीस पैसे का सिक्का बढ़ायेगा या खाली हाथ ऊपर उठायेगा और फिर नीचे गिरा लेगा, उसकी ओर एक बार देखकर बाँसुरीवाला आगे बढ़ जायेगा और वह नन्हा बच्चा मन मसोस कर उसकी पीठ देखता रह जयेगा, जब तक वह आँखों से ओझल न हो जाये, और उसके बगल में खड़ा लड़का उसे चिढ़ाने के लिए उसके कानों के पास जोरों से भोंपू बजाता रहेगा, अपनी गरीबी और विवशता से त्रस्त वह नन्हा बच्चा क्रोध भरी निगाहों से भोंपूवाले बच्चे को देखकर मुँह बिचकाकर दौड़ लगायेगा....और फिर धीरे-धीरे बड़ी तन्मयता के साथ पूरा का पूरा राग यमन भाँजता हुआ, खुला मैदान पार कर वह बाँसुरीवाला मेरे घर के पास पहुँचेगा, द्वार के पास ठहरकर, "मेरा मन डोले तन डोले" तान छेड़ेगा, मेरा बच्चा अगर नहीं पहुँचा तो वह एक बड़ा सा भोंपू बल्कि भोंपा निकालेगा और पूरी शक्ति से फूँककर कर्णभेदी आवाज निकालेगा....मगर नहीं आज शायद वह नहीं आयेगा। घर के सामने नहीं रुकेगा, शायद मैदान पार करने से पहले ही चुप्पी साध लेगा, आखिर पिछली मर्तबा मैंने उसे कितना डाँटा था-'क्या रोज-रोज खोपड़ी खाते हो पैसे क्या आसमान से टपकते हैं? चुपचाप निकल जाया करो यहाँ से, और मेरा बेटा फूट फूट कर रोने लगा था। जाने कितनी बार मैंने बेटे को डाँटकर कहा था 'बाप का पैसा क्या फालतू है? सरकारी नौकर हूँ. थोड़ी-सी तनख़्वाह है, ऊपरी कमाई भी नहीं है, हर दूसरे दिन कहाँ से दिलायें तुम्हें बाँसुरी? न तो बजाना आता है और न ही रखना आता, हाथ में लेने की देर नहीं कि तोड़-ताड़ कर धर देते हो, चलो अंदर। किन्तु बेटा सुर रोता रहा और में अंततः मुझे हार माननी पड़ी थी।

उस दिन भी मैं बेटे को कुछ उसी तरह डाँट लगा रहा था कि वह अधेड़ जोकरनुमा बाँसुरीवाला बोल पड़ा था-'अरे बाबूजी बच्चा है, आखिर सारी कमाई बच्चों के लिए ही तो है, यह तो सस्ता सामान है, लोग तो बच्चों के लिए महंगे-महंगे खिलौने खरीदते हैं।'

उसकी बात से मैं अपना आपा खो बैठा था-हाँ, हाँ तुम्हारा फायदा जो होगा....और लोग क्या करते हैं पता है? अपनी औकात दिखाने के लिए हजार दो हजार के खिलौने खरीदकर अलमारी में ठूंस देते हैं. बच्चे छूने... के लिए तरस जाते हैं... लाओ दो क्या क्या माँग रहा है, और कल से यहाँ दिखाई न देना वर्ना....।

और फिर सचमुच वह दिखाई नहीं दिया। मेरा मुन्ना तरस गया। आये दिन वह उसकी राह देखता। इस बीच मैं कई बार बाजार से उसके लिए बाँसुरी ले आया मगर उसे अहमद चाचा की ही बाँसुरी चाहिए थी। बेटे का लगाव लाजमी था। एक बार जब मैंने अहमद से कहा था कि बेटे को टाइफाइड हो गया है तब कुछ दिनों तक वह मेरे घर के सामने बिना आवाज़ किये आता, बेटे का हालचाल पूछता और चला जाता। एक बार वह बेटे से मिलने के लिए घर के भीतर आया था, कमरे के बाहर से चुपचाप झाँककर चला गया था। फिर जब मेरा बेटा ठीक होकर बाहर निकलने लगा तो उसने जो पहली बाँसुरी दी थी, वह उसकी तरफ से भेंट थी।

जिस दिन अहमद मेरे बेटे को देखने घर के भीतर आया था मुझे थोड़ी सी मेहमाननवाजी करनी ही थी सो की थी। चाय पीते-पीते उसने अपने पेशे की जानकारी दी थी। उसने कहा था उसके खानदान में पुश्त दर पुश्त बाँसुरी का यह धंधा चला आ रहा है। एक व्यापारी के कारखाने में उसका बाप, चाचा, ताऊ और उसके रिश्ते के ढेर सारे लोग काम करते हैं। दिन भर में जो मजूरी मिलती है उससे परिवार का भरण-पोषण नहीं हो पाता। सभी को ओवरटाइम करना पड़ता है। उसने कहा था प्रायः सुबह जब तक वह सोता रहता, उसके पिता काम कर निकल जाते हैं.. और रात को जब तक वह लौटते तब वह सो जाता है। उनसे बहुत कम मुलाकात हो पाती है, परिवार के बच्चे नाबालिग होते हुए भी इस धंधे में जुट जाते हैं मगर बाँसुरी बनाना एक खास शिल्प है, सभी लोग इस कला को सीख नहीं पाते। जो बच्चे सीख नहीं पाते वे बाँसुरी बेचने के काम में लग जाते हैं। उसने कहा था कि सरकार इस शिल्प और उद्योग के प्रति उदासीन है, असम से रेलगाड़ी द्वारा छोटी लान से बाँस मँगाया जाता है.. इसमें काफी खर्च आता है। इस कारण से बाँसुरी की लागत भी ज्यादा आती है लिहाजा बच्चों को कम कीमत पर बाँसुरी बेची नहीं जा सकती. कभी-कभी तो मेले में सारी बाँसुरियाँ धरी रह जातीं। बड़ी दार्शनिक मुद्रा में उसने कहा था कि वे लोग दिन रात मेहनत करके दुनिया को संगीतमय बनाना चाहते हैं मगर दुनिया है कि दिनों दिन बेसुरी होती जा रही है!

अहमद के न आने से मैं खुद को कसूरवार समझता। रह-रहकर मुझे उसकी याद सताती, कई बार मैंने उसे ढूँढ़ने की कोशिश की। इस बीच मेरे घर के सामने एक-दो बार बाँसुरी की आवाज सुनाई पड़ी थी. मुझे पता था वह अहमद की धुन नहीं है फिर भी मैं यह सोचकर निकल आया था कि शायद अहमद ने अपने आपको डिस्को युग के साथ एडजस्ट कर लिया हो। घर के सामने खड़े होकर मैंने बेटे को बाँसुरी दिलायी मगर मेरा बेटा खुश नहीं दिखा। मैंने दो-दो बाँसुरीवालों से अहमद के बारे में पूछा मगर किसी का उससे परिचय नहीं था।

किन्तु आज मुझसे गलती नहीं हो रही है, वही मधुर धुन, वही राग, वही तन्मयता....अहमद के सिवा और कोई हो ही नहीं सकता... लेकिन आज मेरे घर के द्वार पर नहीं रुकेगा, मेरा बेटा घर पर नहीं है, उसे न देख अहमद भोंपा भी नहीं बजायेगा....गरीब है तो क्या स्वाभिमानी है और हो भी क्यों न ? किसी का कर्जा तो नहीं खाया, जीने के लिए घुटना तो नहीं टेका, अपनी गरीबी को दूर करने के लिए ईमान को ताक पर तो नहीं रखा, मेरी अपनी ही गलती थी जो उसे दो कौड़ी का समझ बैठा था... और उसे गुमान भी है कि उसके खानदान के सभी शिल्पी हैं, उसके पास भी हुनर है, एक से एक कठिन राग मामूली सी बाँसुरी से निकाल लेता है....मुझे ही रोकना पड़ेगा, आदर से बुलाना पड़ेगा, उसे आहत करने   का खेद व्यक्त करना पड़ेगा।

फिर मैं घर से बाहर निकल आता हूँ, उसे देख मैं चकित हो रहा। हूँ....अहमद की शक्ल-सूरत, अहमद का हुलिया, वही चाल उसी तन्मयता के साथ राग यमन भाजता हुआ मैदान पार कर मेरे घर के सामने से गुजर रहा है, मैं उसे बुलाता हूँ 'अहमद! अहमद! ए... बाँसुरीवाले!' 
वह पलटा, मैं हतप्रभ, सब कुछ एकदम अहमद जैसा मगर यह अहमद नहीं है, कम उम्र का एक लड़का, धानी रंग की मूँछ की रेखाएँ, कोमल, लावण्यमय मुखड़ा किन्तु उस पर एक अजीब भारीपन, बल्कि एक परिपक्वता है ।
 मैं पूछता हूँ- 'तुम अहमद बाँसुरीवाले को जानते हो?'
- 'वह 'मेरे अब्बू थे', एक, करुण, मार्मिक, हृदय विदारक उत्तर । 
- ' थे??.. क्या मतलब ? अब वे.....
- ' इस दुनिया में नहीं रहे।' उसने वाक्य पूरा कर दिया ।
थोड़ी देर खामोश रहने के बाद उसने पूछा- 'बाबूजी बाँसुरी लेंगे?...बाँसुरी लेंगे?'

- ' हाँ?...हाँ लेंगे।' पता नहीं मैं कहाँ खो गया था। उसके हाथ से बाँसुरी लेकर मैं पूछता हूँ-'अब से तुम यह धंधा करोगे ?....या बाँसुरी बनाना सीखोगे।'

- 'नहीं जो बाँसुरियाँ घर पर धरी हैं उन्हें बेचना है....अम्मा ने मुझे मना किया था...अम्मा ने कहा था कि मेरे दादा, परदादा, नाना, सबका इंतकाल भुखमरी से हुआ था, सबको टी. वी. हो गयी थी...मेरी अम्मा बाँसुरी की आवाज़ नहीं सह पाती, वह कहती है लगता है जैसे कहीं गमी हो गयी है, उन्हें बाँसुरी की आवाज़ में मौत की पुकार सुनाई देती है...उनके सामने बाँसुरी बजाने से वह खीझकर कहती, "बन्द करो मौत की धुन, फेंक दो सब उठाकर, मजूरी करो, रिक्शा चलाओ, खोनचा लगा लो, भीख भी माँग लो मगर मत छूना इसे "...बाबूजी! आज दो बाँसुरी ले लीजिए ना!! '

"तुम सारी यहीं रख दो, मैं खरीद लेता हूँ। मैंने कहा। मैं प्रायश्चित करना चाहता था।

© सुभाष चन्द्र गाँगुली
   12/11/1999
Reedited on 15/05/2023

(कहानी संग्रह: ' सवाल तथा अन्य कहानियाँ ' से,
प्रथम संस्करण: 2002)
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* पत्रिका "कथाबिम्ब " सम्पादक, अरविंद सक्सेना, अक्टूबर--दिसम्बर अंक 1999
** " रविवारीय " अखबार 2/7/2000 में प्रकाशित ।
** पत्रिका ' तटस्थ ' सम्पादक कृष्ण बिहारी सहल, सीकर, राजस्थान के अंक जनवरी- मार्च 2011 में प्रकाशित।
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कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियां :------
** ' कथाबिम्ब' में प्रकाशित ' मेरी प्रतिक्रिया से आप संतुष्ट हैं यह जानकर तृप्ति मिली । आपकी कहानी का अंत अब भी कानों में बजता है । ' मिठाई वला'  'काबुलीवाला' आदि कहानियों की चर्चा मैंने आपकी कहानी के फ्रेमवर्क को स्पष्ट करने के लिए की है साहित्य भी अन्य विधाओं की तरह कहानी भी शिल्पगत कथागत या उद्देश्यगत एक धारा बनती है जो आगे चलती है नये नये रुप लेकर । इससे किसी की मौलिकता पर प्रश्नवाचक नहीं लगता अपितु इसने कुछ नया इज़ाफ़ा किया है यह सिद्ध होता है। कुटीर उद्योग से भी अधिक आपकी कहानी में बांसुरी के साथ जुड़ी त्रासदी का मानवीकरण है । "
डॉ किशोर काबरा, एम ए, पी एच डी, सम्पादक, ' भाषा सेतु' अहमदाबाद 382424 पत्र दिनांक 24/8/2000
** " आपकी कहानी  ' बांसुरी वाला ' पढ़ी, चिंतनीय के साथ  हृदय को रुला देने वाली है । बड़ी ही लगन के साथ कहानी को लिखे हैं। उपर्युक्त कहानी मार्मिक  है ।" अनिल कुमार दुबे , छत्तीसगढ़ सरयू पारीण ब्राह्मण महासंघ, मुग्य पोस्ट आफिस,करगीकला, विलासपुर । पत्र दिनांक 17/11/2000
** ' कथाबिम्ब' में आपकी कहानी 'बांसुरीवाला ' पढ़ी। कहानी हृदयस्पर्शी है । हमारे आसपास बहुत से अपरिचित लोग हमसे कितनी गहराई से जुड़े होते हैं, इसका अहसास हुआ । रचना के चरित्र समाज के विसंगतियों को सामने लाते हैं । अपने परिवेश के उपेक्षित पात्रों पर रचनाएं कम ही पढ़ने को मिलती है। कथ्य प्रस्तुतिकरण हर लिहाज से रचना प्रभावित करती है ।'
मोहन सिंह रावत, रोहिला लाज परिसर, तल्लीताल, नैनीताल 263002 पत्र दिनांक 31/7/2000ंश
** ' बांसुरीवाला ' कहानी में यह पढ़कर " बांसुरी से निकला राग ' यमन' पम्पो और जेनरेटर्स की गड़गड़ाहट के बीच उसी तरह बहकर मेरे पास आता है जैसे किसी बच्चे की किलकारी दु:खो को चीर कर मन हिला देती है । " ऐसा लगता है जैसे पाठक कोई कहानी न पढ़कर कविता की कोई पंक्ति पढ़ रहा है । जब कहानी का नायक ' बांसुरी वाला ' की दास्तान उसके बेटे से सुनकर कहता है " तुम सारी ( बांसुरी ) यहां रख दो, मैं खरीद लेता हूं ।" मैं प्रायश्चित करना चाहता था। यह केवल उसका प्रायश्चित नहीं वरन् सारे समाज का प्रायश्चित है जिसको लेखक ने सशक्त ढंग से व्यक्त करके बहुआयामी बना दिया है -- लघु उद्यमों का विनाश, शोषित वर्ग की अपने कार्य के प्रति तथा कला के प्रति निष्ठा उनकी आर्थिक विपन्नता, पूंजीवादी संस्कृति का विकास जैसे अनगिनत मुद्दे उभर कर आते हैं ।"
कृष्णेश्वर डींगर
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' सवाल तथा अन्य कहानियां ' की समीक्षा करते हुए पत्रिका ' तटस्थ ' अंक जनवरी-- मार्च 2004 मे लिखा ।
** " ' बांसुरी वला' कहानी में सुभाषचन्द्र गांगुली ने एक अलग ढंग के कथ्य को नये अंदाज में प्रस्तुत किया है । बांसुरी वाला की मृत्यु पर फिर उसकी जगह उसके बच्चे का बांसुरी बेचना और इस व्यवसाय के प्रति असंतोष की पराकाष्ठा यहां दिखती है । साथ ही ग्राहक के मन के द्वन्द्व को भी यहां विशेष अभीव्यक्ति मिलती है । कला के क्षरण नये खिलौनों के संसार में पुराने और पारंपरिक खिलौने की स्थिति और उससे जुड़े शिल्पकारों की नियति और विडंबनाओं को रेखांकित करने में यह कहानी पूरी तरह कामयाब रही है । "
श्रीरंग ( ' सवाल तथा अन्य कहानियां' की समीक्षा करते हुए श्रीरंग पत्रिका ' विमर्श' 2005 चतुर्थ अंक में ।)

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