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Monday, June 14, 2021

कहानी- आखिरी लाइन



डॉक्टर राय का इंतकाल हो गया। उनके बेटे नरेश को मैंने ख़बर दी। लगभग एक घंटे बाद वह एक डॉक्टर लेकर आ पहुँचा। उसकी बनावटी सूरत देख मुझे गुस्सा आ गया।

'अब डॉक्टर साहब क्या करेंगे? ही इज डेड। मैंने कहा।

'वह मेरे पिता हैं। आपसे ज्यादा फिक्र मुझे थी, और है। आज भी वह ठीक थे। मेरा नौकर देखकर गया था। नरेश की आँखें अँगार हो गई।

'आई एम सॉरी। मेरे कहने का मतलब यह नहीं था। मेरे मुख से यूँ ही निकल पड़ा था। दरअसल मैं.... मैंने मैनेज करना चाहा।

'डॉक्टर काइंडली आप जरा ठीक से देखिए ना! शायद अभी भी....आप अगर कहें तो किसी नर्सिंग होम में....

'ले जा सकते हैं। तसल्ली हो जाएगी बट ही इज नो मोर। पल्स नहीं मिल रही है, बॉडी स्टिफ है। लगभग आधा घंटा या पौन घंटा हुआ होगा।

-जी हाँ, पूरा एक घंटा हुआ है। मरते समय वह एकबारगी सक्रिय हो गए थे। पिछले दो दिनों से मृत लग रहे थे. बूँद-बूँद पानी ही ले सके थे। मैंने उन्हें तिल-तिल मरते देखा। पहले बोलना बंद हुआ था. फिर देखना, फिर सुनना। इस बार मैंने जानबूझ कर कहा और नरेश को देखकर मन ही मन कहा 'अब बोलो'। नरेश का चेहरा तमतमा उठा। दाँये बाँये देख उसने कहा-डॉक्टर साहब! आपका आना फिर भी जरूरी था। श्मशान में और अन्य कई जगह डेथ सर्टिफिकेट देना पड़ेगा।'

वृद्ध डॉक्टर ने नरेश को आँख फाड़कर देखा फिर 'चलता हूँ, सर्टिफिकेट ले जाइएगा' कह कर तेज डगों से निकल गए।

नरेश अब काफी व्यस्त हो गया। उसने एक के बाद एक कई फोन किए। उसने दोनों भाइयों से कहा कि वह उनके आने का इंतजार करेगा, अगले दिन अर्थी उठेगी।

नरेश ने पिता के प्राचीन जंग लगे भारी ट्रंक, चमड़े की बेढब, वृहद जर्जर अटैची, खादी का झोला, यहाँ तक कि कपड़े-लत्ते, कापी-किताब और दवाइयों के पैक्टों को उलट-पलट कर देखा। ढेर सारे सिक्के समेत तेइस हजार चार सौ सत्तावन रुपया निकला। नरेश ने नोटों को जेब में भरा और फुटकर ट्रंक में डाल दिया।

'आज छब्बीस तारीख़ है ना?' नरेश ने पूछा।

'आज तक की पेंशन का पेमेंट कैसे मिलेगा? आपके दफ़्तर का

मामला है, आपको मालूम होगा।"

'सक्सेशन सर्टिफिकेट देना पड़ेगा।"

'सक्सेशन सर्टिफिकेट ? मात्र सत्ताइस दिन के लिए?"

"उन्होने ढाई साल से पेंशन नहीं लिया था।"

'क्या ???... यह कैसे संभव है ?.... उनका सारा खर्च? इतनी प्रैक्टिस तो नहीं थी....'

'पता नहीं। यह आपका घरेलू मामला है।'

'एफिडेविट से काम हो जाना चाहिए। मैं जिम्मेदार पद पर काम

करता हूँ।'

'पद-वद से मतलब नहीं रहता। नियम सबके लिए एक है....सर्टिफिकेट पाने के लिए पंद्रह-बीस हजार खर्च करना पड़ेगा, हो सकता है कुछ ज्यादा भी लगे।"

'पंद्रह-बीस हजार क्यों?"

'कुछ तो फीस, बाकी 'कर्टसी'..... सर्टिफिकेट में आप तीनों भाइयों का नाम रहेगा।'

कुछ देर बाद नरेश ने डाकघर बचत खाता दिखाकर कहा

'इसमें साढ़े चार हजार हैं यह रकम डूब जाएगी ना?" 'पता नहीं। डाकघर में पूछिएगा, शायद किसी के नाम नामिनेशन हो।'

'ओहो! याद आया, इसे मैंने ही खुलवाया था। पुराना अकाउंट है, इसका नामिनी मैं ही हूँ....वकील से बात करनी पड़ेगी। बचत खाते का नामिनी मैं अकेला हूँ यानी पिताजी ने सिर्फ मुझे वरिस माना था, और हो भी क्यों न मैं अकेला ही देखभाल किया करता था.... एफिडेविट देकर अपील करूँ तो?"

'नहीं मिलेगा। सक्सेशन सर्टिफिकेट के बगैर एक ढेला नहीं मिलेगा। पोस्ट आफिस सेविंग अकाउंट के नामिनेशन का अर्थ यह नहीं है कि आप अकेले वारिस हैं।'

'अजीब बात! बचत खाते के लिए मैं अकेला बाकी के लिए मैं अकेला नहीं ऐसा नहीं हो सकता।"

"ऐसा ही है।'

'वकील से बात करूंगा.....आपको जल्दी तो नहीं है? थोड़ी देर में मेरे दफ़्तर के लोग आ जाएँगे। 'नहीं। जहाँ सत्तर घंटे वहाँ सत्तर मिनट और सही। तीन दिन से हिल नहीं पाया।

सात दिन पहले जब में डॉक्टर साहब से मिलने आया था तभी पता चला था वे एक माह से बिस्तर पर थे। उनकी हालत नाजुक थी। मैंने जब हमदर्दी जतायी तो वे अत्यंत भावुक होकर बोले- घर-दुआर-संसार सब कुछ होते हुए भी आज मैं अकेला हूँ, एकदम अकेला हूँ. आठ कमरों का यह मकान और मैं अकेला, एकाकीपन का दंश मुझे बुरी तरह डस रहा है। रात को अक्सर सिहर उठता हूँ. छोटी-छोटी आवाज भी भय का कारण बनती है....अकेलापन इंसान को भीरु बना देता है, आत्मविश्वास निकल जाता है....नरेश का नौकर दिन में दो बार आता है, छोटा-मोटा काम उसी से करवा लेता हूँ, सामने ढाबे से खाना भी ला देता है.... अब तो बस जब शरीर की घड़ी रुक जाए.......

'आपको देखकर नहीं लगता कि आपके दिन गिने हैं, आप और जिएँगे। मैंने सान्त्वना देनी चाही।

'मेरी दीर्घायु की कामना करके मुझे फ्रस्ट्रेट मत करो, यह कामना मेरे लिए बददुआ है....तुमसे एक रिक्वेस्ट करता हूँ, तुम अगर थोड़ा सा वक्त मेरे पास रहा करो! ज्यादा कष्ट नहीं दूंगा। हर पल मौत को क़रीब आते देख रहा हूँ, हर साँस में उसे अनुभव कर रहा हूँ।'

"मैं आऊँगा। अवश्य आऊँगा। मुझे अच्छा लगेगा। जब मैं छोटा था, मेरे पिताजी चल बसे थे....'

कुछ संकोचवश और कुछ मोहवश मै अधिक से अधिक समय डॉक्टर साहब को देने लगा। उस दौरान उन्होंने ढेर सारी आपबीती सुनायी। उनकी उन तमाम बातों से मुझे लगा कि उनके मन में 'लाइन लगाने की गहरी पीड़ा थी। विश्वयुद्ध के बाद गेहूँ, चावल, तेल, चीनी, कोयला आदि के लिए कंट्रोल में लाइन लगाते-लगाते उनका बचपन बीता था. पढ़ाई का नुकसान हुआ था। जवानी में भारत-चीन, भारत पाकिस्तान युद्धों के बाद हरेक सामान यहाँ तक कि टायर, ट्यूब और मछली के लिए इतनी अधिक लाइन लगानी पड़ी थी कि उसके चक्कर में उनके सारे अर्जित अवकाश खत्म हो गए थे। और तो और बुढ़ापे में भी लाइन से राहत नहीं मिली। बिजली बिल, टेलीफोन बिल, हाउस टैक्स, वाटर टैक्स, इनकम टैक्स और पेंशन के लिए दिन-दिन भर ट्रेजरी में लाइन लगाते-लगाते उन्हें कमर दर्द की बीमारी हो गई। अत्यंत दुःखी .होकर उन्होंने कहा- 'लाइन सिस्टम ने मुझे इतना कष्ट दिया कि दो वर्ष से ज्यादा बल्कि ढाई वर्ष से मैंने पेंशन नहीं उठायी।'

'आपको शायद पेंशन की जरूरत नहीं पड़ी। पच्चीस-तीस मरीज रोजाना देख लेते होंगे।

'हाँ इतने लोगों को तो देख ही लिया करता था बल्कि ज्यादा ही। अकेला आदमी, जरूरत ही कितनी...जब तक बूढ़ी थी, दो पैसे की जरूरत थी....अच्छा हुआ वह पहले चली गई. वह रहती तो सुकून से मर नहीं पाता।'

"आप कहें तो पेंशन ड्रा करने में मैं आपकी मदद कर सकता हूँ।'

"नहीं, पेंशन लेने के लिए मुझे स्वयं वहाँ हाजिर होना पड़ेगा। साल में एक बार 'लाइफ सर्टिफिकेट के लिए हाजिर होना जरूरी है। अब तो मैं चलने-फिरने की स्थिति में नहीं हूँ। लाइन से छुट्टी नहीं मिल रही थी. मैंने खुद ही अपनी छुट्टी कर ली।"

'मगर यह आपने ठीक नहीं किया। दो साल की पेंशन दो-ढाई लाख, फोर्थ पे कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार 1986 से पहले के रिटायर्ड लोगों का रिवीजन का एरियर भी ढाई-तीन लाख यानी करीब पाँच-छह लाख डूब सकता है।'

'सरकारी पैसा डूबता नहीं है।'

'पेंशन रिवाइज करवा लेना आसान काम नहीं है। अभी भी बहुतों का नहीं हो पाता है। आप ही करवा सकते थे। आपका अपना दफ्तर है। सबसे जान-पहचान है। हाँ थोड़ा सा लगना पड़ता, लिखा-पढ़ी करनी पड़ती मगर आपके लड़के दौड़-धूप कर रुपए खर्च कर काम करवा लेंगे इसमें मुझे संदेह है।'

'सब कुछ करवा लेंगे...रुपए की बात है।"

'चाहे सक्सेशन की बात हो या पेंशन रिवीजन का मामला हो, ढेर खर्च होगा। पाँच-छह लाख पाने के लिए पचास-साठ हजार खर्च करना पड़ सकता है....कौन देगा? राकेश-मुकेश बाहर हैं। नरेश कहेगा उसके पास समय नहीं है। वह किसी को लगाएगा और उस पर शक भी करेगा, कहीं ज्यादा न ले ले। फिर पहले रुपया देना पड़ेगा, कौन किसके हाथ देगा? रूपया देते समय सोचेगा कहीं डूब न जाए। अगर नरेश काम कराये तो दोनों भाई कहेंगे जब रकम मिलेगी तब वे अपना-अपना शेयर दे देंगे। नरेश को भरोसा नहीं होगा। इस गोरख धंधे में मामला लटका रहेगा। मैं समझता हूँ। आपका रुपया डूब ही जायेगा।

"क्या डूबेगा डूबेगा की रट लगाए हो? कुछ नहीं डूबेगा। लड़के ले ही लेंगे। पैसा है भाई पैसा कोई नहीं छोड़ता। न किसी का ज्यादा होता है। और न ही यह किसी को काटता है... इन पैसों को लिए मैंने बहुत लाइन लगायी है. अब वे भी लाइन लगाएँ दौड़ें मेरी मौत के बाद ही सही, हो सकता है पैसों के लिए भाई-भाई में मेल हो जाए।'

'फिर भी आप कहें तो मैं कोशिश कर सकता हूँ, आपको कहीं जाना नहीं पड़ेगा।

'रहने भी दो मुझसे जितना हुआ मैंने बच्चों के लिए किया, जब वे विमुख हो गए तो मेरा मन उचट गया.....नरेश अशोक नगर में सोलह लाख का फ्लैट खरीद कर चले जाने का प्लैन कर रहा था, मुझे जब पता चला कि वह एच० डी० एफ० सी० से दस लाख लोन लेने वाला है तो मैंने सोचा वह जीवनभर लोन में फँसा रहेगा, उसे कष्ट होगा, मैंने उसे इस प्लाट से दो सौ गज जमीन दे दी और उससे कहा कि वह मनपसंद मकान बनवाकर यहीं रहे....उसे भारी कर्जे से बचा लिया और सोचा बुढ़ापे में माँ-बाप को देख ही लेगा, हमारा सहारा बनेगा.... इससे मुकेश और राकेश इस क़दर मुझसे खफा हो गए कि वे जमीन-जायदाद रुपए-पैसे की बँटवारे की बात करने लगे, बहुएँ भी जब-तब फोन करके खरी खोटी सुनात.....अरे भाई दस बिसवा जमीन में से मात्र दो सौ गज उसे दिया है, तुम्हारा ही छोटा भाई है, वह पास रहेगा तुम्हारे ही माँ-बाप का भला होगा, कर्ज में डूबेगा भी नहीं, कौन सा गुनाह किया ?..... दोनों के बेहूदापन से तंग आकर दोनों को एक-एक लाख देकर चुप कराया...राकेश जुनियर इंजीनियर है जितनी तख़्वाह है उसकी दुगनी ऊपरी कमाई है, पैसा ही पैसा, क्या नहीं है उसके पास? मुकेश का अपना धंधा है, अच्छी कमाई है, उसकी सास को मायके से ढेर संपत्ति मिली है। सब मुकेश को मिलनी है...दोनों की तुलना में नरेश जरा कमजोर है, कर्जा करता तो उसका भट्टा बैठ जाता। बताओ एक टुकड़ा जमीन देकर मैंने गुनाह किया था?'

'नहीं....मगर डॉक्टर साहब! नरेश भी तो झाँकने नहीं आता, उसका पास रहना और न रहना....चलिए कम से कम अपना नौकर तो भेज देता है।

'ऐसे नहीं आता है, पैसा देकर रखा है उसे दिन में दो बार आता है, घड़ी देखकर दिन में आधा घंटा पौन घंटा रहता है, बीस रुपया रोजाना हिसाब, दो सौ रुपया एडवास देना पड़ा, उसने सोचा होगा कहीं बुड्ढा मर गया तो रुपया नहीं मिल पायेगा। अपना नौकर गाँव गया है, उसका बाप मर गया है।'

'फिर भी पास रहने से कुछ तो सहारा है ही, वैसे वह अधिकारी है समय की कमी रहती होगी....'

'दगा दे दिया। बेईमान निकला। उसे मालूम था उसके अलावा मेरी गति नहीं है। वह मुझे ब्लैकमेल करने लगा।

'ब्लैकमेल ? मतलब ??"

'हाँ. इसे इमोशनल ब्लैकमेलिंग कहते हैं। वह जब-तब मुझसे किसी न किसी बहाने रुपया माँगता, कभी पोते को लगा देता। बाप हूँ. दादा हूँ, मन पिघल जाता मैं दे देता....तुम किसी को चाय दो वह नाश्ते की उम्मीद करेगा, बैठने की जगह दो वह सोने का जुगाड़ करेगा, हम हिंदुस्तानियों को मुफ्तखोरी बहुत सुहाती है....एक बार नरेश तीन लाख माँग बैठा। मेरे पास जो पूँजी थी उसे मैं बुरे दिनों के लिए रखे हुआ था, पता नहीं कब कैसी जरूरत आ पड़े, मैं देना नहीं चाह रहा था, वह मेरे पीछे पड़ गया, मैंने कहा मेरे और भी दो बेटे हैं वैसे ही वे मुझसे ख़फ़ा हैं, उसने कहा वह किसी से कुछ नहीं कहेगा, मैंने नहीं दिया....बस वह इतना रूठ गया कि आना-जाना बंद कर दिया, बोलता तक नहीं। उसकी बीबी भी। वे दोनों इतने निष्ठुर हैं कि मेरे पोते को भी मुझसे अलग कर दिया....न राकेश मेरी ख़बर लेता है न मुकेश... अकेला दुनिया में आया था फिर अकेला हो गया हूँ, मैं तो कभी का मर चुका....अब जल कर राख होना शेष है।'

मौत की सूचना भेजने के एक-दो घंटे के भीतर अनेक लोग आ पहुँचे। आने वालों में ज्यादातर नरेश के दफ़्तर के लोग थे। अधिकारी, बाबू, चपरासी, डेली लेबर। उन सबों ने मिलकर नरेश की सारी जिम्मेदारी संभाल ली। रात जगने से लेकर लाश उठाना, दाह-संस्कार. यहाँ तक कि तेरही की जिम्मेदारी बँट गई। न किसी ने रुपए-पैसे की बात की और न ही कोई मुँह ताके खड़ा रहा।

अगले दिन सुबह-सुबह राकेश आ पहुँचा। जैसे ही उसे पता चला कि बड़ा भाई मुकेश नहीं पहुँचा है तो उसका पारा चढ़ गया। उसने कहा 'दिल्ली से मैं आ सकता हूँ लखनऊ इतना पास होते हुए भी मुकेश भाई साहब नहीं आये अभी तक? उन्हें तो कल ही आ जाना चाहिए था।

'आते ही होंगे। उन्हें मालूम था तुम आज आओगे। शायद रास्ते में हों। 'नरेश ने कहा।

'सुनो! हम जल्दीबाजी में चले आये हैं रुपया-पैसा नहीं ला सके अगली बार जब आऊँगा, ले आऊँगा, मेरे हिस्से जो आयेगा... पिताजी रुपए-पैसे छोड़ कर गए कि...'

'पता नहीं। अभी देखा नहीं शायद ही कुछ मिले। रेगुलर प्रैक्टिस तो करते नहीं थे....पेंशन पाते ही थे। जब से बिस्तर पकड़े सारा खर्च मैंने ही किया। उसका हिसाब रखा नहीं।'

समय निकलता जा रहा था। लोग अधीर हो रहे थे। बर्फ पिघलती जा रही थी। पूरे कमरे में पानी फैल रहा था, एक लेबर पोंछा लगाने, शव पर इत्र छिड़कने तथा अगरबत्तियाँ सुलगाने में लगा हुआ था। गुलाब की पत्तियाँ चारों ओर फैल चुकी थीं. सुबह से पावर कट' के कारण कमरे में भीषण ऊमस थी, मक्खियाँ भिनभिना रही थीं, हवा में दुर्गन्ध तैर रही थी, लोग शव के निकट जाने से कतरा रहे थे।

राकेश और नरेश दोनों पोर्टिको में बैठ बातें कर रहे थे। पाँच-सात हाथ की दूरी पर मैं कइयों से बात कर रहा था। मेरी पीठ दोनों भाइयों की और थी। यूँ तो दोनों भाई खुसुर-फुसुर कर रहे थे पर उनका वॉल्यूम इतना था कि मैंने उनकी सारी बातें सुन लीं। राकेश ने कहा-'जब से आया हूँ देख रहा हूँ सफेद कमीज पहना आदमी कुछ ज्यादा दिलचस्पी ले रहा है। कौन है ? क्या करता है?

'यहीं कहीं रहता है। इसी मोहल्ले में कहानी-ओहानी लिखता है। पिताजी इसकी कहानियों के कायल थे।

"तुमने इसकी कोई कहानी पढ़ी?'

"नहीं। फुरसत कहाँ? कभी-कभार समय मिलता तो टी. वी. देख लेता हूँ। किताब-सिताब अब कौन पढ़ता ?'

'किताबी कीड़े पहले भी कम थे आज भी कम हैं। हो सकता है एकाध प्रतिशत घटा हो। पढ़ने वाले पढ़ते ही हैं वर्ना लोग लिखना बंद कर देते। साहित्यकारों को खासतौर से कथाकारों को दूर ही रखना चाहिए. ऐसे लोग ख़तरनाक होते हैं, घर-घर के छेद उजागर करते हैं।'

है ही क्या जो उजागर करेगा ?"

'तुम्हें और हमें छेद दिखाई नहीं पड़ता पर है नहीं क्या? घर-घर में है। आज का युग इतना जटिल है शायद ही कोई बचा हो....ऐसे लोग जल्दी छेद ढूँढ़ लेते हैं और अगर छेद छोटे-छोटे हो तो मनगढ़ंत कहानियाँ गढ़ कर बड़ा बना लेते हैं।'

'अगर हर घर में छेद हो तो डर किस बात का? लिखने दो जो

मर्जी...वैसे अब वह आयेगा भी नहीं।

नरेश के दफ़्तर के आज्ञाकारी लोग अब धीरज खोने लगे। सभी लोग अर्थी उठाने की बात करने लगे। राकेश ने मुकेश से बात करने की आख़िरी कोशिश की और वह सफल हो गया।

"मैं राकेश! सुबह से फोन मिलाते-मिलाते थक गया हूँ. कभी घर पर कभी दुकान पर, आप अभी भी वहाँ क्यों? उधर लाश बदबू कर रही है।....

'अरे! अभी भी अर्थी नहीं उठी?"

"आपके बगैर?"

'स्ट्रेंज! मुझे अगर आना होता तो कल ही न पहुँच गया होता?'

'ऐसी कौन सी आफ़त आ पड़ी?"

'सास की तबीयत ठीक नहीं है।'

'सास! सास की तबीयत !! मरी तो नहीं? मर भी गई होती तो भी क्या? पिता से ज्यादा?"

'ह्वाट? मुझे नसीहत दे रहे हो? छोटा मुँह बड़ी बात? मुझे मालूम है कब कहाँ क्या करना है।' 'आपको पिता को मुखाग्नि देनी चाहिए, आप सबसे बड़े हैं, मुखाग्नि का अधिकार आपको है....अभी भी आप अगर टाटा सुमो से....'

"मैंने कहा न मैं नहीं आ पाऊँगा, तुम दोनों में कोई भी कर दो, इसमें छोटा-बड़ा क्या? पिता पर सबका समान अधिकार रहता है। पिताजी का मकान, जमीन बेचना पड़ेगा, हम तीनों का बराबर का हिस्सा रहेगा या छोटा-बड़ा देखा जाएगा?.

....हाँ हाँ सुनो! जरूरी बात, मैंने पिताजी से कहा था नरेश की जमीन की कीमत पाँच-छह लाख है, हमारे साथ अन्याय हुआ है, मैंने उनसे कहा था मकान मेरे और तुम्हारे नाम लिख दें, वह राजी हो गए थे. तुम कागजात देख लेना नरेश गड़बड़ न करने पाये, महाधूर्त है।'

'ठीक है, मगर भाई साहब...."

'ओ. के. तेरहीं पर मुलाकात होगी। बाई।

मैंने सोचा मैं उन दोनों से कह दूं कि पुस्तैनी जमीन पर पचासों केले के पेड़ जो खड़े हैं और उनमें जो सैकड़ों केले दिख रहे हैं उनमें से एक केला भी नहीं मिल पायेगा तुम सब को, तुम लोगों ने डाक्टर साहब को इतना क्लेश दिया था कि उन्होंने मकान, जमीन, पाँच लाख फिक्स्ड डिपाजिट 'वृद्धाश्रम' के उद्देश्य से एक संस्था के नाम कर दिया था। मैं ही वकील बुला लाया था।

लगभग दो बजे डेड बॉडी लेकर हम सब श्मशान पहुँचे। श्मशान से बहुत पहले ही सारी गाड़ियाँ रोक दी गयीं। दूर से हजारों लोगों की भीड़ देख हम सब हैरत में पड़ गए। मैंने सोचा डॉक्टर साहब स्वतंत्रता सेनानी थे. सुबह अखबार में ख़बर छपी थी शायद उसी वजह से हम सब तरह-तरह के कयास लगा रहे थे कि नरेश के दफ्तर का बाबू, जिसे श्मशान की जिम्मेदारी दी गई थी. आकर बोला- इतना बड़ा शहर और मात्र दो बर्निंग घाट हैं, दूसरे वाले में कोई जाता नहीं है। इन दिनों नदी दूर खिसक गई है, मीलों पैदल चलना पड़ता है। डेड बॉडी जलाने के लिए इलेक्टिक मशीन है मगर उसका रहना, न रहना दोनों बराबर, जब देखिए तब ख़राब पता नहीं हक़ीकत क्या पर सुनते हैं लोगों का धन्धा चौपट होता है इसलिए जानबूझ कर मशीन को ख़राब रखा जाता है.....

नरेश के नीचे के अधिकारी ने फटकारा-'शॉर्टकट, शॉर्ट में. फ़ेहरिस्त देने की. बकबक करने की बुरी आदत पड़ गई है. फाइलों में भी फ़ालतू लिखते हो, जल्दी बोलो।

बाबू बोला-'सॉरी सर! पिछले तीन-चार दिनों से हैजा के कारण
अनेक लोगों की मौत हुई है, लाइन लगी हुई है, डॉक्टर साहब का टोकननंबर है तिरसठ। घंटों लाइन में रहना पड़ेगा।

"फिर लाइन??"

नरेश और राकेश ने मुझे अवाक् होकर देखा। मैंने बाबू से पूछा- इस समय कौन सा नंबर चल रहा है?'

'इस समय प्रदेश के नेता महंत श्री श्री एक सौ आठ भीम जी महाराज जिनके ख़िलाफ़ अदालत में सेक्स स्कैंडल की सुनवाई चल रही थी, जल रहे हैं। वह वी. वी. आई. पी. थे, उनका नंबर नहीं है। उसके बाद शायद सत्ताइस नंबर होगा।"

नरेश ने जुनियर ऑफिसर पर गुस्सा उतारा- सब कुछ मिसमैनेज्ड है। किसी रिसपानसिबल आदमी को लगाना चाहिए था। टोकन घर पर ला सकता था, फोन कर सकता था, पहले खबर लगती तो सोर्स लगाकर आउट ऑफ टर्न करवा लेता आफ्टर ऑल मेरे पिताजी साधारण आदमी नहीं थे।"

मैंने देखा इस बीच काफी लोग खिसक चुके थे. कुछ लोग अभी भी स्कूटर में किक मार रहे थे।

नरेश ने जूनियर आफिसर को हुक्म दिया- ओ. के. देन हम लौटते हैं, आप देख लेंगे, ख़ास दिक्कत हो तो इनफार्म करिएगा।'

नरेश और राकेश मोटरकार पर बैठ गए। कार पर बैठे-बैठे नरेश ने मुझसे कहा- आप तो स्कूटर नहीं लाये हैं चलना हो तो पीछे बैठ जाइए।'

'नो थैंक्स! मैं टोकन नंबर तिरसठ का इंतजार करूँगा। डॉक्टर साहब के जीवन की आख़िरी लाइन में मैं रहूँगा।' गाड़ी स्टार्ट होकर आगे बढ़ी ही थी कि मैंने आवाज लगायी-राकेश बाबू! राकेश जी।
गाड़ी थोड़ी दूर पर रुक गई।

मैंने कहा- 'मुझे कहानी मिल गई है। छपने के बाद भेज दूंगा। पढ़िएगा जरूर।'

राकेश चीख उठा- धत् ! साला पागल...ड्राइवर गाड़ी चलाओ।' गाड़ी चलने लगी। दोनों भाई पीछे पलट-पलट कर मुझे घूर रहे थे। अदृश्य होने तक मैं उन्हें देखता रहा। पीछे पलटा तो देखा डॉक्टर साहब का पार्थिव शरीर लावारिस पड़ा हुआ था। उनके पैरों के पास बाँस पकड़ मैं बैठ गया। डॉक्टर साहब चिरनिद्रा में थे। अकेले। एकदम अकेले। उन्हें किसी की जरूरत नहीं थी। मेरी भी।

अचानक मैंने महसूस किया मेरे चारों ओर हजारों मनुष्य हैं, कोलाहल है किन्तु मैं अकेला हूँ, एकदम अकेला। एकाकीपन का दंश मुझे चुभ रहा था।


© सुभाष चंद्र गाँगुली
(कहानी संग्रह: सवाल तथा अन्य कहानियाँ से, 
प्रथम संस्करण: 2002)
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" गंगा यमुना " पाक्षिक 12/9/1998 में प्रकाशित ।

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