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Tuesday, June 21, 2022

कविता- लिखूँ तो क्या लिखूँ



लिखूं या न लिखूं !
लिखूं तो क्या मैं लिखूं !
अजीब ऊहापोह में अक्सर 
उठते बैठते सोते बीत जाता है
सारा का सारा दिन :
सुबह से शाम, फिर शाम से सुबह 
यही होता आ रहा है काफ़ी दिनों से 
नहीं निकल पायी कोई कविता :
शायद उसे भी हाइपरटेंशन होने लगा है :
क्या कविताएं अब बुलडोजर बनना चाहती हैं ?
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क्या मैं लिखूं कि
जिस राम का नाम जपते हुए
जाने कितनों ने वैतरणी पार किए ;
उसी राम के नाम लेते हुए
पार्थिव जगत के सारे सुख भोग रहे ढेर सारे ।
क्या मैं यह लिखूं कि
जिस राम के नाम से आंतरिकता बढ़ाए जाते
उसी राम के नाम से अब नफ़रत फैलाये जाते ।
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क्या मैं लिखूं कि
आत्मकेंद्रित हो गया है आदमी
पास-पड़ोस रिश्ते-नातों का क्या
ख़ुद को ख़ुद में कैद कर लिया है आदमी :
उन्मुक्त हवा से ज़्यादा पसंद है उसे
' एक कमरे के देश' में रहना :
वरण कर लिया है उसने झूठी एक दुनिया
जहां झूठ ही सच बना दिया गया 
आत्ममुग्धता में डूबा वह श्रेष्ठ है औरों से।
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क्या मैं लिखूं कि
नोटबंदी, मंदी, भूखमरी, दंगों में मरे थे
लॉक डाउन में पैदल लौटते हुए सौ मरे थे
'कोविड' में आक्सिजन बिना, किट बिना  मरे थे
डाक्टर नर्स आशा वार्करस : 
हिसाब नहीं है उन बेशुमार मौतों का :
हिसाब नहीं है किसान आन्दोलन में हुई मौतों का क्या कविता का प्रजातांत्रिक जनवादी स्वरुप बदल देना पड़ेगा ?
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क्या मैं लिखूं कि
गंगा किनारे 'रेत समाधि' से
निकल आयी थी जब लाशें :
धिक्कार जताने
तब उसमें मुझे दिख गया था एक चेहरा
जो मेरे ख़ुद का था ।
और, वह भयावह कोविड संक्रमण ही था
जिसने तोड़ दिया था नफ़रत की दीवारों को।

सुभाषचंद्र गांगुली
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20/06/2022
21/06/2022



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