Search This Blog

Friday, August 13, 2021

कविता - बाजार

 

बाजार मेरे घर को अपने गिरफ्त में ले चुका है
प्रतिस्पर्धा बाजार मे नहीं :
अपने पास पड़ोस सगे संबंधियों से है ।
घर का ड्राइंग रूम, डायनिंग रूम
और टायलेट स्मार्ट बन चुके हैं ,
बेडरूम, किचन स्मार्ट बनने को आतुर है :
धृतराष्ट्र जैसा मैं अपने घर को :
बेआब्रू ,बाजारू होते देख रहा हूं ।

आपसी संवाद में नये- नये प्रोडाक्टस
नये- नये पोशाक, लेटेस्ट स्मार्टफोनस
लेटेस्ट एसी, लेटेस्ट कारें, लोनस, व्यवसाइटस
और विज्ञापनों की चर्चा हाबी रहती है ।
दिन रात टीवी पर दिखाए जा रहे विज्ञापनों ने
ले लिया है सेल्समैन और डेमो की जगह, 
अपने ही घर में मौजूद हैं सेल्स एजेंट्स :
उन्हें दिख गया है मुझमें एक पूंजीपति :
धीरे धीरे  हो रही है खाली
रिटायरमेंट के बाद के लिए रखी  पूंजी ।

जिस रफ्तार से बाजारवाद बढ़ रहा है
मुझे पूरा यकीन है
कि दुनिया से विदा लेते समय
अपने घर से नहीं
बाजार से विदा लूंगा मैं ।
और तब तक मेरा जीर्ण-शीर्ण शरीर
अति आधुनिक सभ्य समाज के लिए मिसफिट
दूध न देने वाली बूढ़ी गाय की तरह
अपने ही मकान के पीछे 
ओसारे से लगे कमरे में पड़े पड़े
 खिड़की से तारों को निहारते- निहारते
जल्द से जल्द शरीर त्याग कर शून्य में
विलीन हो जाने की आस में मरता जीता रहेगा ।

बाजार के ताल में ताल मिलाने के फेर में
कर्ज पर कर्ज लेकर ई एम आई भरते भरते
वे डूबेंगे, सबको लेकर डूबेंगे :
बाजारू प्रतिस्पर्धा के इस दुष्परिणाम से 
सम्पूर्णतः बेखबर हैं वें ।

सुभाष चन्द्र गांगुली
-----------------------------
Composed on 5/2/2000, Revised on 5/4/2000. Rewritten on 5/8/2021.
Published in ' कहन सुनन' मुरादाबाद 2007

No comments:

Post a Comment