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Tuesday, August 3, 2021

कविता- आईना



परदादा से मिले
मेरे मकान के बेडरूम में,
बर्मिस पलंग के पीछे दीवार पर
जर्मन की बड़ी दीवार घड़ी है
उसी के ठीक नीचे
लंदन का एक बड़ा आईना टंगा है
न जाने कब से,
शायद सौ साल से ।
देखता आ रहा हूं खुद को उस आईने में
तब से, होश संभाला जब से ।
बड़ी खूबसूरत, बड़ा भोलाभाला
लगता है चेहरा अपना, 
देखा नहीं बदलते चेहरा अपना
देखा नहीं बूढ़ा होते, कुरुप होते
जैसा देखा औरों को ।


सुभाष चन्द्र गांगुली
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22/2/1992
' मध्यांतर ' 5/6/1997 में प्रकाशित ।

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