Search This Blog

Monday, September 20, 2021

कहानी- लिपिका के नाम

सुबह करीब नौ बजे मैंने साहित्यकार- पत्रकार देशराज को फोन किया--
 --"अभी एक घंटे के भीतर आना चाहता हूं घर पर रहोगे ना ? "
--"खैरियत तो गरीब का घर कैसे याद आ गया ?"
--" एक कहानी भेजनी है तुम्हारे नोयडा मुख्यालय में दीपावली विशेषांक के लिए । ' डाक हड़ताल ' का आठवां दिन है, पता नहीं कब तक चलेगा । कुरियर वाले बहुत पैसे लेते हैं और इन दिनों तो उनकी चांदी-चांदी । फिर उनका काम एकबारगी बढ़ गया है। कब तक पहुंच पाएगा ठीक नहीं । तुम्हारी जीप तो रोज अप ऐंड डाउन करती है । "
--" ठीक है आ जाइए , रहूंगा । बाई चांस निकल पड़ूं तो लिपिका को दे दीजिएगा ।"
--" लिपिका ?" 
-- " मेरी पत्नी का नाम ।"
--" अच्छा हां तुम्हारी तो शादी हुई थी पिछले साल : आता हूं थोड़ी देर में ।"
लिपिका से मिलने की इच्छा मन में जाग गई । उभरती हुई चर्चित कथाकार थी । दो तीन कहानियां पढ़ी भी थी । देशराज से मेरी घनिष्ठता इतनी नहीं थी कि वह एट होम में मुझे इन्वाइट करता । शहर के जाने-माने साहित्यकार एट- होम में पहुंचे थे मगर मैं वंचित था क्योंकि मैं जुमा जुमा लिखने लगा था ।
जानबूझकर मैं दो घंटे बाद उसके घर पहुंचा था ताकि लिपिका से दो चार बातें हो सके ।
घंटी बजने के दो तीन मिनट बाद ग्रिलदार लोहे के फाटक के पीछे आकर खड़ी हो गई लिपिका । 
--" देशराज जी घर पर हैं ? " मैंने पूछा ।
--" जी नहीं वे जरुरी काम आ जाने से जल्दी निकल गये हैं....... कोई मैसेज ?"
--"कहानी देनी थी छपने के लिए, कुछ बातें भी करनी थी। कहिएगा नुक्कडवाले दादा आए थे  ।"
--" क्या ? नुक्कड वाले दादा ?" वह हंस दी ।
--" जी । "
मैंने स्कूटर किक किया । चढ़ते- चढ़ते मैंने पीछे पलटकर देखा । लिपिका के चेहरे पर मुस्कराहट लहरा गई आंखें चमक उठीं । मै निकल गया। मेरे साथ साथ लिपिका का सुन्दर सा मुखड़ा कुछ दूर तक चला , फिर मैं स्कूटर चलाने में मगन हो गया।
दिनभर रह रह कर लिपिका की लिखी पढ़ी हुई
कहानियां और उसका मुरझाया हुआ चेहरा सामने आता रहा । उसकी उदासी का कारण क्या हो सकता जानने के लिए जिज्ञासु हो उठा । दफ़्तर बंद होने से थोड़ी देर पहले निकल कर देशराज के घर पहुंचा । मैंने काल बेल बजा दिया। थोड़ी देर में लोहे का फाटक पूरा का पूरा खुल गया । मेरी आंखों के सामने हल्की मुस्कान के साथ लिपिका खड़ी थी । 
उसकी  देह आपाद- मस्तक देखता हूं मगर पल भर में होश में आता हूं , अरे मैं ये क्या कर रहा हूं , अधेड़ उम्र का आदमी हूं, कोफ्त़ होता है ।
--"देशराज हैं ? "
--" नहीं । पत्रकार आदमी न निकलने का टाइम फिक्स न ही लौटने का..... अभी थोड़ी देर पहले आपही के बारे में उनसे बात हुई....आप अपना लिफ़ाफा मुझे दे दीजिए । लौटने में देर होगी ।"
स्कूटर की डिग्गि से लिफ़ाफा निकाल कर मैंने कहा "‌ इसमें एक कहानी है देशराज जी को दे दीजिएगा।
---" आपकी लिखी हुई कहानी है क्या ?"
--"नहीं, इसमें विमल मित्र की बांग्ला कहानी का अनुवाद है । 'अनकही कहानी ' पढ़ लीजिएगा।
कहानी बेहद इन्टरेस्टिंग है .....लव स्टोरी है .... कामेडी भी और ट्रैजडी भी, दोनों साथ साथ। लिपिका जी यह कहानी आप के टेस्ट की है ।"
               अपना नाम सुनते ही लिपिका का चेहरा सद्द प्रस्फुटित कमल सा खिल उठा ।
स्कूटर स्टार्ट करने के मूड से मैंने किक पर पैर रखा ही था कि लिपिका बोल पड़ी --" मुझे आप कैसे जानते हैं ?" 
इस सवाल का जवाब तो आपही के पास है...... वैसे आपकी दो तीन कहानियां मेरी पढ़ी हुई है । 'ताज' अखबार और किसी पत्रिका में आपको पढ़ा । क्या  ख़ूब लिखती हैं आप । तबियत ख़ुश हो जाती है । आपका लिखा जो कुछ पढ़ा सारा का सारा याद है । किंतु अब मैं ' ताज' नहीं पढ़ता ।"
--"क्यों ?"
---" जब लम्बे समय तक आपका लेख, कहानी नहीं देखा तो मैंने दूसरा अख़बार लेना शुरू कर दिया ....... हां इधर एक अरसे बाद आपकी कहानी 'रोटी का टुकड़ा ' पढ़ी थी । बधाई ! आजकल आप कम लिख रही होंगी । "
--" मैंने 'ताज' की नौकरी छोड़ दी । आजकल मैं कागज़ों पर नहीं दीवारों पर लिखती हूं । " अत्यंत मायूसी से वह बोली । थोड़ी देर पहले उसका खिल उठा चेहरा औचक मुरझा गया ।
यह सोचकर कि अनजाने में मैंने उसे चोट पहुंचाई होगी, मैं दुःखी हो गया, कौतूहलवश मैंने पूछा --" क्या हुआ कोई गम्भीर बात है क्या ? "
---"नहीं, कुछ नहीं ।" एक कृत्रिम मुस्कान के साथ आंसू पोछती ।
--" आप कुछ छिपा रही है ! बेझिझक आप अपनी बात कर सकती हैं, शायद मैं आपका मन कुछ हल्का कर सकूं । शायद आपकी पीड़ा कुछ कम कर सकूं।"
--" आपने मेरी कहानियां पढ़ी जानकर अच्छा लगा.... अब मैंने पढ़ना लिखना बंद कर दिया । शादी हुए कई वर्ष बीत गए, अभी भी मैं अकेली हूं , दिनभर कमरे में पड़े ऊंघती हूं.....आपके मित्र को मेरा आगे बढ़ना पसंद नहीं है.... ‌‌‌अपने आप में एक कहानी बनकर रह गई हूं..... सम्भव हो तो इस आखिरी कहानी को आप ही लिख दीजिएगा।"
             आंसूओं के धार उसके गालों पर झरझर झरने लगे ।
काश ! मैं उसके हाथ कलम थमाकर कह पाता ---" फिर से शुरू करो लिपिका । तुम्हारे भीतर जो साहित्यकार है उसे जीवित रखो । मै और मुझ जैसे पाठकों के लिए लिखो ! " मगर मैं बस इतना ही कह पाया --" आपकी कहानी और लेख का इंतज़ार रहेगा ।  पत्नी धर्म और साहित्य धर्म दोनों पृथक चीजें हैं...... तुम्हें स्वाभिमान से जीना चाहिए, बंधवा मजदूर बनकर नहीं... अगर तुमने हार मान ली तो नारी जागरूकता की बात कौन करेगा ? "
          यह सच है कि मैं उसके लिए न कुछ कर सकता था, और ना ही कर पाऊंगा मगर इस कहानी को लिपिका के नाम से छोड़ रहा हूं ।

सुभाष चन्द्र गांगुली
---------+-------------------
**पत्रिका 'तमाल' (प्रतापगढ़) जनवरी- मार्च 1999 में प्रकाशित ।
** ' जगमग दीपज्योति, अलवर, राजस्थान 6/2000 (  ' कसक ' नाम रखा था। बाद में 'लिपिका के नाम' ही ठीक लगा )


No comments:

Post a Comment