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Tuesday, September 7, 2021

ग़ज़ल -- मेरी मजबुरियों ने



मेरी मजबुरियों ने मजबूर कर दिया लगता है ।
वरना ज़माने को समझने में ज़माना लगता है ।।

वक्त़ को भी होता है देना सबूत वज़ूद का ।
दरख़्त पे लिखा जज़्बात अफ़साना लगता है ।।

कैसे कैसे दलिलें दें अब मौत भी अपनी ।
हर कत्ल़ को जब वो नज़राना कहता है  ।।

जाने किसकी नज़रें लग गई है ज़माने को ।
ज़माने का हर शख़्स मुझे बेगाना लगता है ।।

थामा है दामन जब से उसने मिरी माशुका का।
मिरी अपना जिगर का टुकड़ा बेगाना लगता है।।

जाने किसने कर दिया साफ़ आसमां, मटमैला।
ज़मीं का हर फूल अब वीराना लगता है ।।

वह ख़फ़ा रहे या रहे ख़ुश  ' निर्भीक' तुमसे ।
तुम्हें तो हर लफ्ज़ उनका तराना लगता है ।।

सुभाष चन्द्र गांगुली
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ग़ज़ल संग्रह " लहरें सागर की " सम्पादक, डॉ हीरालाल नन्दा, जागृति प्रकाशन, मलांड, मुम्बई में 15/9/1998.



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