Search This Blog

Wednesday, September 15, 2021

कहानी- अम्मा


रात को किसी ने दरवाज़े पर दस्तक दी। मेरी नींद खुल गई। पिता जी बाहर के कमरे में सो रहे थे। वे चीख उठे--"कौन ? कौन है ?"
- " मैं बजरंगी।' 'बजरंगी? कौन बजरंगी ?"
- " हम अम्मा पाने वाली का लड़का।"
- "अम्मा पान वाली का लड़का? कौन हो भाई? क्या काम है ? किससे काम ? इतनी रात ? पान वाली का लड़का, इतनी रात ? कुछ समझ में नहीं आ रहा है।"
- " दादा से काम है।" (बंगालियों में बड़े भाई को दादा का सम्बोधन दिया जाता है वैसे भी आमतौर पर लोग बंगाली बाबू को दादा कहकर पुकारते ) 
- "कौन दादा ? यहाँ तो सभी दादा हैं । चार-चार दादा हैं । मैं भी दादा और मेरे तीनों बेटे भी दादा, सबके सब दादा ।" पिताजी झुंझलाए ।
- " जो दादा पान खाते हैं ।' बजंरगी ने ऊँचे स्वर में कहा ।
- 'इतनी रात खामख्व़ाह परेशान कर रहे हो। रात को सोने का टाइम है, सोने दो। यहाँ कोई पान-वान नहीं खाता ।"
पिताजी काफ़ी गुस्से में आ गए । मगर बजरंगी ने नर्मी से उत्तर दिया-खाते हैं, खाते हैं, जो दादा यूनिवर्सिटी में पढ़ते हैं, वह खाते हैं, उन्हें बुला दें ।'
- " खाता होगा । हमें मालूम नहीं । काम बोलो किस काम से इत्ती रात आये हो ? फालतू डिस्टर्व कर रहे हो । ऐसा क्या काम कि अभी मिलना है ? कल मिल लेना ।"
-' " हमार घर में भइया का दावत रहा । हमार बेटवा का मुंडन रहा । भैया नहीं गये तो हमार अम्मा भूखी बैठी हैं । भैया को अभै चलै पड़ी।" इस बार बजरंगी ने अपना आपा खो दिया।

भीतर के कमरे में लेटे-लेटे मैं उन दोनों का वार्तालाप सुन रहा था मगर चूँकि मेरे पिताजी को मालूम नहीं था कि मैं पान खाता हूँ इसलिए चुपचाप बिस्तर पर पड़ा हुआ था । मुझे भय था कि पान खाता हूँ जान कर पिता जी मेरे ऊपर बरस सकते हैं । आख़िर स्टुडेंट लाइफ में पान खाने की बात जानकर किस पिता को क्रोध नहीं आयेगा ?

बजरंगी की बात सुनकर मैं विचलित हो उठा । एक अजीब सी उद्विग्नता, उद्दीपना, व्याकुलता ने मुझे विभ्रांति में डाल दिया । मैं सोचने लगा मेरे कारण अम्मा क्यों भूखी हैं ? आख़िर उससे मेरा क्या रिश्ता ? 

मैंने सोचा फ़िलहाल बजरंगी से मिलकर उसे शांत कर समझा बुझाकर वापस भेज दूँ । मैं उठा । मैंने लाइट जलाई । इतने में पिताजी ने आवाज़ लगाई । मैं झट से कमरे में दाख़िल हुआ ।

मुझे देख बजरंगी ने कहा-- "भैया, चलैं, अम्मा आपै के खातिर भूखी बैठी है।"

भौंहें सिकोड़ कर पिताजी ने मुझे गौर से देखा फिर धीरे से कहा '' जा बेटा जल्दी जा। उसके घर होकर जल्दी आ जाना, तूने जब अम्मा से कहा था जाएगा तो तुझे जाना चाहिए था । शरीफ़ आदमी की एक बात । ज़बरदस्ती किसी को परेशान क्यों करता ? जा जल्दी जा बाहर से ताला डाल देना ।"

अम्मा के प्रति पिताजी की हमदर्दी देख मैं अवाक् हुआ । मेरी जिज्ञासा और बढ़ गयी। मैंने साहस जुटा कर पिता से पूछा--" बाबा ! (बांग्ला में पिता को बाबा कहकर पुकारा जाता है) मेरे न जाने से अम्मा क्यों भूखी है ?"

दीर्घश्वास छोड़ते हुए गुरु-गंभीर स्वर में पिताजी ने कहा--'' अभी तू बच्चा है, नहीं समझेगा । जब उम्र बढ़ेगी और तेरे बच्चे जवान हो जायेंगे तब अपने आप समझ में आ जायेगा ।"

जल्दी से तैयार होकर मैं बजरंगी के साथ निकल गया । रास्ते में उसने मुझसे एक ही सवाल पूछा था--''भैया आप क्यों नहीं आये? हम सब आपका आसरा देखत रहें ।''

मैंने उत्तर में कहा था--" सिर में दर्द है। अभी भी सिर फटा जा रहा है ।"
 मैंने बजरंगी से झूठ बोला था । दरअसल मुझे उसके घर जाना ही नहीं था । उसके घर जाने का मन नहीं बना पाया था । मैं ऊँची जात का संभ्रात परिवार का और एक बड़े अधिकारी का बेटा जो था । अम्मा एक मजदूर की पत्नी, छोटी सी दुकान में बैठकर पान बेचती, लोग उसे पान वाली. 'ए बुढ़िया', 'सुनो', 'चंपाकली' (नाम) आदि से पुकारते । अम्मा के दो बेटे खोमचा लगाते और ठेला चलाते, उसके घर भला मैं क्यों जाता ? 
भले ही मैं शराफ़त और शिष्टाचार के कारण 'अम्मा' कहके पुकारता था पर थी तो वह पान वाली ही । मुझे अपने और उसके बीच की दूरी का अहसास था । मैंने सोचा था अम्मा को भी इस दूरी का अहसास अवश्य होगा । उसने मुझे यूँ ही बुला लिया होगा और मेरा जाना या न जाना उसके लिए कोई मायने नहीं रखता । फिर उसकी दुकान से प्रतिदिन एक ही जोड़ा पान खाया करता था । कितनी बचत होती रही होगी कि वह मुझे इतनी अधिक अहमियत दे रही थी । मैंने सोचा शायद वह मुझसे इस कारण प्रभावित है कि मैं उसे अम्मा कहता और मेरे सामने कोई अगर उसे 'ए बुढ़िया' 'मजूरिन' आदि गलत सम्बोधन देता तो मुझसे रहा नहीं जाता, कदाचित मारपीट की नौबत आ जाती ।

तमाम बातें सोचते-सोचते अत्यंत भावुक होकर मैं अम्मा के घर पहुँचा। मुझे देखते ही अम्मा पुलकित हो उठी। उसकी आँखें नम हो आयीं। अम्मा के घर के लोग मेरे आसपास खड़े हो गए। उनसबों ने बारी-बारी से मुझसे न आने का कारण पूछा। सभी की व्याकुलता और अपनापन देख मैं अवाक हो गया। मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि मैं किसी गैर के घर हूँ । मुझसे झूठ नहीं बोला जा रहा था, मेरा कंठ अवरुद्ध होने लगा, फिर भी मैंने सभी से झूठ बोला ।

सभी ने मेरी ख़ातिरदारी बड़े अपनेपन से की। यह मेरे लिए एक अनोखा, हृदयस्पर्शी अनुभव था। मेरे कहने पर अम्मा ने भी मेरे साथ खाना खाया। अभी मेरा खाना ख़त्म भी नहीं हुआ था कि बजरंगी ने अम्मा से कहा--" जा तू उसे घर तक छोड़ दे। बच्चा है ।''

अम्मा की आँखों से आँसू के दो कतरे लुढ़क गए। साड़ी का पल्लू खींचकर उसने आँसू पोंछा । मेरा हृदय आवेग से लबालब हो उठा । थोड़ी देर पहले मैं बर्फ की चट्टान था, अब मैं पिघल कर पानी-पानी हो रहा था । शरीर के रोम-रोम में मैंने अद्भुत संगीत का अनुभव किया ।

दो महीने बाद मुझे टाइफायड हो गया । मैं काफ़ी दिनों तक बीमार रहा । अम्मा दुकान जाने से पहले रोजाना मुझसे मिलती । एकाध घंटा मेरे सिरहाने बैठती, मेरे माथे पर हाथ फेरती, बालों को सहलाती, हाथ पैर मींजती और जब मेरा बुखार उतर गया, मैं ठीक होने लगा तब वह मेरे लिए हर रोज़ एक जोड़ा पान लाने लगी । उसके आँचल में पान बंधा रहता, जाने से पहले, इधर उधर देखकर सबकी नज़रें बचाकर मुझे पान खिला देती ।

उसकी बूढ़ी, खुरदरी उँगलियों से मुझे तकलीफ़ नहीं होती । उसकी मैली धोती मुझे मैली नहीं लगती, रोजाना शाम होते ही मैं बार-बार घड़ी देखता, अम्मा के लिए छटपटाता । वह बूढ़ी, कुरूप, मजदूर की पत्नी अब मुझे दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत, सबसे प्यारी माँ लगने लगी ।

मेरी पढ़ाई-लिखाई समाप्त होते ही मुझे दूसरे शहर में नौकरी मिल गई। अपना घर परिवार छोड़ते हुए मुझे स्वाभाविक कष्ट था, मगर अम्मा से जुदा होते हुए मुझे अस्वाभाविक कष्ट हो रहा था। स्टेशन जाते समय मैं अम्मा की दुकान पर रुका। अम्मा ने मेरे लिए पान तैयार कर रखा था। 

.उसने अपने हाथों से मेरे लिए दुआएँ माँगी फिर मेरे कपाल पर सिंदूर का लंबा टीका काढ़ दिया। एक नज़र मुझे देख रुआँसी होकर वह बोली " बेटा परदेस जा रहा है देख सुन कर रहना, रात को इधर-उधर न घूमना, अनजान लोगों से फ़ालतू बात न करना, किसी के मुँह न लगना... छुट्टी लेकर जल्दी घर आना हो सके तो अपनी इस अम्मा के लिए लाल किनारे वाली सफेद धोती ले आना।'' 'अच्छा' कह कर मैं रिक्शे पर बैठा। अम्मा ने मुझे देखा फिर एकबारगी अपना सिर घुमा लिया। सिर घुमाते ही उसकी आँखों से दो बूंद आँसू मेरे पाँव पर टपक पड़े। मेरा हृदय भारी हो गया। भावुकता अपने उत्कर्ष पर थी। मैं आँख चुराना चाहता था। मैंने धूप का चश्मा पहना और रिक्शे वाले से चलने को कहा।

बाहर जाकर कोई दिन ऐसा नहीं बीता कि अम्मा की याद न आयी हो। दसियों दुकानें बदलीं मगर किसी का पान अच्छा नहीं लगा। अंततः पान की आदत छूट गई।

दशहरे की छुट्टी यानी लगभग दस माह बाद मैं घर लौटा। पहुँचते ही पिताजी ने ख़बर दी--''तेरी पान वाली अम्मा अब इस दुनिया में नहीं रही। पिछले हफ़्ते उसका देहांत हो गया। जब से तू बाहर गया वह चार पाँच बार तेरा हालचाल पूछने आयी थी।''

मेरा सिर भन्नाने लगा, हाथ पैर फूलने लगे, मैं चुपचाप भीतर के कमरे में चला गया । बिस्तर पर निढाल होते ही अम्मा की यादों में खो गया । मैं फूट-फूट कर रोना चाहता था किन्तु रो न सका। बड़ी मुश्किल से अपनी आवाज़ को शरीर के भीतर कैद रखा।

मुझे लगा मैंने सब कुछ खो दिया है । मुझे बहुत जल्दी समझ में आ गया अम्मा मेरी क्या थी, उस दिन वह मेरे लिए क्यों भूखी थी ।

मेरे सामने एक विकट संकट था । अम्मा के नाम जिस साड़ी को मैं लाया था उसका क्या करता ? किसे देता ? अपनी माँ को वह साड़ी नहीं दे सकता था क्योंकि सच्चाई जानने के बाद मेरी माँ उस साड़ी को हरगिज़ नहीं लेतीं उल्टा मुझे डाँटती क्योंकि जिस औरत के लिए वह साड़ी लाया था अब वह इस दुनिया में नहीं रहीं।

कई बार मैंने सोचा क्यों न किसी ग़रीब को उसे दान देकर उसकी सद्गति कर दूँ पर भावुकता के कारण ऐसा नहीं कर पा रहा था । मेरे मन में दो प्रकार की भावनाएँ थी । एक, यह कि अम्मा की साड़ी को किसी और को कैसे देता और दूसरी बात यह कि सच्चाई बोले बगैर किसी और को देना अपराध होगा और फिर सच्चाई जानने के बाद कोई क्यों उसे ग्रहण करेगा ?

काफ़ी दिनों तक मैं अजीब ऊहापोह में था। अम्मा की आत्मा हमेशा मेरे साथ रहती । हर पल, हर क्षण मैं अपने भीतर उसकी मौजदूगी महसूस करने लगा। हर पल हर क्षण मुझे उसकी यादें सतातीं और बड़ी मुस्तैदी से उस साड़ी से निष्कृति पाने का उपाय ढूँढ़ने लगा। तमाम उपाय मेरे दिमाग में आते मैं उन पर चिंतन करता, फिर ख़ारिज करता। उस साड़ी ने मेरा जीना दूभर कर रखा था। खाने-पीने में काम करने में, किसी चीज में मेरा मन नहीं लगता।

फ़िर एक दिन मैंने एक सपना देखा । बड़ा अद्भुत सपना था वह । मैंने देखा अम्मा, माँ दुर्गा के रूप में मेरे सामने खड़ी हैं । उसके चेहरे पर अलौकिक प्रसन्नता है । वह अपने दोनों हाथ आगे बढ़ाती है। मैं समझ नहीं पाता हूँ वह क्या कहना चाहती है । मैं साड़ी लेकर आगे बढ़ता हूँ । वह उसी मुद्रा में पीछे हटती है । मैं और आगे बढ़ता हूँ, वह और पीछे हट जाती है ।
* अचरज होकर मैं दायें-बायें देख एक जगह रुक जाता हूँ। दोनों हाथों को नीचे कर अम्मा भी रुक जाती है। मैं गौर से देखता हूँ उसके पैर जमीन से तीन फिट ऊँचाई पर शून्य में हैं। तनिक मुस्कराकर वह पूछती है '' तू फ़ालतू क्यों परेशान है ? तू याद करके अम्मा के लिए साड़ी ले आया है, अम्मा ने पहन ली है।''

'मैं इसका क्या करूँ? दुर्गा मंदिर में चढ़ा दूँ ?'

"मंदिर में ?" अम्मा कुछ उस तरह चौंकी मानो उसे मेरे मन की बात मालूम थी । मंदिर में चढ़ाने की बात पहले भी दिमाग में आयी थी पर मैंने उसे ख़ारिज कर दिया था । मुझे मालूम है कि मूर्तियों पर चढ़ाने के लिए ख़ास किस्म की साड़ियाँ बाजार में मिलती हैं, वे कम दाम की होती हैं। अमूमन लोग जिस दाम की साड़ियाँ अपने लिए खरीदते हैं उस दाम की साड़ियाँ मंदिरों के लिए नहीं लेते हैं शायद लोगों को भलीभाँति मालूम है कि मूतियाँ साड़ियाँ नहीं पहनती हैं। शायद उन्हें यह भी मालूम है कि उन साड़ियों का और भगवान के नाम चढ़ाने वाले और सामानों का धंधा किस प्रकार चलता है।

- 'इसे तू किसी ग़रीब को दे दें, उसका भला होगा।" अम्पा का स्वर आदेशनुमा था।

- 'मृतक की साड़ी? यह तो धर्म और संस्कार के ख़िलाफ़ है । पाप होगा।'

- 'कैसा संस्कार ?' मैंने तो यह साड़ी पहनी भी नहीं पहनी भी होती तो भी क्या यह शरीर नष्ट हो जाता है । दुनिया में जो आता है वही मरता है । मरने के बाद मकान-दुकान, सोना, चाँदी, रुपया पैसा कुछ भी बेकार नहीं जाता है तो साड़ी जूता चप्पल क्यों बेकार होगा ? यह कैसा संस्कार ? तू इस साड़ी को उस औरत को दे दे जो अपनी लाज नहीं बचा पा रही है।'

- 'मगर अम्मा सभी लोग संस्कार मानते हैं । मैं किसी को कैसे धोखा दे दूं ?"

- 'तू जिसे यह साड़ी देगा उसे बोल कर देना यह साड़ी मेरे लिए लाया था । जो लोग तन नहीं ढक पाते वे संस्कारी नहीं होते हैं । जब बाढ़ आती है, भूचाल आता है और खाते-पीते लोग बेघर हो जाते हैं तब वे भी धर्म संस्कार भूल जाते हैं । जहाँ से जो मिला पहना, खाया.... जा इसे किसी ग़रीब को दे दे, तेरे कारण मैं दुनिया नहीं छोड़ पा रही हूँ, मुझे मुक्ति दे।' 

अम्मा ने दोनों हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया। वह ऊपर उठ गई, उठती गई, उठती गई दूर, बहुत दूर, फिर आँखों से ओझल हो गई।

अगले दिन सुबह-सुबह मैं माघ मेला पहुँचा। मैं जिधर नज़र दौड़ाता उधर ही ग़रीब औरतें नज़र आतीं। मुझे तलाश थी एक ऐसी औरत की जिसकी शक्ल सूरत अम्मा से मिलती-जुलती हो । अब मैं इस बात को ध्यान में रखकर चारों ओर देखने लगा । थोड़ी देर में काफ़ी उलझन में पड़ गया । हर बूढ़ी ग़रीब का चेहरा मुझे अम्मा जैसा लगने लगा । वही ममता, वही स्नेह, वही मातृत्व, सारे के सारे भाव बिलकुल एक जैसे।

अंततः एक बूढ़ी भिखारिन जिसकी देह पर बहुत जरा सा कपड़ा था दिख गई । उसे मैंने अम्मा के नाम खरीदी गई साड़ी और अम्मा द्वारा सपने में दिये गये आदेश के बारे में बताया । उसके चेहरे पर एकबारगी इतनी प्रसन्नता झलक उठी मानो उसे एक करोड़ की लाटरी मिल गई हो। उसने कहा- ''यह तो नई साड़ी है हम तो मुर्दों का उतरन भी पहन लेते हैं। भगवान करे हर औरत को तन ढ़कने का कपड़ा मिल जाए।''

उसने दोनों हाथों से साड़ी लेकर माथे पर लगायी फिर मायूसी से कहा- "मैं तो किसी काम की नहीं, भिखारिन हूँ आशीर्वाद भी नहीं दे सकती। भगवान से विनती करती हूँ अगले जन्म में तुमको अम्मा मिल जाए।"

मुझे लगा मैंने अम्मा को ही साड़ी भेंट कर दी है। अम्मा मरी नहीं है, अम्मा मर नहीं सकती।

सुभाषचन्द्र गांगुली
( कहानी संग्रह सन 2002 में प्रकाशित " सवाल तथा अन्य कहानियां " से )
----------------------------------------------------
** सीएजी कार्यालय की पत्रिका ' लेखापरीक्षा -- प्रकाश ' के जुलाई- सितम्बर 2000 अंक 88
 में प्रकाशित ।
** पत्रिका ' उन्मुक्त ' मऊ शेरपुर, समस्तीपुर , बिहार प्रधान सम्पादक, सीताराम शेरपुरी,( अंक 11/2000 में प्रकाशित ।
** बांग्ला संग्रह " शेषेर लाइन" 10/2003 में कोलकाता से प्रकाशित ।
----------------------------------------
*** कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियां :------
* *" गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में " जो जेहि भाव नीक तेहि सोहि " अर्थात् जो जिसको अच्छा लगता है, उसके लिए वही अच्छा है । इसमें धर्म जात-पात, अमीरी- गरीबी की दीवार आड़
 नहीं आती और यदि कहीं भाग्यवश, मातृत' स्नेह मिल जाए तो अवर्णनीय हितकर और सुखकर की ही आनन्दानुभूति होती है । प्रस्तुत कहानी ' अम्मा ' में श्री सुभाषचन्द्र गांगुली ने सरल शैली में सचमुच सद्व्यवहार से उत्पन्न सद्भावनापूर्ण मानवीय रिश्तों की सुमधुर व्याख्या की है । सुन्दर प्रस्तुति हेतु कोटिश: साधुवाद । "

आत्माराम फोन्दणी, सम्पादक-- लेखापरीक्षा- प्रकाश सीएजी कार्यालय, नयी दिल्ली ।

** ' उन्मुक्त' में आपकी कहानी पढ़ने का अवसर मिला । इसमें आपने जीवन के यथार्थ को बड़े ही सूक्ष्म व यथार्थ रुप में संजीव व सटीक ढंग से प्रस्तुत किया है । कहानी श्रेष्ठ , रोचक, पठनीय एवं शिक्षाप्रद बन पड़ी है । श्रेष्ठ एवं स्तरीय कहानी हेतु हार्दिक बधाई !
विजय सिंह बलवान, जयपुरा,( जहांगीराबाद ) बुलन्दशहर ( पत्र दिनांक 28/12/2000)
** ' अम्मा' एक महत्वपूर्ण कहानी है जिसके  माध्यम से गांगुली ने दो वर्गों की असमानता के बावजूद उसके भीतरी जुड़ाव को रेखांकित करने की कोशिश की है । एक बुढ़िया पानवाली और एक अधिकारी के बेटे के आत्मीय सम्बन्ध को उकेरती यह कहानी एक अलग तरह का उदाहरण प्रस्तुत करती है । जहां विषमता के प्रति सटीक नकार है । 
साहित्यकार आलोचक श्रीरंग ( ' सवाल तथा अन्य कहानियां' की समीक्षा जो ' विमर्श'- अंक 4, 2005 से )

No comments:

Post a Comment