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Tuesday, September 28, 2021

कहानी- घर, बाग़ और वो


मुकदमे की सुनवाई के दिन अभिजीत और सीमा अपने-अपने वकीलों के साथ अदालत पहुंचे । अदालत में सीमा ने कहा --"माननीय न्यायमूर्ति जी ! मुझे केवल दो बातें करनी है........... मैं अधिकार की बात करना चाहूंगी, अर्द्धांगिनी बनने का अधिकार । अग्निदेव समेत सारे देवताओं को साक्ष्य मानकर मांग में सिन्दूर भरकर, आजीवन साथ रहकर सुखी जीवन व्यतीत करने की जो कसमें मेरे पति ने खायी थीं, उस धर्मानुष्ठान से प्राप्त अधिकार की बात.........  अपने पति की संतान को नौ महीनें कोख में पालकर उसे जन्म देने से मातृत्व का जो हक़ प्राप्त हुआ है , उस हक़ की बात पर गम्भीरता से विचार करने की अपील मैं अदालत से करती हूं ......... जज साहब ! हम पति-पत्नी के बीच सामान्य, स्वाभाविक नोंक झोंक और मनमुटाव के सिवा कभी ऐसा कलह नहीं हुआ जिससे डिवोर्स का केस बने, यह केस निरधार, तथ्यहीन है, मुझे जबरदस्ती घर से बाहर कर दिया गया, में छली गई हूं । डिवोर्स नोटिस पाकर मैं सातवें आसमान से गिरी हूं ....... मुझे  मेरा अधिकार दिलाया जाए......... जज साहब ! .मै अबला नारी हूं, मैं न अकेली रह सकती और न रहना चाहूंगी । मैं हरगिज़ तलाक नहीं चाहती, अदालत से विनती है कि केस को खारिज़ कर दिया जाए । और मेरे पति को समुचित आदेश दिया जाए !"
                 जब अभिजीत से कहा गया कि वह अपनी दलील पेश करे तो वह कटघरे में खड़े रहकर एक ही बात दोहराता रहा "मैं सीमा से  तंग आ गया हूं । उसका आचरण ठीक नहीं है । उसके साथ एक छत के नीचे बीताना असम्भव है 
जब उसके वकील ने उसे समझाया कि उसे मुंह खोलना चाहिए, अपनी बात साफ़- साफ़ रखनी चाहिए वर्ना सीमा के पक्ष में निर्णय हो जाएगा, उल्टा अदालत उस पर हर्जाना भी लगा सकती तब अभिजीत ने अपना वक्तव्य प्रस्तुत किया ---" मि लार्ड ! तीन कारणों से मैं इस औरत को तलाक़ देना चाहता हूं : मेरा पहला कारण यह है कि जिन पेड़ पौधों के साये में खेल-कूद कर बड़ा हुआ हूं, जिनकी डालियों पर बैठ कर मैंने प्रकृति की सुन्दरता देखी, जिन पेड़ों के फलों से मेरे शरीर का रक्त मांस तैयार हुआ, उन पेड़ों से जो औरत नफ़रत करती है वह मुझसे कैसे प्यार कर सकती है ? ............
प्रकृति हम सब की मां है उसकी हरेक चीज सुन्दर है । पेड़ -पौधे , सूखी पत्तियां, टहनियां, यहां तक की पंछियों की बीट से भी मेरा लगाव है । मां की रक्षा करना बेटे का परम धर्म होना चाहिए चाहे उसके लिए कोई भी कुर्बानी क्यो न देनी पड़े । मेरा जीवन साथी बनने का हक़ उसे ही मिलना चाहिए जो मेरे बाग- बगीचे और खेतों को सहर्ष स्वीकार कर सके ।‌......... 
          दूसरा कारण यह है कि यह औरत अपनी शारीरिक ख़ूबसूरती पर इतना ध्यान देती है कि दिनभर यह अपने में ही व्यस्त रहती है, यह इतनी निर्दयी है कि अपने एकमात्र नन्हे बेटे को घर से दूर ' चाइल्ड केयर सेंटर' में भेज दिया । मां- बाप के रहते हुए भी उस मासूम को अनाथ सी जिन्दगी बितानी पड़ रही है ..............
मुझे बच्चों की मां चाहिए थी, बच्चों को जन्म देने वाली मशीन नहीं, मुझे घर संसार चाहिए मकान नहीं, मुझे जीवन साथी चाहिए, बार्बी डॉल नहीं ।"
अभिजीत फूट फूट कर रो पड़ा । थोड़ी देर के लिए अदालत में ख़ामोशी छा गई । ख़ामोशी भंग करते हुए जज साहब ने पूछा --" आपका तीसरा कारण क्या है ?"
           अपने आंसुओं को पोंछ कर अभिजीत ने उत्तर दिया --" मेरा तीसरा कारण यह है कि मैं एक असाधारण लम्बा आदमी हूं , मैं क़रीब सात फुट का हूं, मेरे सामने सीमा बौनी लगती है । उसनेे चुन चुन कर वही पेड़ कटवा दिए है जो बहुत ऊंचे थे और उसकी यह हरकत एक बहुत बड़ी सच्चाई को व्यक्त करती है कि वह मुझसे ईर्ष्या करती है । मेरे प्राण से प्रिय पेड़ों को जमींदोज करवा दिया । जज साब ! ये तीनों कारण तलाक़ के लिए प्रर्याप्त होने चाहिए । "
              अभिजीत के द्वारा लगाए गए आरोपों के स्पष्टीकरण देने के लिए जब सीमा को अवसर दिया गया तब वह काफ़ी कन्फ्यूज्ड दिखी, जिस आत्मविश्वास के साथ पहले अपनी बात रखी थी, वह आत्मविश्वास अब एकदम डगमगा चुका था , उसके  हाथ पैर फूलने लगे, होंठ थरथराने लगे ।
अचानक उसने सारे आक्षेपों को कबूल कर लिया और तलाक़ के लिए राजी हो गई । अदालत की कार्यवाही कुछ देर और चली, दोनों से ढेर सारे सवाल पूछे गए और अंत में दोनों की रजामंदी से तलाक़ की मंजूरी दे दी गई । बेटे की परवरिश की जिम्मेदारी अभिजीत ने मांग ली जिसकी अनुमति अदालत ने दे दी । 
                       
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 अभिजीत की आंखों के सामने सीमा के साथ अब तक के बिताये हुए दिन तैरने लगे । चौबीस वर्ष की उम्र में उसने सीमा से शादी की थी । सीमा बड़े शहर की लड़की, साज सज्जा, बोलचाल, रहन सहन, वेश भूषा सबकुछ पूरी तरह से शहरी, अंग्रेजीयत की नकल । भारतीय संस्कृति से नफ़रत, पाश्चात्य संस्कृति का पक्षधर ।
और इसके विपरित अभिजीत को अपना गांव, गांव के लोग, बागान बाड़ी, गांव का सादा जीवन सबकुछ से गहरा लगाव है । अपने घर से लगभग चालीस किलोमीटर दूर स्थित एक शहर में सरकारी नौकरी करता था अभिजीत । अपने ही वाहन से प्रतिदिन आना-जाना । 
गांव का पुश्तैनी घर " जमींदार का बंगला" नाम से मशहूर है । मोटे-मोटे खपरैलों की छतें, पतली- पतली ईंटों से बनी चौड़ी चौड़ी दीवारें, अनगिनत छोटी-छोटी खिड़कियां, विराट आंगन, आंगन के चारों ओर बड़-बड़े दालान, बंगले के सामने बहुत सुन्दर बागान और दूर- दूर तक फैला हुआ बाग़ है । उस बाग में आम, आंवला, कटहल, जामुन, महुआ, इमली,नीम, बरगद, देवदार, अशोक, पलाश, लीची, बेर, अमरूद, अनार, नारंगी आदि नाना प्रकार के बेशुमार पेड़ हैं । अभिजीत पंछियों के गीत सुना करता, उन्ही पेड़ों के नीचे बैठकर अपना पाठ याद करता ।  प्रकृति उसके रोम रोम में समा चुकी थी ।
 मगर सीमा को पूरा वातावरण असहनीय था । सूखे पत्तों और टहनियों को देख मुंह बिचकाती, गिड़गिड़ाती, बिडबिडाती, पंछियों के बीट देख  खीझ उठती। चिक-चिक, झिक-झिक करते करते दो बरस बीत गए। बेटा प्रशांत जब नन्हे-नन्हे पैरों से चलने लगा तो सीमा उसके कमरे के बाहर जाने से रोकने लगी । बात-बेबात वह कहा करती --" इस देहाती दमघोंटू वातावरण में लड़का बीमार पड़ जाएगा, पढ़ाई-लिखई  ठीक से नहीं हो पाएगी, सबकुछ बेचबाच कर शहर चलिए । "
           प्रशांत का पहला जन्मदिन था । एक महीने पहले से ही समारोह की तैयारियां शुरू हो गई थी । अभिजीत और सीमा दोनों ही गर्मजोशी से तैयारी में लगे हुए थे मगर सारा मजा तब किरकिरा हो गया जब अभिजीत ने समारोह के तीन दिन पहले चार दिन के दौरे के बाद घर लौट कर देखा कि उसका बाग़ उजड़ा हुआ है । कुछ बड़े-बड़े  पेड़ उखड़ चुके थे ।
              अभिजीत ने जब अप्रसन्नता व्यक्त की तो सीमा ने कहा था- " मैंने जो भी किया सब ठीक किया । मेरी न सही आपको कम से कम अपनी औलाद की चिंता तो होनी चाहिए । उसकी सेहत दिनों-दिन ख़राब हो रही है, उसकी अच्छी परवरिश चाहते हैं तो मेरा कहा मानिए, गांव का मोह त्यागकर शहर चलिए ।"
            उसने कहा था " मैं हाउस वाइफ बनकर नहीं रह सकती । मुझमें जो हूनर है वह मर रहा है । मुन्ने को मैं हास्टल में भेज दूंगी और मैं थियेटर में काम करूंगी या माडलिंग करुंगी ।" अभिजीत को दोनों ही नागवार था । दो महीने बाद फिर जब अभिजीत को हफ्तेभर के लिए दौरे पर जाना पड़ा तो उसने घर पर लौटकर देखा कि करोटन, मोरपंख, गुड़हल, साइकस, हरश्रृंगार, रबड़ प्लांट आदि पेड़ कट गये हैं। उसे रोना आ गया । उसने जब घर का हाल लिया तो पता चला कि उस
बेटे को ' चाइल्ड केयर सेंटर'  में भेज दिया गया है । अभिजीत ने जब गुस्सा झाड़ा तब सीमा ने कहा " या तो आप इस जंगल में देहाती लोगों, और सांप - बिच्छुओं के साथ रहिए या फिर परिवार को लेकर कहीं और चलकर रहिए । दोनों में से किसी एक को चुनना है ।"
                काफ़ी देर तक चुप रहने के बाद अभिजीत ने कहा " तुम कितनी निष्ठुर हो ! पत्नी हो मां भी हो पर गुड फॅर नथिंग हो ।" 
                उसदिन बिना खाए पिए अभिजीत दफ़र चले गए । जाते समय सीमा न भी उससे कुछ नहीं पूछा था । कार्यालय पहुंचने के बाद उसकी तबियत अचानक इतनी ख़राब हो गई थी कि दफ़्तर में ही डॉक्टर को बुलाना पड़ा था फिर मेडिकल कॉलेज के एमरजेंसी वार्ड में दो घंटे के लिए रखा गया था । शाम को एक ड्राइवर ने अभिजीत को घर पहुंचा दिया। 
घर पहुंच कर उसने जब एक कटहल के पेड़ को कटते हुए देखा तो उसका पारा चढ़ गया । वह चीख उठा --" अरे अरे पागल हो गये हो क्या ?"
नौकर ने कहा था " मालकिन का आदेश है ।"
- " ठीक है जहां तक काट चुके हो बस ...... भाग मेरे सामने से, नालायक उल्लू कहीं का । जा:भाग भाग जा । खड़े- खड़े मुंह क्या ताक रहा है !"
अभिजीत अपने बेडरूम में जाकर लेट गया । लेटे-लेटे चिंता में डूब गया । 
सीमा अपने पति से मिलने नहीं गयी, न ही उसने हालचाल पूछवाया ।
एक घंटे बाद जब अभिजीत कमरे से बाहर निकला तो देखा कि कटहल का पेड़ लुप्त है । वह स्तब्ध रह गया । उसे यकीन हो गया कि सीमा के साथ अब रहना असम्भव है ।
           अगले दिन सुबह सुबह उसने सीमा से कहा " एक जगह रहते रहते जी ऊबने लगा है, चलो पांच सात दिन कहीं घूम टहल आए । मौज मस्ती करेंगे और बाहर दोनों मिलकर तय करेंगे कि गांव की जमीन ज़ायदाद बेचकर कहा मकान बनाए, नौकरी छोड़कर कौन सा धंधा करे, किस शहर में रहें ।"
            सीमा पुलकित हो गई । चाय नाश्ता करके वह जल्दी से तैयार हो गई, दो अटैची में दोनों के लिए अलग-अलग सामान रख लिया, फिर थोड़ी देर बाद दोनों मोटरकार पर सवार होकर निकल पड़े ।
               गाड़ी चलाते चलाते अभिजीत ने ससुराल के सामने अचानक गाड़ी रोक दी। जैसे ही सीमा गाड़ी से उतरी अभिजीत ने उसकी अटैची उतार कर सड़क पर रख दी । सीमा ने आवाक होकर पूछा -" अरे ! यहां क्यो उतार रहे हैं ? आपने तो कहा था ........"
अभिजीत ने गाड़ी का दरवाजा बन्द करते हुए कहा -" मेरे घर बाग़ में आज से तुम्हारे लिए कोई स्थान नहीं । मैं तुम्हारे साथ अब और नहीं रह सकता, तुम्हें डिवोर्स नोटिस दो एक दिन में मिल जाएगी।"
                          
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  तलाक मंजूर हो जानें के बाद हफ्तेभर बाद अभिजीत अपनी एक विधवा बुआ को घर ले आया और दूसरे दिन प्रशांत को ।
          देखते देखते दिन बीतते गए और प्रशांत अब किशोर अवस्था में आ चुका था । इतने साारे वर्षों में अभिजीत ने अनुभव किया कि सीमा को वह भूल नहीं पाया है । सीमा को वह जितना भूल जाना चाहता था यादें उतनी ही सताती । सीमा के साथ बिताए हुए पल जो कभी कडुए थे अब खट्टी-मीठी यादें बनकर उसके साथ चलने लगी और उसके मन-मस्तिष्क का अंग बन गई। सीमा की यादें अब जीवन का सहारा थीं। 
       उसकी यादों के साथ वह तिल तिल मरता रहा, जीता रहा । सोचता रहा सीमा शिक्षित सम्पन्न परिवार की पढ़ी लिखी आधुनिक लड़की थी, ख़ूबसूरती से भरपूर, हिरोइन मटिरियल, माडेलिंग मेटिरियल , भला उसे क्यो सुहाता ये घर बाग़ !
अभिजीत अब अधेड़ हो चुका था, उसकी जीवन शैली बदल चुकी थी । सीमा के विछोह से वह मानसिक रूप से इतना आहत हो गया था 
 कि वह दफ़्तर में खोया-खोया रहता,उसे अपने ऊपर कोफ्त होता शायद उसने उसने सीमा को समझाने की कोशिश नहीं की थी, शायद शान्ति से बैठकर दोनों वार्ता करते तो कोई उपाय निकल आता । 
दफ़्तर के काम में उसका एकदम मन नहीं लगता । रिटायरमेंट की उम्र से बहुत पहले उसने रिटायरमेंट ले लिया।              
वह सुबह शाम बाग़ बगीचे में जुटा रहता, निराई- गुड़ाई करता, फूल पत्तो से बातें करता, कभी कभार उससे अगर कोई बात करता तो वह हर बात के आगे पीछे कहता " पेड़ों को मत काटो, वे तुम्हें फल देंगे , फूल देंगे, तुम्हारे तन मन को स्वस्थ रखेंगे । "
 सीमा ने जिन जिन पेड़ों को कटवाया था उन स्थानों पर वही वही पौधे अभिजीत ने लगवा दिया था जो देखते देखते लगभग पहले जैसे हो गये थे ।

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अपने मायके में सीमा तलाक के बाद कुछ समय रही फिर वह मुम्बई जाकर बस गयी । मुंबई में उसने थियेटर टीम के साथ काम करना शुरू किया, उसने अपने आप को उन्मुक्त पंछी महसूस किया । थोड़े दिनों के बाद एक फीचर फिल्म में नायिका की भूमिका मिली, फिर टीवी सीरियल में भी काम मिला। मात्र चार साल में उसने उम्मीद से ज्यादा सोहरत हासिल कर ली।  प्रशंसकों की भीड़, पत्रकारों द्वारा इंटरव्यू लिया जाना, संस्थाओं द्वारा प्रशस्ति पत्र मिलना, पत्र पत्रिकाओं में नाम आना सबकुछ उसे अच्छा लगता ।
                  लेकिन कुछ समय बाद यह सारी चीज़ें सीमा को मिथक लगने लगी । उसने अपने आप को चलित यंत्र महसूस किया । वही रोज़ रोज़ का सजना संवरना, घंटों मेकअप लेना, चेहरे पर नकली हंसी- मुस्कान लाना, कृत्रिम वर्ताव, चापलूसों की जमावट, किसी न किसी बहाने करीब आने की चेष्टा, बड़े बूढों तक की गिद्धि निगाहें, क्या रखा है ऐसी जिंदगी में ! !.... क्या यही सब पाने के लिए उतना अच्छा घर वर यहां तक कि पति का दिया उपहार प्रशान्त  तक को त्याग दिया था ? एकांत में सीमा जब तब सुबकती ।
                सीमा को उठते- बैठते अहसास होने लगा कि उसने सूझ-बूझ से काम नहीं किया, उससे भारी गलती हुई है , उसने जो कुछ खोया वह बेशकीमती मोती की मानिंद है जिसका नाम जिंदगी है और उसके एवज उसने जो कुछ प्राप्त किया वह दरअसल आत्ममुग्धता के सिवा कुछ नहीं। अजीब सा मायावी संसार है यह । अपना तो कुछ भी नहीं चलता !
                पत्नी की ऐक्टिंग करते समय उसे अभिजीत की याद आती, मां की ऐक्टिंग करते समय प्रशान्त की याद सताती, उसे शुटिंग का हरेक स्थल बागान बाड़ी की याद दिलाता । धीरे- धीरे उसकी खुशी नाखुशी फिर मायूसी में तब्दील हो गई।
               जिस जिंदगी को उसने वर्षों पहले पैरों तले रौंदा था उसे वापस पाने के लिए वह व्याकुल हो उठी । वह इतनी तनावग्रस्त हो गई कि काम से उसका मन उचटता गया । हाइपरटेंशन इतना कि बिना नींद की गोली के नींद नहीं आती ।

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                  आख़िरकार  वह ख़ुद के इमोशन्स को सम्भाल नहीं सकी और एक तूफानी रात में जब बड़े-बड़े वृक्ष की डालियां झूम रही थी, हवा की झोंकों से छोटे-छोटे पेड़ पौधों विशाल वृक्ष के भय से दुबकने की कोशिश कर रहे थे, मानो पवन देवता मदिरा पीकर उन्मत्त हो उठे हो, जब मेघों के भयंकर गर्जन से बड़ बड़े दरवाज़ कांप रहे थे जब निशाचर भी डर कर छिपा हुआ था, अभिजीत को लगा उसके द्वार पर किसी ने दस्तक दी है । वह कई बार फाटक तक गया और लौट आया फिर उसे आर्तनाद सुनाई दी, उसनेे साहस जुटाकर फाटक खोल दिया । टार्च की रोशनी फेंकते ही वह आश्चर्यचकित हो गया । उसके सामने खड़ी एक नारी, लाल किनारे वाली सफेद साड़ी, लाल ब्लाउज, लाल कांच की चूड़ियां, माथे पर लाल बिंदी, मांग में सिंदूर जगमगाता हुआ, एक भारतीय औरत -- उसकी सीमा, उसका खोया हुआ प्यार ।
               दोनों एक दूसरे को अपलक देखते रहे कुछ पल, फिर आहिस्ता आहिस्ता सीमा बोली "- क्या आपके घर बाग़ में वो आ सकती है ?"
               अभिजीत ने अपनी लम्बी लम्बी भुजाएं फैला दी । टार्च की रोशनी बूझ गई।

सुभाष चन्द्र गांगुली

1996 में लिखा 
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पत्रिका ' जान्हवी ' नयी दिल्ली अंक सितम्बर 1998 में प्रकाशित ।

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