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Monday, September 5, 2022

कहानी: नूरी


तीसरी कन्या के जन्म के दो दिन बाद आधी रात जब नूरी ने करवट बदली तो अपनी बेटी को न देख वह चीख उठी-"मेरी बेटी ! मेरी बेटी कहाँ है ?" दरवाज़ा ढकेलकर अन्दर आते हुए उसके पति शम्भु ने कहा- "अब वह नहीं रही। मर गयी है।" ----"क्या ? कब मरी ? कैसे मरी ? किसने मार डाला ? कहाँ है ? कहाँ है मेरी बच्ची ?"

-"अभी-अभी उसे नदी में बहाकर आ रहा हूँ। रात के बारह बजे वह दम तोड़ चुकी थी।" 
--"क्या ? रात के बारह बजे ? लगभग उसी समय मैंने उसे दूध पिलाया था। वह ठीक थी। हट्टी-कट्टी जन्मी थी, तन्दुरुस्त थी, मरी कैसे ?....... .मुझे दिखाए बिना उसे क्यों पानी में बहा दिया ?"

--"तुम गहरी नींद में थी। सो रही थी।"

-- "जगाया क्यों नहीं मुझे ? तुरन्त इतनी रात को फेंकने की जल्दी क्या थी ?......क्यों फेंक दिया ? क्यों ? जाइए अभी, ले आइए। ले आइए ।"

--'चुप कर। चीखने-चिल्लाने से तेरे ही ऊपर मुसीबत आ पड़ेगी। मैंने तेरी जान बचायी है, किसी को कुछ पता नहीं चल पाया। काक-पक्षी को भी भनक नहीं लगी, अब तेरे चीखने से तू अपना बवाल खुद मोल लेगी।”

-"क्यों मैंने ऐसा क्या किया ?” 
-“क्या किया ? माँ होकर तूने सन्तान को मार डाला, उसकी रक्षा नहीं कर सकी। कैसी माँ है तू ? तूने उसकी हत्या कर दी है, तू हत्यारिन है।”

-- "क्या बक रहे हैं? कहाँ है मेरी बच्ची ?"

-- "बताया ना वह मर गयी थी। इतनी गहरी नींद में तू सो रही थी जैसे बेहोश थी।" नूरी के पति ने कहा " मैं भीतर आकर मेरी बेटी को मरी हुई हाल में देख हक्का-बक्का, मेरी बेटी दबी हुई थी, ऐसी करवट तूने बदली कि वह दब गयी, तेरा भार सह नहीं पायी। दम अटक गया था।"

नूरी अपने पति को शक की निगाहों से देखने लगी। उसकी आँखें अँगार हो उठीं। उसने फिर पूछा-“सच-सच बोलिए कहाँ है मेरी बच्ची ? कहाँ है ? मुझसे बिना पूछे किसने उसे हटाया ?”

-"कहा ना तूने दबा दिया था उसे तेरी लापरवाही से वह मरी है। तुझे कितना हिलाया - डुलाया। कितनी मर्तबा पुकारा तुझे मगर तू ऐसी खर्राटे मार रही थी जैसे कि भाँग खायी हुई थी।"

- "झूठ है । सब झूठ है । सब झूठ है। मार डाला। मार डाला तुम लोगों ने। किसने मारा ? क्यों मारा ?"

    शम्भु ने अचानक उसके क़रीब आकर दो उँगलियों से उसके दोनों गालों को दबाकर जुबान पर ताला डाल दिया फिर कहा-"मत चीख क्यों नहीं समझती तेरे चीत्कार करने से हम सब फँस जायेंगे। खुद तो फँसेगी हम दोनों को भी जेल जाना पड़ेगा बच्ची तेरे कारण मरी है, तूने दबा दिया था, तेरे दबाने से उसकी साँसें बन्द हो गयी थी. हाँ हमसे ज़रा-सी गलती हो गयी कि हमने उसे उठाकर फेंक दिया, वह भी तेरी भलाई के कारण, न फेंकता उसी तरह बेटी पड़ी रहती तो अच्छा होता कल सुबह सबको खबर दे दी जाती तो तुझसे पुलिस पूछताछ करती मैंने सोचा हादसे के कारण बच्चा मरा तूने जान-बूझकर तो उसे नहीं मारा मगर तुझे अगर जेल जाना पड़ा तो भूरी का क्या होगा? कौन देखेगा मेरी भूरी को ? इस कारण मैंने जल्दी-जल्दी काम निपटाया ।”

फिर गालों को छोड़ते हुए उसने कहा- "समझ गयी कि अभी भी समझाना पड़ेगा ? .....भाग्य में जो कुछ लिखा रहता वही होता है। होनी को कोई नहीं टाल सकता। भगवान् के आगे किसी की मर्ज़ी नहीं चलती। तेरे साथ कुछ ऐसी-वैसी बात हो जाती तो भूरी का क्या होता ?"

- "भूरी कहाँ है ?"

- "सो रही है। ले आऊँ ? देखोगी ? सोने दो उसे ।...... . आँसू बहाना बन्द करो। इस हादसे को भूल जाओ। सो जाओ। नींद न आये तो बोलना गोली दे दूँगा।" भूरी की याद आते ही नूरी चुप हो गयी। ढाई वर्ष की भूरी ही उसकी जीवन बूटी थी।

विवाह के सालभर बाद उसने जब पहली कन्या को जन्म दिया था तो पति और सास दोनों ऐसे उदास हो गये थे मानो घर में गमी हो गयी हो। काफ़ी दिनों तक घर का माहौल गमगीन था।

किन्तु नवजात शिशु को देख नूरी का मन पुलकित हो उठा था। गोरा चिट्टा रंग, गोल-गाल चेहरा, भूरी-भूरी आँखें और उस पर जब उसकी माँ ने उसे लाल रंग का स्वेटर पहनाया था तो बहुत देर तक बेटी को एकटक देखने के बाद उसने अपनी माँ से कहा था-"माँ देख! ऊपरवाले ने हमारे बगीचे में कितना सुन्दर फूल भेंट किया है। है ना परी मेरी बेटी ?” और नानी ने तुरन्त बच्ची के मुँह पर थू-थू करके बेटी से कहा था- "पगली अपनी सन्तान को ऐसा नहीं कहा जाता। सबसे अधिक माँ की नज़र लगती है। कल शनिवार है मैं नज़र उतार दूँगी। मैं तो थोड़े दिनों के बाद चली जाऊँगी, अपनी सास को याद दिला दिया करना हर शनिवार को वह नज़र झाड़ देगी। मिर्च जलने की महक अगर न निकले और खाँसी न आये तो समझना नज़र लगी थी। मैं अपने बाबाजी से ताबिज़ लेकर भेज दूंगी गले में या कमर में लटका देना।"

नज़र उतारना तो दूर नूरी की सास ने कभी भी भूरी को गोद में नहीं लिया। अपने क़रीब जाने तक नहीं दिया उसे और जब वह नन्हें-नन्हें पाँवों से चलने लगी और चलते चलते दादी के पास पहुँचती तो दादी उसे चुपके से चिकोटी काट देती। भूरी कभी चीख उठती, कभी रोती और कभी हँसती। डेढ़ वर्ष की भूरी जब एक दिन चुपके-चुपके दादी के पास जाकर दादी के गर्दन को पकड़ा तो दादी ऐसा झटका देकर उठ खड़ी हुई कि भूरी सिर के बल गिर पड़ी और निमिष में उसका माथा सूज गया।

भूरी को चिकोटी काटते हुए नूरी दो-तीन बार देख चुकी थी मगर उसने कभी कुछ कहा नहीं था पर उस दिन सास की बेरहमी देख उसका पारा चढ़ गया और वह बोल पड़ी-"आप दादी हैं कि और कुछ ? जब देखिए तब उसे सताती हैं। शर्म नहीं आती है आपको ? सौतेली माताएँ भी ऐसी हरकतें नहीं किया करती होंगी।"

सास ने नूरी से तो कुछ नहीं कहा किन्तु उसका बेटा जैसे ही दिहाड़ी करने के बाद देर शाम घर लौटा तो फूट-फूटकर रोती हुई उसने बेटे से कहा-"तुम्हारी बीबी के सींग निकल आये हैं। भूरी गिर पड़ी थी तो वह मुझे कोसने लगी, मुझे गालियाँ दी, क्या-कुछ नहीं कहा तुम्हारी बीबी ने।"

नूरी ने पति को समझाना चाहा कि उसकी सास सफेद झूठ बोल रही है परन्तु शम्भु ने उसकी एक न सुनी और फटकारते हुए कहा- "माँ क्या तुम्हारी लड़की को लेकर नाचेगी-कूदेगी ? पोता होता तो खिलाती, दुलार देती सब करती। मैं भी गोद लेकर खिलाता। अपने पास रखा करो लड़की को माँ ने अगर दुबारा तुम्हारे मुँह लगने की शिकायत की तो अन्जाम बुरा होगा।”

प्रत्युत्तर में नूरी ने कहा था- "पुत्र की आकांक्षा किस औरत को नहीं रहती ? मुझे भी है। क्या लड़की का जन्म किसी पूर्व जन्म के पाप का फल है ? वह पाप किसका ? बाप का या माँ का ? लड़का और लड़की दोनों की दरकार है संसार में, परिवार में। जब भगवान को लड़का देना होगा दे देगा। वह लड़की है तो उसके साथ अत्याचार क्यों ? आपकी माँ भी तो लड़की की जात है।"

-"मूरख हो तुम। मुझे जाहिल समझ रखी हो क्या ? दो अक्षर लिख-पढ़ क्या लिया सबको ज्ञान देने लग गयी, बड़ी-बड़ी बातें करने लगी। चलो जाओ यहाँ से, ले जाओ अपनी बेटी को, आराम करने दो हमें।"

-"कितनी प्यारी बच्ची है भूरी! कितनी प्यारी कितनी सुन्दर। जब रंग-बिरंगे फ्राक पहनकर आँगन में फुदकती है, हँसती-मुस्कराती टहलती है तो एकदम परी लगती है, उसकी एक मुस्कान देख मेरी दिन-भर की थकान दूर हो जाती है और आप लोग कितने निर्मम हैं, कैसे किसी को गुस्सा आता उसे देख ? कैसे कोई चिढ़ता है ? लड़का न होने के कारण आप लोग पत्थर दिल के हो गये हैं. .. मैं क्या उसे दहेज में ले आयी थी ? आप ही की बेटी है, इसी घर की बेटी है. .. आप अपनी माँ से कह दीजिए मेरी बेटी को परेशान न किया करे। प्यार न दे सके तो सताये तो नहीं।"

      अचानक शम्भु ने खाट से उठकर नूरी का कान पकड़ लिया और कान उमेठकर बोला- "कान खोलकर सुन लो लोग बेटे को राजा बेटा कहते हैं, सिर चढ़ाते हैं, बेटे के नाम जमीन-जायदाद, मकान-दुकान हो जाता है, बेटी परायी होती है, जब तक है तो अपनी है।"

 बहुत देर तक नूरी एक हाथ से अपने कान पर ठण्डा पानी डालती रही और दूसरे ,,हाथ से आँसू पोंछती रही।

भूरी जब सात माह की थी तब नूरी दूसरी बार गर्भवती हुई थी। उसने अपने पति से गर्भपात कराने की बात कही थी किन्तु शम्भु ने उसे डाँट लगाकर कहा था- "कैसी औरत हो तुम कि बच्चा पैदा करने से डरती हो। शादी से पहले तुम्हारे माँ-बाप अगर कह देते कि बच्चा पैदा नहीं करना चाहती हो, डरती हो तो मैं किसी और से शादी कर लेता। तुम अगर बच्चा नहीं पैदा कर सकती तो तुम्हारा यहाँ काम क्या ? जाओ वापस अपने मायके। मैं दूसरी शादी कर लूँगा।"

नूरी ने कहा था- "मैं क्या सन्तान पैदा करनेवाली मशीन हूँ? मैं क्या हवस पैदा करने का साधनभर हूँ? स्त्री के शरीर के साथ इतना अन्याय क्यों ? इस शरीर के भीतर जो दिल-दिमाग है उसके अस्तित्व को क्यों नहीं समझ पाते आप मर्द लोग....... अभी भी मेरा शरीर एकदम स्वस्थ नहीं हुआ, भूरी को अभी भी दूध पान कराना पड़ता है, दिन भर खटती रहती हूँ, जो बच्चा जन्मेगा कमजोर बच्चा हो सकता है.......दाई से मैंने पूछा था वह सफाई कर देगी, भूरी कम-से-कम सवा साल-डेढ़ साल की हो जाए तब । " उत्तर में शम्भु ने कहा था-"तुमको मैं तुम्हारे मायके छोड़ आऊँगा। क्या करने रहोगी यहाँ ?"

नूरी सहम गयी थी।उसने कोख में पल रहे बच्चे को जन्म दिया था।

कमजोरी के कारण प्रसव के तुरन्त बाद नूरी बेहोश हो गयी थी। काफ़ा खून निकल गया था। जब उसे होश आया था तो उसने सुना था कि उसकी कोख से एक अजीब सी बच्ची जन्मी थी जो भूमिष्ट होते ही मर गयी थी। नूरी चकित हुई थी। मर्माहत भी हुई थी।

किन्तु तीसरी सन्तान की रहस्यमय मौत ने नूरी के मन में सन्देह पैदा कर दिया।
दिन-रात उसके मन में तरह-तरह की दुर्भावनाएँ, दुश्चिन्ताएँ कुलबुलातीं भय और तनाव मैं उसके दिन बीतते जब कभी वह अपने पति को देखती तो उसे उसकी आँखों में खूँखार • आतंकवादी नज़र आता। सास की खामोशी से नूरी के मन में आता कि वह एक गुनहगार औरत है। वे दोनों निष्ठुर हैं।

त्रासद, अभिशप्त जिन्दगी से निजात पाने का उपाय ढूँढ़ने लगी नूरी। मानसिक दासता और शारीरिक उत्पीड़न झेलने को विवश नूरी तकदीर को कोसती, पत्थर की मूरत के सामने बैठकर गिड़गिड़ाती ।

नूरी ने अपना दुखड़ा अपने माता-पिता को कभी नहीं सुनाया। वृद्ध माता-पिता अपनी ही परेशानियों से त्रस्त थे, बेटी की शादी कर दी थी, ससुराल में खाने-पीने की कमी नहीं थी, बेटी ने कभी शिकायत नहीं की। उसी से वे निश्चिन्त थे। ग़रीब माता पिता के सिवा एक ग़रीब भाई था उससे भी कुछ कहने से क्या फायदा ? पैसेवाला होता प्रभावशाली होता तब शायद वह कुछ कर पाता, तब शायद उसका पति उससे डरता।

नूरी की कोख में जब चौथी बार सन्तान पलने लगी तब नूरी को यकीन-सा होने लगा कि वह पुत्र को जन्म देगी। उसकी सास भी आये दिन पेट में हाथ फेरती, उसे ऊपर से नीचे देखती सूँघती और यकीन दिलाती कि बेटा होगा। दाई ने भी कहा कि इस बार लड़का होगा। उसी दाई ने पहले भी दो-दो बार कहा था लड़का होगा किन्तु अब कि बार वह दावे के साथ कह रही थी कि लड़का ही होगा और पहले से ही ज्यादा रुपए लेने की बात कर रही थी।

लड़की के पैदा होने की बात सोचते ही नूरी सिहर जाती, पूरा शरीर काँप उठता। उसने अपने पति से कहा कि शहर ले चलकर मशीन से जाँच करवा ले लड़का पल रहा है या नहीं लेकिन शम्भु ने यह कहकर बात टाल दी कि उसके पास उतने रुपये नहीं है, मशीन से जाँच करवाने पर बच्चा अपाहिज भी हो सकता है।

नूरी गुमसुम रहती। कभी-कभार भूरी को लेकर आस-पास टहल आती और कभी थोड़ी दूर रहनेवाली उसकी उम्र की एक औरत के घर जाकर अपना मन हल्का कर लेती। एक दिन जब सास ने उसके पेट पर हाथ फेरकर उससे कहा कि "इस बार पोता ही आयेगा" तब नूरी ने साहस जुटाकर सास से पूछा- "माँ जी यह बताइए एक औरत दूसरी औरत की पीड़ा क्यों नहीं समझ पाती है ? औरत दूसरी औरत को क्यों ताने उलाहने

देती है कि वह बेटे की माँ नहीं बन पाती ? बेटा होना न होना क्या अपने हाथ में है?"

सास ने झिड़की देकर कहा था-"वह औरत औरत ही क्या जो पुत्र को जन्म देकर कुल की रक्षा न कर सके ? उससे अच्छी तो बाँझ होती हैं जो कम-से-कम परिवार का बोझ नहीं बढ़ाती ..... तूने अगर दुबारा ऐसी बेहूदी बातें करने का साहस किया और इस बार अगर तेरा बेटा न जन्मे तो तुझे भगा दूँगी, अपने बेटे का दूसरा ब्याह रचाऊँगी, दर-दर ठोकरे खाती फिरेगी, माँ-बाप का खुद का ठिकाना नहीं तुझे क्या रखेगा...... अपनी भलाई चाहती है तो चुपचाप अपना काम कर।" 
नूरी ने ढाँढ़स बाँधकर कहा था- "आपने अगर मुझे इतना कमजोर समझ रखा है.तो यह आपकी भूल है मेरा इस घर में क्या अधिकार है मैं भली-भाँति जानती हूँ । आप अगर मुझे बुजदिल समझ रही हैं, तो यह आपकी भूल है आप बाहर से आयी है, मैं भी बाहर से आयी हूं । मेरा भी इस घर में उतना अधिकार है जितना आपका है....... आपने अगर कुछ उल्टा-पुल्टा किया तो अंजाम बुरा होगा।" 
सास ने झोटी पकड़कर एक तमाचा जड़कर कहा था- "रुक चुड़ैल शम्भु घर आये मजा चखाती हूँ।" फिर जैसे ही शम्भु घर लौटा सास ने कुछ ज्यादा नमक मिर्च डालकर चुगली कर दी, शम्भु ने झट से अपनी मर्दानगी दिखाते हुए लौह हाथ से दस-बारह थप्पड़ जड़ दिया।

यह पहला अवसर नहीं था जब नूरी ने मार खाया हो मगर यह पहला अवसर था जब उसने एक बूँद आँसू नहीं बहाया था। 
नूरी ने चौथी सन्तान को जन्म दिया। नार्मल डिलवरी हुई घर ही पर, उसी दाई के द्वारा ।

इस बार नूरी का सन्देह हकीकत में तब्दील हो गया। ठोस सबूत के साथ हत्या का प्रयास करते हुए शम्भु रंगे हाथ पकड़ा गया। हत्या के प्रयास की साजिश में साथ देने के लिए शम्भु की माँ, और दाई भी दोषी पायी गयी।

तीनों जेल की हवा खाने चले गये। गैर जमानती वारण्ट के रहते वे बाहर नहीं निकल सके। तीनों को आजीवन कारावास की सज़ा मिली।

नूरी ने पति की पदवी गोत्र त्याग दिया था। माँग का सिन्दूर मिटा दिया था, चूड़ियाँ तोड़ दी थी। असहाय अबला, विधवा-सी जिन्दगी को उसने जान-बूझकर वरण किया था। भूरी जब सोचने-समझने लायक बन गयी तब नूरी ने बेटी को आप-बीती सुना दिया- "हजार तकलीफ़ के बावजूद मुझे इस बात की तसल्ली है कि मैंने हत्यारों के संग जीवन नहीं बिताया, मैंने तीनों गुनाहगारों को सज़ा दिलवाकर इंसानियत के साथ इंसाफ़ किया था। चौथी डिलवरी से पहले मैंने 'स्त्री अधिकार संगठन' को अपनी दुःखभरी कहानी सुनाकर अपनी नवजात शिशु की हत्या की आशंका से अवगत करवा दिया था। तभी तुम्हारी यह छोटी बहन मारे जाने से बच सकी थी।"

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
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( "कहानी की तलाश" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2006)
**' अमर उजाला ' दिनांक 31/06/1998 में ।
** ' कथा विशेषांक ' एजी यूपी आफिस, ज
06/19980मे प्रकाशित ।
** पत्रिका ' पश्यन्ती ' अक्टूबर-- दिसम्बर 2005 में प्रकाशित ।

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