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Tuesday, September 6, 2022

कहानी- भय


पार्टी के लिए तैयार होकर कमरे से निकलते समय अन्तिम क्षण जब नेहा ने ख़ुद को आइने में देखा तो वह मर्माहत हो गयी। उसके बदन पर सोने के आभूषण न रहने के कारण वह नयी नवेली दुल्हन नहीं लग रही थी।

हाल ही में नेहा ने घरवालों की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ कोर्ट में शादी की थी।

शादी के बाद नेहा जब माता-पिता से आशीर्वाद लेने घर पहुँची थी तो उसके पिता घर से बाहर निकल गये थे और जाते-जाते कह गये थे- “दुबारा अपनी मनहूस सूरत दिखाने न आना। कहाँ मैं तेरी शादी इंजीनियर से करने जा रहा था और तूने कहाँ इस बैंक क्लर्क का हाथ थाम लिया। नानसेंस !"

माँ किन्तु माँ थी। बेटी को छाती से लिपटाकर रो पड़ी थी। सुहागिन की माँग का सिन्दूर भरा था और दामाद का हाथ पकड़कर कहा था- "बेटा तू उनकी बात का बुरा न मानना, सब ठीक हो जाएगा... .. नेहा को बड़े जतन से पाला-पोसा था मेरी बेटी का ख़्याल से रखना बेटा।"

घर लौटकर नेहा ने जब अपना पर्स खोला था तो वह दंग रह गयी थी। माँ ने उसमें मंगल सूत्र, सिन्दूर का डिब्बा, बिन्दियाँ और दो हजार पाँच सौ एक रुपए रख दिये थे। पिता की क्रूरता से मनःक्षुब्ध नेहा ने माँ की भेंट को वापस करने का मन बना लिया था किन्तु उसके पति कमल ने समझाया था कि माँ द्वारा दिये गये शगुन को वापस करके माँ की भावना को ठेस पहुँचाना उचित नहीं है, फिर उस बात को लेकर सास-ससुर में मनोमालिन्य हो सकता है।

माँ के रुपयों से नेहा ने तीन साड़ियाँ खरीद ली थीं। कमल की नयी-नयी नौकरी है। थोड़ा-बहुत कर्जा करके यार-दोस्तों के लिए छोटी-मोटी पार्टी की व्यवस्था की है, तीन-चार साड़ियाँ, काँच की चूड़ियाँ, नकली गहने, जूते, चप्पल आदि खरीद दिया है।

नेहा को मालूम था कि फिलहाल इससे ज़्यादा कमल के लिए सम्भव नहीं था। कमल ने पहले ही कहा था थोड़ा-बहुत धन इकट्ठा कर साल भर बाद शादी करेगा किन्तु नेहा को ही जल्दी थी क्योंकि उसे भय था कि उसके घरवाले ज़ोर-ज़बरदस्ती अन्यत्र शादी कर देंगे।

नेहा की तैयारी में देरी देख कमल ने दरवाज़ा थपथपाया। दरवाज़ा खुलते ही नेहा की नम आँखें देख कमल का दिल दहल उठा। उसने कहा- "क्या बात है ? आज खुशी का दिन है। पार्टी में कितने सारे लोग तुम्हें देखने आयेंगे और इधर मूड ऑफ ?"

नेहा चुप थी। मन ख़राब होने का कारण नहीं बता सकी। कमल ने कहा- "पापा-मम्मी के लिए मूड ऑफ है ? होता है। स्वाभाविक है। चलो, चलो, आँखें पोंछ लो। लुक नॉर्मल, बी नॉर्मल । "

मगर ज़्यादा देर तक नेहा नॉर्मल नहीं रह पायी थी। पार्टी शुरू होने के थोड़ी देर बाद ही किसी ने उसकी साड़ी छूकर देखा था, किसी ने साड़ी का दाम पूछा था और किसी ने नकली गहने और काँच की चूड़ियों को देखकर मुँह बिचकाया था। घर लौटकर गम के आँसू बहाकर नेहा चुपचाप सो गयी थी। कमल ने उसकी टीस को छेड़ा नहीं था।

नयी नवेली दुल्हन न दिखने की पीड़ा को नेहा जितना भूले रहना चाहती थी उतनी ही उसे याद आती। जब कभी तैयार होकर वह आईने के सामने खुद को देखती उसे उन औरतों की बातें सालती जिनसे वह लगातार ताने उलाहने सुनती चली आ रही थी। किसी ने कहा था-"तुम्हारी माँ ने गहने नहीं दिये दिये ही होंगे। नयी दुल्हन गहने पहना करो।" किसी ने कहा था-"माँ-बाप की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ शादी करने से ऐसा ही होता है। अब झेलना तो पड़ेगा ही।" 
मौसी ने कहा था-"कोर्ट में शादी हुई, माँ-बाप से कुछ न मिला सही तुम्हारी सास ने भी तुम्हें कुछ नहीं दिया ? अरे तुम तो अब उस घर की बहू हो, कमल से बात क्यों नहीं कर लेती ? इकलौता है। वह किसके लिए गहने रखी हुई है ? सुना है बुढ़िया के पास ढेर गहने हैं।"

अन्ततः नेहा से नहीं रहा गया। एक दिन अत्यन्त भावुक होकर उसने अपना दुःखड़ा कमल को सुनाया।

पत्नी की बातों पर हामी भरते हुए कमल ने कहा- "ठीक कह रही हो। माँ अगर अपनी पसन्द की लड़की ले आती तो गहने देती ही, तुममें कौन-सी कमी है ? बल्कि तुमसे बेहतर लड़की थोड़े न मिल पाती। घर का सामान घर ही में रहेगा, हम तुम तो नहीं...... किन्तु मुझे भय है कि बात छेड़ने से माँ बिगड़ न जाए।"

 और हुआ भी यही । एक दिन जब मालती देवी ट्रंक खोलकर गहनों को डिब्बों में सजाकर कायदे से धर रही थी, पीछे खड़े-खड़े बहुत देर देखने-सोचने के बाद कमल ने ज्योंही हार और झुमके की माँग रखी, मालती देवी ने सटाक से कुण्डी में ताला डाल दिया, फिर चाबी का गुच्छा आँचल में बाँधकर चीख उठी-"ये गहने मेरे हैं, मेरे अपने गहनों में से मैं एक रत्ती नहीं दूँगी, मरते दम नहीं दूँगी।”

मालती देवी की इस तरह की बेदर्द, बेरहम प्रतिक्रिया से कमल एकदम से सन्न। उसके मन में अलग तरह की जिज्ञासा जाग उठी। उसने मालती देवी से पूछा-"क्यों ? ऐसी कसम क्यों खायी तुमने ?”
_“क्यों ? निर्लज्ज ! शर्म-हया तो है नहीं। बड़ों का आदर करना भी सीखा नहीं, पूछता है क्यों ?........ तुझे अब कारण भी बताना पड़ेगा ? जानता नहीं तूने क्या किया ? मेरे गहने उस छोकरी को पहनायेगा ?"
-" माँ ! अब वह इस घर की बहू है । तुम्हारी बहू है।"
- "अपनी मर्ज़ी से छोकरी को उठा लाये हो और कहते हो बहू है। बेशर्म कहीं का। पूरा घर गंधा दिया है छोकरी ने। नाक कटा दी है तुम दोनों ने ...... तेरे पिता अगर जीवित रहते तो तुझे निकाल दिये होते इस घर से।"
- "माँ ! बेतुकी बातें मत किया करो। वह पढ़ी-लिखी भद्र घर की लड़की है। उसके पिता ऊँचे ओहदे पर काम करते हैं। नामी आदमी है। जाने-माने लेखक हैं।"
 - "तभी तो उन्होंने अक्लमन्दी की। फूटी कौड़ी नहीं दी।....... अपवित्र कर दिया है घर को इस छोरी ने।”
- " दहेज लेकर तुम्हारी मनपसन्द लड़की घर ले आता तो घर पवित्र बना रहता, उसके आने से घर अपवित्र हो गया है यह किस धर्म में है ?"
-"वह निम्न गोत्र की है। उन लोगों से हमारा रिश्ता नहीं होता है। तेरे पिता वैसे लोगों के घरों में नहीं जाते थे। वैसे लोगों के घर हमारे वंश में कभी किसी ने जलग्रहण तक नहीं किया, न बोलचाल का रिश्ता रखा।"
- " यह गोत्र - सोत्र, जात-पाँत क्या होता है ? बकवास है सब हमने लव मैरिज की है ..... ...जमाना इण्टरनेट और अन्तरिक्ष की यात्रा कर रहा है और तुम हो कि वही सन् अट्ठाईस को जी रही हो, ऊँच-नीच, छूत-अछूत.....दो कौड़ी की बातें, अनएडुकेटेड जैसा। आजकल इस तरह की बेबुनियाद बातें करना मूर्खता है।"

- "ओ हो! भड़ास ने अब यह रूप ले लिया ? इस उम्र में मुझे तुझसे समझना पड़ेगा कौन ऊंचा कौन नीचा, धर्म क्या और अधर्म क्या ?..... बिरादरी में शादी करता तो दहेज में मोटी रकम, गहने, मोटर साइकिल सब कुछ मिल जाता, माँ के आगे झोली नहीं फैलानी पड़ती ।....तेरी कीमत मैं पाँच लाख लगा रही थी. ...इसीने फँसाया होगा तुझे, आजकल की लड़कियां लड़के फंसाने में माहिर होती है। मां बाप भी कम चंट नहीं होते जान-बूझकर आँखें बंद कर रख रुपया बचा लेते....।" 

मालती देवी अनर्गल बोलती चली गयी। बन्धनहीन, निर्मम । उधर नेहा अपराधिन सी निर्वाक् खड़ी अपशब्दों को हजम न कर पाने के फलस्वरूप अविरल आँसू बहाये चली जा रही थी।

कमल ने महसूस किया कि नेहा को अकारण खरी-खोटी सुननी पड़ रही है, माँ ने उसे कुछ ज़्यादा ही ही जलील कर दिया है। 
कमल ने जिरह करने का मन बना लिया और पूछा - "उतने गहने तुम्हें कहाँ से मिले। बोलो कहाँ से मिले ? चुप क्यों हो ?" मालती देवी का चेहरा तमतमा उठा। मन ही मन बिलबिलाने लगी।
कमल ने जिरह की "बोलो! चुप क्यों हो गयी ? मैं पूछता हूँ उतने गहने कहाँ से मिले तुमको ?”

-"मायके से मिला था।"

- "मिला था या लेकर चली आयी ? तुम्हारे पास उतने गहने और मौसी के पास कोई गहना नहीं क्यों ?"

कमल के जासूसी प्रश्न से मालती देवी कटघरे में नज़र आयी। हाथ की उँगलियों को गटक के पास रखकर चाबी के गुच्छे को टटोलकर देखा ठीक से बँधा है या नहीं फिर बोली - "मगर तू क्यों खुफियागिरी कर रहा है ? तेरा इस सबसे क्या लेना-देना ?"
- "लेना-देना है। तुम कितनी महान् हो वही भेद मैं खोलना चाहता हूँ । मेरी भाभी है, मौसी है, उन सबों को तुमने ठेंगा दिखा दिया, उन सबों का हिस्सा हड़प लिया ।" 

- "हड़प लिया था ? ..तुझे क्या मालूम अपने परिवार के लिए मैंने क्या कुछ नहीं किया....... जब मेरी माँ मरी, मैं सत्रह की अपने भाई-बहनों को पाल-पोस बड़ा किया, माँ का प्यार दिया.........। "

- "और उसके एवज तुमने अपनी माँ और दादी दोनों के गहने मार दिये, नाना जी देखने के लिए जीवित नहीं रहे, किसी ने कुछ कहा नहीं, देखा नहीं, जो कुछ लेने लायक था तुमने सब ले लिया, जरा-सा सोचा नहीं किसी और के लिए, ना ही मौसी को शादी में कोई गहना दिया, हड़पना नहीं तो और क्या था ?"

-"तो तेरी मौसी ने तेरे कान भरे हैं ! तू कुछ भी बक मैं तुझे एक रत्ती नहीं दूँगी, हरगिज़ नहीं दूँगी.. ..यही थोड़े-से गहने हैं मेरा सम्बल । सारा पैसा उन्होंने मकान में लगा दिया था मेरे लिए कुछ नहीं छोड़ा, वही जो तीस-बत्तीस हजार है, बीमारी - हीमारी में जब निकल जाए ....... कितना कहा था फिर भी तेरे पिता जी मकान मेरे नाम से नहीं लिखा...... आजकल घर-घर की कहानी बनती जा रही है कि कोई लड़का अपने माँ-बाप को नहीं देखता, बीबी आयी नहीं कि बेटा पराया, तू भी आज के युग का है, एक-एक करके मेरे पास जो कुछ है सब लेकर दो रोटी के लिए मुझे दिन-रात मेहनत कराएगा....... मेरे पति अब नहीं रहे, मैं कुछ नहीं दूँगी, कुछ नहीं....... फूट-फूटकर रोने लगी मालती देवी । नेहा ने कमल को और कुछ बोलने से रोक लिया।

उक्त घटना के बाद मालती देवी के आचरण में अजीब-सा बदलाव नज़र आने लगा। बात-बेबात वह बौखलाती, चीत्कार करती, रोती, सिर पीटती। अक्सर उदास, अनमने से घर के एक कोने में बैठी रहती। जब-तब ट्रंक के ताले को जोरों से हिलाकर देखती बन्द है कि नहीं। कभी देर रात कमरा बन्दकर गहनों को खोलकर देखती फिर रख देती। दिन-भर घड़ी-घड़ी आँचल में बँधे चाबी के गुच्छे को टटोलती। जब कभी घर से बाहर जाती अपने कमरे में ताला डाल देती और वापस लौटकर सबसे पहले ट्रंक का ताला हिलाकर देखती कि बन्द है या खुला। उसने कमल से बोलचाल बन्द कर दी। कमल अगर पास जाता या कुछ समझाने की कोशिश करता तो वह शोर मचाने लगती।। दिन-रात मन ही मन बड़बड़ाती। 

एक दिन सुबह-सुबह मालती देवी ने कमल को नींद से जगाते हुए कहा- "कमल ! उठ उठ देख छगन के घर पुलिस आयी है ।"
 "आने दो, हमें क्या करना।” कमल ने करवट बदली । मालती देवी अधीर, अशान्त थी । थोड़ी देर तक अन्दर-बाहर करने के बाद फिर कमल को ठेलते-ठेलते बोली- "उठ, उठ ! देख छगन के घर कुर्की हो गयी है, छगन की बीबी रूपा छगन से लड़-झगड़कर मायके चली गयी थी, दो महीने से वहीं है, वह अपनी सास के संग नहीं रहना चाहती। रूपा के घरवालों ने जालसाजी कर मकान को रूपा के नाम लिखवा लिया है.. "
-“ह्वाट ?!!” कमल एकबारगी उठकर बैठ गया।
-“देख ना पुलिस मकान खाली करवाने आयी है। छगन परेशान है। एक बार इधर, एक बार उधर भाग रहा है।"
कौतूहलवश कमल ने घर से बाहर निकलकर चारों ओर नजर दौड़ायी फिर छगन को देखते ही पूछा- "क्या बात है ?"

घर लौटकर जोरों से हँसते हुए कमल ने कहा-
"माँ तुम क्या तमाशा करती हो। ऐसी उल्टी-सीधी, बेसिर-पैर कहानी गढ़ती हो कि कहानीकार भी फेल तुम्हारे सामने।" 
- " मैंने ख़ुद देखा छगन भाग रहा था एक बार इधर, एक बार उधर, माथे से पसीना चू रहा था.... मालती देवी अपनी बात पर अडिग थी।
 वह बोली-"नहीं। तू गलत बोल रहा है।
....उसका मकान रूपा के नाम हो गया है।"

- "माँ, अब चुप भी हो जाओ। सुबह-सुबह नींद से उठा दिया। सिपाही ने पावरोटी खरीदकर पचास का नोट दिया, छगन के पास फुटकर नहीं था सो वह छुट्टा कराने के लिए पूछ रहा था।”

मालती देवी अपनी बात मनवाने में तुल गयी। वह बोली-"नहीं। मैं पागल हूँ क्या ? ऐसे ही मेरे बाल पक गये हैं क्या ? छगन टाइम माँग रहा था इसलिए पचास रुपया घूस दे रहा था, वे लोग नहीं माने, छगन ग़रीब है, वह घूम-घूमकर लोगों से रुपया माँग रहा था।"

कमल ने झिड़की दी- "क्यों खामख्वाह दिमाग ख़राब कर रही हो ? अपना दिमाग तो आधा ख़राब कर चुकी है। अब हम लोगों का दिमाग भी ख़राब कर दोगी। जाओ अपना काम करो। पूजा-पाठ में मन लगाओ, किताबें पढ़ा करो, दिमाग ठीक रहेगा। तुम सोचती हो हम लोग इस मकान को अपने नाम करवा लेंगे और तुम्हें बाहर निकाल देंगे. यही ना ?"

बात वहीं ख़त्म हो गयी।

माँ के लिए कमल की चिन्ता बढ़ गयी। उसने महसूस किया कि माँ भयग्रस्तता से अर्धविक्षिप्त हो चुकी है। उसे लगा कि माँ के मन में काल्पनिक भय और अविश्वास गहराता जा रहा, उसका मानसिक सन्तुलन बिगड़ सकता है । किसी रोज़ अनहोनी हो सकती है। कमल ने महसूस किया कि अब माँ के साथ एक छत के नीचे बिताना तीनों के लिए ही ठीक नहीं है। सम्भव है कि माँ को भयमुक्त कर देने से उसे उसकी खोयी हुई माँ मिल जाए।

मकान अभी भी पिता के नाम था। कमल ने कानूनी कारवाई कर अपना हक हमेशा के लिए त्याग दिया और मकान की सम्पूर्ण मिल्कियत मालती देवी के नाम करवा ली। कागज़ात सौंपते हुए कमल ने कहा-“अब से यह मकान सिर्फ़ और सिर्फ़ मालती देवी का है। तुम चाहे बेच दो, चाहे रखो, तुम्हें तुम्हारा मकान और तुम्हारे गहने मुबारक। हमें तुम्हारा प्यार चाहिए था, गहने नहीं।"
 मालती देवी हतप्रभ होकर बेटे और बहू को घर से जाते हुए देखती रही, अनचाहे ही उसकी आँखें डबडबा आयीं। और जब वे दोनों सड़क पर आँखों से ओझल होने को थे मालती देवी ने पूरी ताकत से चीत्कार किया "कमल ! कमल ! मेरे लाल ! नेहा ! मेरी बहू.......।"


© सुभाष चंद्र गाँगुली 
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( "कहानी की तलाश" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2006)
* पत्रिका ' स्वातिपथ ' अगस्त 1999 में प्रकाशित
* पत्रिका 'तटस्थ ' में अप्रैल से जून 2006 में प्रकाशित
* पत्रिका 'वैचारिकी'' 2/11/1998 में प्रकाशित

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