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Tuesday, September 13, 2022

कहानी: रामकली



डिलेवरी के सम्बन्ध में मेरी पत्नी अस्पताल में एडमिट थी। पार्ट पेयिंग कमरा था। आने-जाने पर ख़ास रोक-टोक नहीं थी, बस जब-जब डॉक्टर के आने का टाइम रहता. बाहरी लोग कमरे से थोड़ी देर के लिए निकल जाते। मैं भी घूम फिरकर पत्नी के पास चक्कर काटता। मैंने गौर किया कि प्रदीप जब कभी बाहर से भीतर प्रवेश करता 'रम्पो' 'रम्मों' करके चिल्लाता और उसकी कर्कश आवाज तथा विचित्र-सा सम्बोधन सबका ध्यान आकर्षित करता। हालाँकि यह साफ़ था कि वह अपनी पत्नी को ही पुकारता पर जाने किस धुन में मैं पूछ बैठा था-"भाई साहब! आप 'रम्मो' 'रम्मो' क्यों रटते रहते हैं ? क्या आप राम जी यानि भगवान् श्री राम को संकट में याद कर रहे हैं ?" पूछने की देर नहीं कि वह मेरे ऊपर बरस पड़ा-"आपको क्या प्रॉब्लम ? प्रॉब्लम हो तो ले जाइए ना अपनी बीबी को किसी प्राइवेट रूप में, किसने रोका है ? इस रूम के लिए मैं भी उतना ही रुपया देता हूँ जितना आप देते हैं, समझे!"

प्रदीप को गरम होते देख मैंने कहा 'सॉरी' मगर उसके बावजूद उसने मुझे इतनी खरी-खोटी सुनायी कि कमरे में शान्ति बहाल करने के लिए मैंने माफ़ी माँग ली। चूँकि हम दोनों की समस्याएँ एक जैसी थी और हम दोनों एक ही उम्र के थे हम दोनों में शीघ्र ही मित्रता हो गयी।

जिस समय हम दोनों की पत्नियों को डिलेवरी रूम के बगलवाले हॉल में ले जाया गया हम दोनों अस्पताल के बाहर एक चाय की दुकान पर आकर बैठ गये! हम दोनों में तरह-तरह की बातें होने लगीं। अपनी पत्नी को प्रदीप 'रम्मो' कह के क्यों पुकारता इसका बखान करते हुए उसने लम्बी-चौड़ी कहानी सुनायी- "जब मैं हाई स्कूल का स्टुडेण्ट था तब हमारी शादी हुई थी... .."
 बात काटकर मैंने पूछा- "क्या ? इतनी कम उम्र में ?” 
प्रदीप ने सहजता से उत्तर दिया- "गाँवों में खाने-पीने की तो कमी नहीं रहती, बड़े बुज़ुर्गों का हड़कम्प रहता है, वे लोग पुराने ख़्याल के हैं. बात सुनिए !....... पिछले छह वर्षों में मेरी पत्नी ने चार बेटियों को जन्म दिया है, लड़कियाँ ......हाँ रम्मो की ही लड़कियाँ होने के कारण मेरे परिवार, गाँव, बिरादरी में हम पति-पत्नी की कोई कदर नहीं है, मेरे माता-पिता उससे नफ़रत करते हैं, बात-बेबात मेरी बेटियों पर बरसते, दुर दुर करते, मेरी बेटियों के सामने मेरे भाइयों के बेटों को गोद में खिलाते, दुलार देते....... भाईयों की पत्नियों को प्यार से पुकारते, उनके लिए 'रामू की माँ', 'बबलू की माँ, 'चन्दा की माँ' कह के औरों से परिचय करवाते पर मेरी पत्नी के लिए कहते 'इ प्रदीपवा की औरत बा' ..एक बार का एक अजीब किस्सा सुनाऊँ। मैं अपनी पत्नी के साथ साल साहब के घर पहुँचा तो पता चला कि सलहज अस्पताल में भर्ती है और उसकी डिलेवरी हुई है। मैंने जब पूछा लड़का जन्मा या लड़की तो वह मुँह बनाकर बोले "क्या बताऊँ शर्म के मारे मेरा सिर झुका जा रहा है, नाक कट गयी है, मुँह दिखाने लायक नहीं रह गया हूँ।" 
मैं घबरा गया, सोचा शायद हिजड़ा जन्मा है. .. काफ़ी देर बाद जब वह बोले "लड़की हुई है" तो मुझे बेहद क्रोध आया फिर भी खुद को संयत रखकर बोला "इसमें शर्म की क्या बात है आपके दो बेटे हैं ही,अच्छा हुआ बेटी हुई है।" फिर जब हम अस्पताल पहुँचे तो देखा सलहज ने बेटे को जन्म दिया है.. ....... आप ही बताइए उन्होंने मुझे क्यों जलील किया ? घर तो घर, मेरे यार-दोस्त मुझे ताना मारते हैं, अक्सर वे कहते हैं- "हमनि शरेन बा शेर, हमनि तीन-तीन लइका बा, इ सरवा लोमड़ी बा"......... आप ही बताइए अगर मैं लड़के का बाप नहीं बन पाया तो इसमें मेरा क्या क्या क़सूर ? इस बात को सभी जानते हैं लड़का अपने हाथ में नहीं है पर पता नहीं क्यों कोसने में और बेइज़्ज़त करने में कोई पीछे नहीं रहता। गाँव में तो चलिए या तो लोग थोड़ा-बहुत पढ़े-लिखे हैं या अशिक्षित हैं मगर शहरों में भी ऐसी ओछी बातें हुआ करती हैं, जाने कब लोग सुधरेंगे ?"

बात करते-करते प्रदीप भावुक हो उठा। थोड़ी देर चुप रहने के बाद उसने यकीन के साथ कहा- "मगर इस बार मैं लोमड़ी से शेर बन जाऊँगा।” मैंने पूछा- "कैसे पता ? अल्ट्रासाउण्ड करवाया था क्या ?"

उसने जवाब दिया- "नहीं, उससे बच्चे को ख़तरा रहता है, ज्योतिषियों ने मेरी और पत्नी की कुण्डली देखी है, यह देखिए मैंने तीन-तीन नग पहन रखे हैं, पत्नी ने नीलम पहना है, नगों को पहनने के लिए मैंने कोऑपरेटिव से कर्जा लिया था, इस बार लड़का ही होगा........मेरी पत्नी का नाम है रामकली, इधर कुछ दिनों से उसे मैं 'रम्मो' कहने लगा हूँ।" मुझे हँसी आ गयी। मैंने पूछा “उछलने लगा है क्या ?"

अचानक मेरे मन के भीतर का चोर भयभीत हो उठा, बेटे की तमन्ना प्रदीप से कम नहीं थी, प्रदीप को तसल्ली देते हुए मैंने कहा- "इस बार आपकी पत्नी को पुत्र लाभ होगा, मेरा मन बोल रहा है. .. पिछली मर्तबा जब मेरी पत्नी यहाँ आयी थी मैं एकदम निश्चिन्त था कि लड़का जन्मेगा, उसकी सेहत देखकर सभी औरतों ने कहा था लड़का होगा मगर लड़की जन्मी, इस बार फिर औरतों ने जोर देकर कहा है लड़का ही होगा, मैं भी उम्मीद लगाए बैठा हूँ, सुबह-शाम ऊपरवाले से प्रार्थना करता हूँ, अब देखिए क्या होता है ?"

और ठीक उसी वक़्त मेरे एक परिचित ने ख़बर दी "आज गुरुवार दोपहर को लक्ष्मी आयी है, बधाई हो!” "धन्यवाद" मैंने मुस्कुराकर कहा और अपनी नाखुशी को चेहरे पर प्रकट नहीं होने दिया।

मैं अस्पताल के भीतर पहुँचा। थोड़ी देर बाद जब लेडी डॉक्टर बाहर निकली मैंने उनसे अनुरोध किया- "डॉक्टर साहब! अभी लगे हाथ नसबन्दी का ऑपरेशन भी कर दीजिये, सुविधा होगी।" डॉक्टर ने उत्तर दिया-"अभी तो दो ही सन्तान है, दोनों ही लड़की,सोच लीजिए, जल्दी क्या है, सोच समझकर निर्णय लीजियेगा, बाद में अफ़सोस न हो।" -
“मैंने सोच लिया, सोच-समझकर निर्णय लिया है, हमने पहले से ही सोच रखा था लड़का हो या लड़की दो के बाद नहीं," मैने कहा । डॉक्टर ने फिर कहा-"देखिए बाद में पछत न हो, पत्नी से मशवरा कर लीजियेगा, दोनों की सहमति होनी चाहिये।" 
मैंने कहा-"यह निर्णय हम दोनों का है, लड़के की चाहत सभी को रहती है, मुझे भी है, आखिर मैं भी हाड़-माँस का हूँ, मेरी पत्नी की इच्छा तो मुझसे भी प्रबल है मगर मन की हर मुराद पूरी कहाँ होती। बेटे के चक्कर में परिवार बढ़ाकर हम अपना कष्ट नहीं बढ़ाना चाहते वैसे भी आजकल बेटी और बेटे में ख़ास फ़र्क नहीं रह गया है, योग्य बेटी बेटा समान होती हैं, बस आप हमें आशीर्वाद दीजिये हमारी बेटियाँ आप जैसी काबिल हो।"

थोड़ी देर बाद रामकली को डिलेवरी रूम के भीतर ले जाया गया, प्रदीप बरामदे के एक कोने फर्श पर बैठा था। भय, चिन्ता, उम्मीद तमाम भावनाएँ उसके चेहरे पर एक साथ दिखने लगीं। उसकी व्याकुलता देखकर मुझे दया आ रही थी और साथ-साथ क्रोध का कारण भी था। रामकली ने अपना दुखड़ा मेरी पत्नी को सुनाया था। अपनी विवशता के लिए रामकली प्रदीप को दोषी मानती।

रामकली जब मात्र चौदह बरस की थी तभी उसे दुल्हन बना दिया गया था। उस समय वह अपनी साड़ी भी नहीं संभाल पाती थी। दो बरस बाद उसका गौना हो गया था। जब वह पहली मर्तबा गर्भवती हुई थी उसकी सास खुश थी, उससे कोई काम नहीं लेती, आये दिन उसके मनपसन्द व्यंजन पकाकर खिलाती रामकली ने कहा था पहली गोदभराई के अवसर पर खूब धूम मची थी, घर में उत्सव जैसा माहौल था, सास ने अपने हाथों से कंगन पहनाया था, ससुर ने गले का हार भेंट किया था, घर पर लेडीज संगीत हुआ था, महिलाओं ने खूब चुहल लिया था, मंगल कामनाएँ की थीं, कईयों ने उसकी कलाई पकड़कर माथा चूमा था, सबों ने बेटे की कामना की थी। उस समय उसे लगा था वाकई में जिन्दगी बहुत ख़ूबसूरत है। शायद जिन्दगी का सबसे हसीन लम्हा वह होगा जब उसकी कोख में पल रहा शिशु भूमिष्ट होगा। मगर बेटी के जन्मते ही उसका सारा सपना चूर हो गया था, सुख गुम हो गया था, जिन्दगी में अजीब-सी नीरवता छा गयी थी। बेटी और बेटे का फ़र्क सामने आ गया था।"

रामकली ने कहा कि पहली कन्या घुटनों के बल उठी भी न थी कि वह दुबारा गर्भवती हो गयी थी। उसके सास, ससुर और पति को दुबारा आँगन में लड़का नज़र आने लगा था, सभी लोग उसका ख्याल रखने लगे किन्तु लड़की के जन्म के बाद फिर मायूसी छा गयी थी और उसके बाद तो उसकी जिन्दगी जानवर से भी बदतर हो गयी थी। सन्तान को जन्म देना और उसे भगवान् के भरोसे छोड़ देना, शायद जानवर भी बेहतर होते हैं, कम से कम नर और मादा का भेद तो नहीं जानते। तीसरी कन्या के जन्म के बाद उसके साथ वैसा सलूक होने लगा मानो उसने कोई कत्ल किया हो। सौरी भी समाप्त न हुई थी कि उसे घर का सारा काम-काज सँभालना पड़ा था। नवजात शिशु पाखाना करके पूरे बदन में मैल लगाकर पड़ी रहती पर कोई झाँकने नहीं जाता। पति की बेरुखाई की भी सीमा न थी। कारण-अकारण झगड़ा करता, बच्चों को मारता यहाँ तक कि रामकली पर भी हाथ चला देता। लड़का न होने के कारण वह रामकली को ही कोसता और प्रायः कहता "तोर माई को चार-चार लौडियों के बाद लौड़ा मिला रहा तोहर इत्ता जल्दी लौंडा कहाँ से होई, बच्चा तू पैदा करत है तोहरे में कमी है।" रामकली ने कहा था जब चौथी बार उसने प्रदीप से गर्भपात की बात कही थी तव प्रदीप ने नाराज होकर कहा था "औरतन का काम है बच्चा पैदा करना एमे परेशानी का कौन बात है, समाज मा अभिन हम मुँह दिखाई लाइक नहीं भये हैं।" और जब प्रदीप ने रामकली के गर्भपात कराने की इच्छा की बात अपनी माँ से कही तो रामकली की सास इतनी बिगड़ गयी कि उसने अपने बेटे की दूसरी शादी कर देने की धमकी दे डाली।

एकाध घण्टे बाद पता चला कि रामकली ने लड़की को जन्म दिया है लेकिन उसकी हालत खराब है, खून और दवाइयों की जरूरत है। सुनने में आया की प्रदीप को ढूँढ़ाई हो रही है। नर्स ने मुझसे प्रदीप के बारे में पूछा, उसने यह भी सूचित किया कि कुछ समय पहले तक प्रदीप बरामदे में ही बैठा हुआ था, उसे बेटी होने की खबर भी दी गयी थी। मैं प्रदीप की खोज में निकला। अस्पताल परिसर और उसके इर्द-गिर्द वह नहीं दिखायी पड़ा।

सहमी, सकपकायी रामकली की आँखों से आँसू बहने लगे। उत्पीड़न और यन्त्रणा ने उसे समय से पहले ही बूढ़ा बना दिया था, अब उसे डर लगने लगा कि आगे आनेवाले दिन और बुरे होंगे। रामकली ने दबी जुबान से कहा-"मेमसाहब! हमार सास हमका मार डाली, हमार मरद दूसर ब्याह कर लेई, आप हमार जान लै लै हमका घर न भेजे.... ." रामकली बुदबुदाती रही, उसकी आवाज अस्पष्ट, क्षीण होती गयी। फाटक के पास जाकर डॉक्टर ने आवाज लगायी "मिस्टर प्रदीप मिस्टर प्रदीप "

'....... रामकली के साथ कौन है ? कौन है रामकली के साथ ?" 
 उत्तर न पाकर डॉक्टर ने रामकली को उसी के हाल पर छोड़ दिया, और अपने कक्ष में चली गयी।

प्रदीप की 'रम्मी' फिर से रामकली बन गयी। वह किसी की बेटी थी, पत्नी, बुआ, भाभी, मौसी, चाची, ताई और न जाने क्या-क्या थी मगर अब उसकी हालत ट्रक में दबी सड़कछाप जानवर जैसी हो गयी थी। पूरी ताकत के साथ उसने चीखा। उसका दर्द अस्पताल की दीवारों ने दर्ज किया, बिस्तर के सफेद चादर ने अबला के शेष बचे खून को मानचित्र बनने दिया.....माँ से लिपटी भूमिष्ट शिशु अपना रोष प्रकट करने लगी, बच्ची ने मुट्ठियाँ भींच ली और भारतनुमा मानचित्र में दाग बनकर वह मृत शिशु सबका ध्यान आकृष्ट करने लगी।

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
( "कहानी की तलाश" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2006)

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