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Monday, September 5, 2022

कहानी: मेरे दोस्त की माँ



मुझे अपने बचपन के दोस्त सोनू की माँ देविकाजी का एक पत्र प्राप्त हुआ। अप्रत्याशित उस पत्र को पाकर मैं अचम्भित हुआ। जितनी मेहनत से वह लिखा गया था शायद उससे अधिक मेहनत करके मैं उसे पढ़ सका। उन्होंने लिखा- 'मेरा जीवन कुछ लम्बा खींच रहा है। अस्सी के क़रीब आ पहुँची हूँ। देह ने कब का मेरा साथ छोड़ दिया है। जीने का कोई प्रयोजन भी नहीं रह गया है, फिर भी साँसें चल रही हैं। पता नहीं ईश्वर की क्या इच्छा! तुम्हें देखने, तुमसे दो बातें करने की प्रबल इच्छा मन में रह गयी है...अब शायद यह सम्भव नहीं है,... मैंने तुमसे एक सच क्या कह दिया, तुम तो ऐसे रूठे कि मैं बार-बार बुलवाती रह गयी किंतु तुम पलट कर अपनी 'मानी' के पास नहीं आये... कितनी जल्दी तुम भूल गए कि सोनू के साथ-साथ मैंने तुम्हें कितना दुलार दिया था।'

दोस्त की माँ के करूणा भरे शब्दों ने मेरे हृदय को झकझोर कर रख दिया। दोस्त के साथ बिताए हुए बचपन के सात-आठ वर्ष मेरी आँखों के सामने एकाएक उमड़-घुमड़ कर नाचने लगे और उन वर्षों में दोस्त की माँ से जो स्नेह मुझे मिला था उसे याद कर मैं पुलकित हो उठा।

बचपन की बात है। मेरे घर के सामने एक पार्क था जहाँ हम खेला करते थे और पार्क के दूसरे छोर पर मेरे दोस्त का आवास था। मैं सात-आठ वर्ष का था। मेरा दोस्त भी उसी उम्र का रहा होगा। एक ही क्लास में पढ़ने के कारण हम दोनों में सहजता से दोस्ती हो गयी थी। प्रायः रोज ही पार्क में खेलने के बाद मैं उसके साथ उसके घर पहुँच जाता। मेरा दोस्त हाथ-पैर धोकर नाश्ता किया करता । शुरू-शुरू में उसकी माँ मुझसे नाश्ते के लिए पूछा करती और मैं नाश्ते में क्या है देखकर कभी हाँ कभी ना कहा करता बाद में वह बिना पूछे ही हम दोनों के लिए नाश्ता लगाने लगी।

अक्सर वह मुझसे पूछा करती घर में आज क्या खाया? भरपेट खाना खाया या नहीं? माँ ने तुझे दूध दिया या नहीं? तुम्हारी माँ तुम्हें स्कूल के लिए तैयार करती है या तुम खुद तैयार होते हो? इत्यादि। उसकी बातें कदाचित मुझे अटपटा लगती, उत्तर देने का मन नहीं करता, किंतु अनमने भाव से सही उत्तर दे दिया करता। फल, दूध, खीर जो कुछ भी मेरे दोस्त को वह देती मुझे भी देती। बात-बात पर कहती 'तू कितना दुबला है घर में भरपेट खाना खाया कर। 

दोस्त की मां से मिले स्नेह के कारण में स्वाभाविक ढंग से उसकी ओर खींचता चला गया। मुझे लगने लगा कि मेरे दोस्त की माँ मुझे जितना प्यार करती, मेरा जितना ख्याल रखती शायद उतना प्यार मेरी माँ मुझसे नहीं करती। दोस्त के साथ जो गहरी दोस्ती थी सो अपनी जगह पर उसकी माँ का प्यार मेरे लिए इतना माने रखने लगा कि मुझे हमेशा मौके की तलाश रहती कब किस बहाने उसके घर पहुँच जाऊँ कभी-कभार छुट्टियों के दिन में उसकी माँ की गोद में सिर रखकर सो जाता। कदाचित वह मेरे साथ लुडो-कैरम भी खेला करती। मेरा दोस्त अपनी माँ को 'मानी' कहके पुकारता। उसका यह सम्बोधन और उसकी माँ का स्नेह मुझे इतना भाया कि चाची सम्बोधन त्याग कर मैं भी 'मानी' कहने लगा था।

जब मेरी माँ को 'मानी' के साथ जुड़े रिश्ते का पता चला मेरी माँ मुझसे बेहद खफा हो गयी। चाची न कहके 'मानी' कहने के कारण माँ ने मुझसे कान पकड़कर उठक-बैठक करवाया था और मुझसे वचन लिया था कि आइंदा मैं 'मानी' नहीं कहूँगा, दोस्त के घर बिना काम के नहीं जाऊँगा।

मेरी माँ मुझ पर निगरानी रखने लगी। मैं कब दोस्त के घर गया, किस काम से गया, कितनी देर रुका, क्या खाया सारी कैफियत लेने लगी। मैं माँ से डरने लगा। दोस्त के घर आना-जाना कम कर दिया। माँ से झूठ भी बोलने लगा।

जब में हाईस्कूल में था और इम्तहान की तैयारी में दिनरात मेहनत कर रहा था, मेरे साथ एक हृदय विदारक घटना घटी। मेरे दोस्त की माँ ने किसी बात पर कहा 'तेरी माँ तेरी सौतेली माँ है इस कारण से वह तेरा ख्याल नहीं रखती। तभी तू दुबला-पतला है, पढ़ाई में कमजोर है, अव्वल नहीं आ पाता। देख मेरा सोनू तंदुरुस्त है, पढ़ाई में अव्वल है।"

सौतेली माँ होने की जानकारी मेरे लिए नयी थी और इस जानकारी से मैं अत्यंत मर्माहत हुआ। उसकी बात को मानने के लिए मेरा मन प्रस्तुत नहीं था, मगर दिमाग ने कहा वह मुझे इतना प्यार करती है, मुझसे झूठ नहीं बोल सकती। अक्सर पढ़ाई से मेरा ध्यान उचट जाता, में ऊलजलूल बातें सोचने लगता। एक अजीब सा डर मेरे मन में घर कर गया। मेरे बदले हुए आचरण को देख कर मेरी माँ ने एक दिन मेरी उदासी का कारण जानना चाहा। वह मेरे पीछे पड़ गयी, तरह-तरह से बहला-फुसला कर बात उगलवा ली। फिर अचानक वह गम्भीर हो गई। उसकी आँखें छलछला गयी। वह बोली 'तब तू दो महीने का था और फिर मुझे छाती से लिपट कर फूट-फूट कर रोने लगी।

माँ को रोते देख मेरे हाथ-पैर घरबराने लगे। मैंने खुद को गुनहगार समझा। माँ ने तो कई-कई बार दोस्त के घर जाने से मना किया था। अब में खामखाह इस बात से परेशान रहने लगा कि वह मेरी सगी माँ नहीं है। किंतु बहुत शीघ्र ही मैंने खुद को सम्भाल लिया।

मुझे अपनी माँ की जरूरत थी। उसके प्यार की भी जरूरत थी। वह जैसी भी थी, मेरी माँ थी। अगर दोस्त की माँ ने जबरीयन मेरी माँ की कमी न दिखायी होती तो सब कुछ ठीक ही तो था जितनी देखभाल एक माँ अपनी संतान की किया करती है उतनी ही देखभाल मेरी माँ भी तो किया करती।

मुझे मेरे दोस्त की माँ पर बड़ा क्रोध आया। क्या ज़रूरत थी उस औरत को मेरे दिल को ठेस पहुँचाने की। जब तक किसी बच्चे पर उसके माता-पिता के द्वारा अत्याचार नहीं किया जाता तब तक कोई भी बच्चा उनके प्यार के बारे में मन में संशय नहीं लाता। बच्चा यही जानता कि माता-पिता उसे बेहद प्यार करते हैं। अपने दोस्त की माँ से मेरा मोहभंग हो गया। मैंने दोस्त के घर जाना छोड़ दिया।

कई-कई बार उसने मुझे बुलवाया था मगर मैं नहीं गया था। एक दिन किसी दुकान पर उसने पीछे से आकर मेरा हाथ पकड़ कर पूछा था 'क्यों रे तूने घर क्यों आना बंद कर दिया?' मैंने अपना हाथ छुड़ाकर कहा था 'तुम मेरी मानी नहीं हो, तुम मेरे दोस्त की माँ हो फिर में दौड़कर भाग गया था। मगर इसके बावजूद सोनू और मेरी दोस्ती में कोई दरार नहीं आयी थी। हम दोनों घर के बाहर मिलते, स्कूल में मिलते। मैंने उससे कह दिया था कि मेरे माता-पिता ने मुझे किसी भी दोस्त के घर जाने से मना किया है।

थोड़े दिनों के बाद हमारी दोस्ती में अपने-आप दूरी बढ़ गयी। सोनू ने इंटर में साइंस ले लिया और मैंने आर्टस माँ के दबाव में पिता जी ने दूसरे मोहल्ले में किराये का मकान से लिया था।

मेरी माँ की मौत के कुछ दिनों के बाद मेरे दफ्तर में मेरे बचपन के दोस्त सोनू का फोन आया था। इस बीच पैंतीस वर्ष बीत चुके थे। अचानक आये फोन से मैं समझ न पाता कि वह कौन है अगर उसने मुझे बचपन की याद न दिलायी होती।

मेरी मां की मृत्यु की खबर पाकर शोक व्यक्त करने के लिए उसने फोन किया था। मुझसे हाल-चाल पूछा था। मैंने भी हाल-चाल पूछा तो उसने बताया कि उसके पिता ने तार विभाग से रिटायर होकर कोलकाता में एक फ्लैट खरीद लिया था और वहीं उसके माता-पिता बस गये थे। वह बैंगलोर में किसी कम्पनी में वाइस प्रेसिडेंट के पद पर काम कर रहा था।

फोन पाकर में गदगद हो गया था। मैंने सोचा इतना बड़ा आदमी हो गया मेरा दोस्त, इतना धनवान मगर ज़रा सा नहीं बदला, अभी भी कितना सीधा, कितना सरल। मुझ जैसे सामान्य आदमी, वह भी बचपन के साथी को कौन याद रखता।

मुझे अपने बचपन के दोस्त पर नाज़ होने लगा। गरीब पिता के सपने को साकार किया उसने !

सोनू के पिता को मोहल्ले वाले 'तारबाबू' के नाम से जानते। तार विभाग में तार भेजने का काम किया करते थे। एक बेटा, एक बेटी। छोटा सा वेतन, मकान का किराया, बेटी की पढ़ाई, उसकी शादी, बेटे को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाना, कोचिंग दिलाना, फिर चार वर्ष आई०आई०टी०, दिल्ली के होस्टल में रखकर इंजीनियरिंग पढ़ाना किसी बाबू के लिए असम्भव को सम्भव करना ही है।

जाड़ा, गर्मी, बरसात हर मौसम की मार सहकर सायकिल से रोजाना आठ-आठ किलोमीटर चलकर आठ घंटा ड्यूटी बजाना... आधी-आधी रात जब सड़क पर कुत्ते भोंकते, कभी ओवरकोट तो कभी रेनकोट पहनकर सायकिल चलाकर घर से रवाना होना, घर लौटना...मौका पाते ही दो पैसे के लिए ओवरटाइम या किसी वकील का टाइप का काम लपक लेना, कितना कठिन है, यह तो कोई कल्पना ही कर सकता है। मगर 'तारबाबू' ने बेटे की खातिर सब कुछ हंसते-मुस्कराते किया।

तारबाबू ने तब जाकर आराम की साँसें ली जब उनका बेटा इंजीनियर बनकर कोलकाता में 'इछापुर गन फैक्ट्री' में नौकरी पा ली। तारवायू कब रिटायर हुए, कब शहर छोड़ दिए मुझे ख़बर न थी, मुझे तभी पता चला जब उनके बेटे का फोन आया।

वैसे मेरे पिता जी ने एक बार कहा था कि उन्होंने किसी से सुना है बेटे के साथ रहने के लिए तार बाबू कोलकाता चले गये हैं। *

देविकाजी ने अपने पत्र में मेरी माँ के बारे में जो कुछ लिखा है उससे एक बार फिर मेरा मन आहत हुआ है। देविकाजी ने लिखा है-'यह जानकर अच्छा लगा कि तुमने अपनी सौतेली माँ की सेवा की थी। पाँच साल तक अपाहिज सौतेली माँ की सेवा करना मामूली बात नहीं है। वह भाग्यवती थी जो तुम जैसा बेटा उसे मिला था। तुम्हें कितना चाहती थी, तुम्हारा कितना ख्याल रखा करती थी यह तो हमसे छिपा नहीं है। भगवान तुम्हारा भला करेगा।' देविकाजी! आपको मैं नहीं समझा सकता मेरी माँ मेरे लिए क्या मायने रखती थी। माँ के गुजरे हुए दस वर्ष से अधिक हो चुके हैं मगर इस बीच शायद ही कोई दिन ऐसा बीता होगा जब मुझे उसकी याद न आयी हो।

जीवन भी कितना अजीब है। जब मेरी माँ ने एकदम से बिस्तर पकड़ लिया था बिस्तर पर बार-बार मलमूत्र त्याग कर लाश जैसी पड़ी रहती, बार-बार अच्छी तरह से सफाई के बावजूद पूरे फ्लैट में बदबू फैली रहती, जब मैं हमेशा अपनी नाक और हाथों में बदबू महसूस किया करता तब में कहा करता 'उसकी हालत मुझसे देखी नहीं जा रही है उसे मुक्ति मिल जाए तो अच्छा।... और माँ भी मुझे देख प्रायः रूसी होकर कहा करती 'हे भगवान अब मुझे ले लो, ले लो मुझे, मैंने अगर अनजाने कोई पाप किया हो उसकी सजा मेरे गोपाल को क्यों दे रहे हो.... और आज जब मेरी माँ नहीं रही मुझे अनवरत उनकी अनुपस्थिति का आभास होता है। उसके न रहने पर ही मैं जान सका कि वह मेरी ताकत थी। माँ के देहवसान से चौबीस घंटे पहले की घटना याद कर मैं अभिभूत हो उठता हूँ। रात का समय था। मैंने माँ के कमरे में कदम रखा था कि अचानक उसने पुकारा 'गोपाल' में चौका। उसने मुझे मेरे नाम से सालों से नहीं बुलाया था। शायद हमेशा उसके निकट रहने के कारण कभी जरूरत न पड़ी हो। मैं चकित होकर उसे देखने लगा। उसने धीरे से कहा 'इधर आओ! पास आओ!' मैं पलंग के पास जाकर खड़ा हो गया। माँ ने इशारे से हाथ बढ़ाने को कहा। मैंने अपना हाथ बढ़ा दिया। उसने दोनों हाथों से मेरी दाँयी कलाई पकड़ ली। मैंने पूछा कुछ चाहिए? कुछ कहना है?' उसने सिर हिलाया। वह एकटक मुझे देखे जा रही थी फिर उसकी आँखे वा आयी। मेरा कलेजा धड़कने लगा। मुझे लगा माँ अपने पचास वर्ष के बेटे को नहीं बल्कि अपने पाँच साल के लड्डू गोपाल को देख रही है। फिर अचानक उसने हाथ छोड़ दिया और अपना मुँह फेर लिया। उसके बाद माँ अर्द्धचेतन अवस्था में चली गयी ज्ञानशून्य इन्द्रियों निष्क्रिय होती चली गयी। न बोल पायी, न सुन पायी और न ही किसी को पहचान पायी प्राण त्याग करने में चौबीस घंटे लगे थे। उस चौबीस घंटे ने मुझे अहसास दिला दिया था कि मैं क्या खोने जा रहा था।

देविकाजी ! क्या आप मुझे बता सकती हैं कि माँ की ममता का पैमाना क्या है? ममता की पराकाष्ठा क्या होती हैं? देविकाजी! तब भी आप गलत थी और आज भी आप गलत हैं। जब मैं नादान, नासमझ था मेरी माँ नहीं चाहती थी कि मैं दूसरों के घर जाऊँ ताकि कोई भी सामाजिक प्राणी मेरे कोमल मन में जहर न घोल दे।

मेरे दोस्त की माँ ने पत्र में जानकारी दी कि दोस्त के पिता यानि 'तारबाबू' का निधन मेरी माँ के निधन के थोड़े दिनों के बाद हुआ था। पत्र से पता चला कि रिटायरमेंट के बाद तारवावू अपना पुराना शहर, पुराने दोस्तों को छोड़कर कोलकाता में अत्यंत अकेला महसूस करने लगे थे। न बेटा पास, न पोता-पोती, न यार-दोस्त और न ही कोई रिश्तेदार एकाकीपन के कारण उन्हें डिप्रेशन हो गया था। डिप्रेशन ने उन्हें इस कदर दबोच लिया था कि वे अपनी याददाश्त खो बैठे थे। न लिख-पढ़ पाते थे न ही बोल पाते थे। रोग के कारण का पता न चल पाने से सही इलाज नहीं हो सका था। मनोरोगी चिकित्सकों का कहना था कि उनके मन के भीतर कोई गहरा घाव था। उस घाव के कारण का पता लगाना मुश्किल था क्योंकि अब वे बोल नहीं सकते थे... जबकि उनका बाकी सब ठीक था। दाढ़ी खुद ही बना लेते, सिगरेट पीते, कपड़े पहनते, भोजन भी तबियत से करते... 'आखिरकार वह प्रसन्नचित गौरवान्वित पिता बिना कुछ बोले एकदिन हमें अकेला छोड़ चले गये...उनका अंत इतने बुरे ढंग से होगा, मैंने कभी नहीं सोचा था।

देविकाजी ने बड़े दम्भ के साथ लिखा 'मेरे पति का जितना बड़ा सपना था, मेरा सोनू उससे भी ज्यादा बड़ा बन गया है। कोलकाता में उसने मकान खरीदा, बेंगलोर में भी फ्लैट खरीदा है, अपने बेटे को लंदन से एम०बी०ए० कराया, अब वह न्यूयार्क में बड़ी नौकरी कर रहा है। उसकी बेटी भी बहुत पढ़ी-लिखी है। बहुत बड़े घर में उसकी शादी हुई है, उसके पति का बड़ा कारोवार है.... मेरा सोनू फ़्रांस की एक पर्फ्यूम कम्पनी का सर्वेसर्वा है, कम्पनी में चार आने की भागीदारी है। मेरी बहू ने भी खुद को एनगेज रखा है। उसकी एक ज्वैलरी शॉप है।'

और पत्र के अंत में उन्होंने लिखा था 'कभी कोलकाता आना हुआ तो मुझसे ज़रूर मिलना। ईश्वर तुम्हारा भला करें इस माँ का आशीर्वाद लेना...इति मानी।' 

पत्र पढ़ने के बाद मैंने यह सोचकर रख दिया था कि कभी फुरसत से उत्तर दूंगा। एकदिन जब उत्तर देने का मन बनाया तो देखा पत्र में घर का पता नहीं है। एक लैंड फोन का नम्बर है। लिफाफे के पीछे लगे मुहर से पता चला कि पत्र कोलकाता से आया था। मैंने फोन लगाया

-'हैलो!'

-'देविकाजी से बात करना चाहता हूँ।'

आप कौन ? आप उनके क्या लगते हैं? कहाँ से बोल रहे हैं?" मैं उनके बेटे का दोस्त हूँ। इलाहाबाद से उनसे कहिए गोपाल का फोन है।'

'आपका दोस्त कहाँ गायब हो गया है?" 'क्या मतलब यह देविकाजी का घर नहीं है क्या? कहाँ लग गया...?

ठीक ही लगा है। आपके दोस्त का पता, फोन नम्बर कुछ भी नहीं है हमारे पास। पहले तो कभी-कभार फोन आ जाया करता था, इधर बहुत दिनों से फोन भी नहीं आया। देविकाजी हमारे यहाँ लगभग दस वर्ष थी लेकिन अब वे...'

-अब, ये... कहाँ चली गयी? कहाँ रहती है?

- पिछले महीने उनका देहांत हो गया। बेटे को ख़बर भी नहीं दी जा सकी थी।' - क्या मैं जान सकता हूँ कि मैं किससे बात कर रहा हूँ?

- "हरिदास कुण्डु, मैंनेजर, हावड़ा जन कल्याण समिति 'वृद्धाश्रम'।


© सुभाष चंद्र गाँगुली 
( "कहानी की तलाश" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2006)
** उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान की पत्रिका 'साहित्य भारती' में 2011 प्रकाशित।

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