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Tuesday, September 13, 2022

कहानी: दूसरी रामकली



रामकली की मौत के बाद चार-चार बेटियों को लेकर प्रदीप अजीब मुसीबत में फँस गया। उसकी माँ बूढ़ी हो चुकी थीं, अस्वस्थ भी रहतीं, उनसे अब कुछ भी नहीं होता। भाभियों ने कहा कि वे अपनी-अपनी गृहस्थी से ही फुरसत नहीं पातीं उसके बच्चों को कैसे सँभालेगी। प्रदीप बच्चों को लेकर अपनी ससुराल पहुँचा तो रामकली की विधवा माँ ने 'रामकली का हत्यारा' कह के मुँह पर दरवाज़ा बन्द कर दिया।

प्रदीप के घरवाले रामकली की तेरही समाप्त होने से पहले ही लड़की की तलाश में लग गये थे मगर रामकली की व्यथा-कथा और अस्पताल से उसके फ़रार हो जाने की ख़बर किसी से छिपी नहीं रही। उसके उस क्रूर आचरण के कारण उसने सभी की हमदर्दी खो दी थी लिहाजा लड़की ढूँढ़ने के लिए एड़ी चोटी का पसीना एक करना पड़ा। दो-ढाई वर्ष तक प्रदीप की बूढ़ी माँ को बच्चों की देखरेख करनी पड़ी।

आख़िरकार प्रदीप का दूसरा विवाह तय हो गया। एक वृद्ध अपनी विधवा बेटी श्यामा को देने के लिए राजी हो गये। मगर श्याम को यह प्रस्ताव नागवार था । श्यामा अब बत्तीस वर्ष की हो चुकी थी। पन्द्रह वर्ष पहले उसकी शादी हुई थी मगर दुर्भाग्य से हफ़्ते भर बाद उसका पति ट्रक से दबकर चल बसा था।

ट्रकवाले को पकड़ लिया गया था, वह छूट भी गया था किन्तु श्यामा को कहीं से एक धेला नहीं मिला था। तभी से श्यामा अपने ग़रीब बाप के पास रहकर वीरान सी जिन्दगी बीता रही थी। एक छोटे-से स्कूल से श्यामा मात्र दो सौ रुपये पर आया। का काम करती, कभी-कभार शादी-ब्याह में बावर्ची के साथ पूड़ी बेलने का काम भी कर कुछ कमा लेती।

श्यामा अपनी हालात के साथ समझौता कर चुकी थी। दूसरी शादी के लिए वह हरगिज़ तैयार न थी और उसने कड़े शब्दों में अपनी आपत्ति व्यक्त की थी किन्तु उसके माता-पिता ने समझाया- “हम बूढ़े हो रहे हैं, हमारी मौत के बाद तुम्हें कौन देखेगा ?”

श्यामा ने कहा था अभी आप लोग कहाँ जा रहे हैं ? तब तक मैं बूढ़ी हो जाऊँगी ? पिता ने समझाया- "बेटी! जीवन का क्या भरोसा ? हम उल्टी गिनती गिन रहे हैं। कभी भी मर सकते हैं। हमारे मरने के बाद तुम्हारा क्या होगा ? कौन देखेगा ? वैसे भी तुम घर कहाँ बसा पायी ? दुबारा घर बसाने की कोशिश करो, वे लोग पैसेवाले हैं, सुखी रहोगी।"

श्यामा ने गिड़गिड़ाया- "बाबू जी हमें सजा मत दीजिए। चार-चार बेटियाँ संभालनी है। मुझसे नहीं होगा यह आदमी और उसके घरवाले ठीक लोग नहीं है। उन लोगों ने रामकली को मार डाला है, हमें भी मार डालेंगे। मुझे मेरे हाल पर छोड़ दीजिये।"

श्यामा की माँ बोली- "बेटी तू अब बच्ची नहीं है, समझदार भी है, स्कूल जाती है, दस पढ़े-लिखे लोगों के संग उठ-बैठ चुकी है, तू बुद्धि से काम लेना तू बेवा है, हम तेरी शादी न रचाते मगर हमारे बाद तुझे कौन देखेगा ? यह दुनिया बड़ी जालिम है, तू अकेली नहीं रह पायेंगी । तुझे सब नोंच-नोचकर खायेंगे, दर-दर ठोकर खायेगी।” 

आखिरकार, श्यामा को अपनी सहमति देनी पड़ी थी।

शादी के लगभग दो बरस बाद श्यामा की कोख में बीज अंकुरित होने लगा। किन्तु इस बार प्रदीप के घर की स्थिति भिन्न थी। इस सम्बन्ध में किसी की कोई दिलचस्पी नहीं थी जबकि श्यामा ने अनचाहे ही लोगों के सामने कई बार उल्टी भी की थी। 

प्रदीप की माँ को इस बीच फालिज पड़ चुका था। वह हिलने-डुलने की स्थिति में नहीं रही। रौबीले पिता घर के एक कोने मसनद पर सीना चिपकाए फूलते साँस के दर्द को रोकने की कोशिश करते रामकली की बेटियाँ जो उनकी मदद में लगी रहती उन्हें प्रिय हो गयीं। उन्हें देख वे मुस्कुराते और सूखी हथेलियों को हिलाकर घड़ी-घड़ी आशीष देते।

रोगग्रस्त सास-ससुर के निकट बहुएँ अपने बेटों को नहीं जाने देतीं भूल से अगर कोई पोता उनके पास पहुँच जाता तो उसकी माँ चीख उठती- "कहना नहीं मानता कमीना, चमड़ी उधेड़ लूँगी तब समझेगा। कितनी बार समझाया कि वे लोग बीमार हैं तू बीमार पड़ जायेगा, बात नहीं मानता, आ तुरन्त आ।" और बेटा अगर अनसुनी कर देता तो उसकी माँ दनदनाती हुई कमरे में पहुँचती और बेटे को घसीटते घसीटते बिलबिलाती-"यह कैसा प्यार पोते का अगर भला चाहते हैं तो मत आने दीजिए अपने पास।"

घर में तीन बहू के तीन चूल्हे बन चुके थे। खेत चार भाई के नाम दो-दो बिसवा जमीन बँट चुकी थी और श्यामा के घर आने के दो दिन बाद श्यामा को चौका-चूल्हा थमा दिया गया था।

श्यामा की सन्तान संभावना से एक अकेला प्रदीप उत्साहित हो उठा। उसे फिर से आँगन में पुत्र दिखाई देने लगा। प्रदीप श्यामा के लिए साड़ी, सोने का झुमका और पायल खरीद लाया और उसे देते हुए अपनी खुशी का इजहार किया। श्थामा ने कहा "आपको फिजूलखर्ची नहीं करनी चाहिये हमारी चार-चार बेटियाँ है, उन्हें पढ़ाना लिखाना है, उनकी शादी करनी है, उनके लिए रुपये जोड़िये।"

प्रदीप आगबबूला हो गया- "ठीक से बात किया करो, लगता है तुम्हारी माँ ने तमीज नहीं सिखायी है, औरत हो औरत की तरह रहा करो। कहाँ तुम्हें खुश होना चाहिये, उल्टा बेतुकी बातें कर रही हो, बाप के घर में ऐसी साड़ी देखी भी न होगी और न ही तुम्हारे पहले पति ने ऐसा सामान दिया होगा। गँवारू जाहिल औरत! मिजाज खराब कर दिया, सारा मजा किरकिरा कर दिया।"

श्यामा ने उग्र रूप धारणकर लिया-"आपने मुझे रामकली समझ रखा है क्या? मैं श्यामा हूँ श्यामा। अपना भला-बुरा खुद तय करूंगी। अपनी गृहस्थी जैसा मैं चाहूँगी वैसा चलाऊँगी। मेरे साथ रहना हो तो ठीक से बर्ताव करियेगा वर्ना में घर छोड़कर चली जाऊँगी या अपने बदन में आग लगाकर जान दे दूँगी।"

प्रदीप ने अपना हाथ उठा लिया था मगर श्यामा की आँखों में खून उतरते देख वह सहम गया।

हफ़्ते भर बाद श्यामा चारों बेटियों को लेकर अपने मायके गयी। पन्द्रह दिन बाद जब वह लौटी तब प्रदीप ने उसे एक बड़ा सा गुड्डा भेंट किया। श्यामा ने अवाक् होकर पूछा- "इसे मुझे क्यों दे रहे हैं ?"

प्रदीप ने कहा- "बुद्ध ! जब तक पेट में बच्चा रहे इसे देखती रहना, मन प्रसन्न रहेगा और ऐसा ही गुड्डा जन्मेगा ।"

श्यामा ने गम्भीरता से उत्तर दिया-"मायके गयी थी वहीं मैंने दाई से अपनी सफाई करवा ली है। नसबन्दी करवा लीजिए, जब तक नहीं करवाते मैं गर्भ निरोधक लेती रहूँगी ले आयी हूँ।"

प्रदीप ने चीत्कार किया- "क्या ? मुझसे पूछे बगैर ? तेरी ये हिम्मत ?” और फिर उसने हाथ उठा लिया। श्यामा ने हाथ पकड़कर मुस्कुराकर कहा-"मैंने पहले ही आपसे कह दिया था मुझे रामकली मत समझियेगा। सुनिए! बेटे की आस में फिर अगर एक दो बेटियाँ आ जायें तो मुसीबतें बढ़ेंगी। बेटे और बेटी में आजकल कोई अन्तर नहीं है, बेटियाँ माँ-बाप का ख़्याल कम नहीं रखतीं और दूसरी बात मुझे भय है कि अपनी सन्तान को जन्म देने से मैं रामकली की बेटियों की सौतेली माँ बन जाऊँगी। इसलिए मैंने तय किया है कि मैं कभी भी सन्तान को जन्म नहीं दूँगी। अब आप जैसा कहिए, अगर आप कहें तो मैं घर छोड़कर ? ........"

थोड़ी देर खामोश रहने के बाद प्रदीप ने करुण मुस्कान के साथ श्यामा को गले लगा लिया। 

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
( "कहानी की तलाश" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2006)

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