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Tuesday, September 6, 2022

कहानी : लौटती धार


सुजाता के दिन अब फिरते हुए नज़र आने लगे। कुछ ही दिनों पहले उसकी शादी की बात पक्की हुई है। पहले मिहिर के माता-पिता ने देखा, कुण्डली मिलायी, फिर मिहिर, उसकी बहन और चाची ने देखा तथा तीसरी और अन्तिम बार मिहिर और उसके मित्रों ने जी भरकर देखा, फोटो खींचें, हँसी-ठिठोली की और जाते समय मिहिर ने स्वयं सुजाता और उसकी माँ से रिश्ता मंजूर है।" पुरोहित ने शुभ मुहूर्त्त देखा और अगले माघ यानी सात महीने बाद विवाह होना तय हुआ।

सुजाता के माता-पिता, भाई, छोटी बहन सभी बेहद खुश हैं। पूरे घर में उत्सव सा माहौल है। घर, आँगन, दालान सर्वत्र उत्सव की ख़ुशबू लहरा रही है। सुबह से रात तक सभी की जुबान पर सिर्फ़ शादी की बात, मिहिर की तारीफ़ और मिहिर से ज्यादा गुणगान सुजाता के, “जीजू सेर, तो हमारी दीदी सवा सेर....... हमसे सहेलियाँ पूछती हैं, दीदी को क्यों नहीं आगे बढ़ने दिया, कितनी तेज थीं, गाना-बजाना, खेलकूद, पढ़ाई लिखाई सब में अव्वल "....... "हमारी बेटी सुजाता क्या मिहिर से कम है? आपने उसे पढ़ने नहीं दिया, वर्ना अब तक वह किसी ऊँचे ओहदे पर होती। हमेशा फर्स्ट आयी है। कितनी अच्छी अंग्रेजी जानती है, बी० ए० में कितने नम्बर मिले थे..! भगवान् के घर देर है, अन्धेर नहीं । आख़रकार उसने अच्छा योग्य वर भेजा न!"....कल तक जो सुजाता सबकी आँखों की किरकिरी थी, आज वह आँखों की पुतली बन गयी।

सुजाता से अब घर का कोई भी काम नहीं लिया जाता है, उल्टा उसे आराम करने को कहा जाता है। कदाचित् छोटी बहन बिट्टू अगर उसे खाना परोसने या किसी काम में हाथ बँटाने बुलाती, तो उसकी माँ तत्काल कहतीं, "रहने दो, उसे मत तंग करो, मैं कर देती हूँ।"

-“अरे माँ, थोड़ा-बहुत काम करने से वह दुबली नहीं हो जाएगी, हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने से आलसी ही हो जाएगी।"

-"चुप कर तेरी दीदी इतनी मेहनती है, बहुत काम कर चुकी है। अब दो-चार दिन आराम कर लेने दे। ससुराल में तो काम ही काम, फुर्सत कहाँ मिल पाएगी, देख न हमें! कितने सारे लोग शादी में आएंगे, रंग-रूप ठीक रखना है......... चन्द दिनों की मेहमान है अब वह।"

पिता और भाई भी सिवाय पानी पिलाने के कोई आदेश नहीं देते।

 सुजाता को अपने घर पर अतिथि बने रहना बड़ा अजीब लगने लगा। इस अद्भुत अनूठे अनुभव को उसने सँजोए रखना चाहा और एक-एक दिन की घटना को, घर के सदस्यों की मीठी-मीठी बातों को, वह अपनी डायरी में दर्ज करने लगी।

सुजाता का आज का अनुभव उसके पिछले दो वर्षों के अनुभव के ठीक विपरीत है। सुबह उसकी आँख खुलती महरी के दस्तक देने पर दो-तीन आवाज़ के बाद अगर सुजाता ज़वाब नहीं देती, तो उधर से माँ की आवाज़ आती, "बुचिया, बुचिया !"

दरवाज़ा खोलकर भीतर आने की देर नहीं कि माँ का फ़रमान, "बुचिया! जल्दी से हाथ-मुँह धोकर पापा को चाय दे आ....... बबलू और बिट्टू को नींद से जगा उठ जायँ, तो चाय दे दे।"

सुजाता सबको चाय पहुँचाती फिर बाथरूम जाकर साफ-सुथरी होकर खुद अपनी चाय ले लेती। कभी-कभार उसकी चाय ठण्डी हो जाती और चूल्हे पर खाना पकने के कारण ठण्डी चाय दोबारा गर्म कर पाना सम्भव नहीं हो पाता या फिर उसके लिए चाय ही नहीं बचती, तो सुजाता नर्मी से विरोध जताती, "माँ मेरी चाय ? मेरा भी ख़्याल रखना चाहिए ?"

माँ की त्योरियाँ चढ़ जातीं, “तू क्या मेहमान है, जो तेरे लिये इंतज़ार करूँ ? दस घण्टा बाथरूम में रहोगी, तो चाय ठण्डी हो ही जाएगी। अब जैसी है, वैसी पी ले। रोज-रोज फ़ालतू गैस जलती है।" कभी कहतीं, "नहीं बची, तो नहीं बची, नशा बुरी चीज़ है।"

सुजाता चाय पी या ना पी, पिता की आवाज से चौंकती, "बुचिया ! अभी तक अख़बार नहीं लायी ? देख, जल्दी से ले आ, वरना कोई उठा लेगा।"

सुजाता अख़बार लेकर जाती, तो उसका भाई बबूल चिल्लाता, “ए बुचिया ! स्पोर्ट्सवाला पेज इधर दे जा। अभी थोड़ी देर में ले जाना, एक बात रोज-रोज कहनी क्यों पड़ती है ?"

इधर सब्जीवाला गुहार लगाता, “आलू, टमाटर, गोभी, बैंगन....दीदी !”
माँ चीखती, "बुचिया! जा सब्जी ले ले, सुन ! देख ले डलिया में क्या है, क्या नहीं है, बिना देख-सुनकर ले लेती है, तो ज़रूरत से ज़्यादा तरकारी बनानी पड़ती है, फ़ालतू खर्चा होता है। टमाटर देखकर लेना, लाल-लाल और थोड़ा कड़ा हो। उस दिन सारा फेंकना पड़ा था। रोज-रोज तरकारी खरीदती है, फिर भी ताज़ा-बासी, अच्छा-बुरा नहीं पहचान पाती, पैसा बेकार जाता है! और सुन ! मिर्चा अलग से माँग लेना। फोकट में देता है, फिर भी नहीं लेती।" माँ की इस तरह की बातें सुजाता एक कान से सुनती, दूसरे से निकाल देती है। आदत पड़ चुकी थी।

- "माँ ! ग्यारह रुपये पचास पैसे।"

-"ठीक से जोड़ लिया है न ? मिर्चा का तो जोड़ा नहीं ?"

उधर दूधवाले की सीटी बजने लगी।
दूधवाला तूफान मेल है, ज़रा-सा सब्र नहीं कर सकता, सीटी पर सीटी बजाता। खीझकर माँ कहती, "बुचिया वहाँ खड़े-खड़े क्या कर रही है? सुनायी नहीं देता ? क्या मैं दौड़ू ? जा, जल्दी से दूध ले ले, बर्तन ठीक से धो लेना।"

-"पहले रुपये तो दीजिए, सब्जीवाला कब से खड़ा है।" सुजाता झुंझलाती। 

- "दूधवाला एक घण्टा खड़ा रहेगा क्या ? अभी चला जाएगा तो हाय-हाय करना पड़ेगा। तू दूध ले ले, मैं सब्जीवाले को दे देती हूँ...साढ़े ग्यारह कैसे हुआ ? तुझे वह जो दाम बता देता है, तू वही मान लेती है, मोल-भाव करना पड़ता है! पता नहीं किस राजकुमार के घर जायगी, कैसे गृहस्थी संभालेगी !”

थोड़ी-सी फुरसत मिलती, तो सुजाता अख़बार लेकर बैठती। अभी पन्ना भी नहीं पलट पाती कि बबलू का हुक्म होता, “बुचिया ! मेरी कमीज़ प्रेस कर दे। कल तूने बनियान साफ़ नहीं की थी, आज कर देना।" 
कमीज़ पर आयरन चलाती, तो माँ की आवाज़ सुनायी देती, "बुचिया! पापा की पैंट-शर्ट निकाल दे और टिफिन तैयारकर बैग में रख देना।"

इसी तरह दिन-भर चरखी जैसी चक्कर काटती बुचिया। कहने को तो उसकी माँ की गृहस्थी माँ ही सँभालती, हिसाब-किताब भी वहीं रखती, लेकिन अनगिनत छोटे-बड़े काम, जिन पर शायद ही किसी का ध्यान जाता हो, बुचिया को करना पड़ता। सुबह से रात तक इतनी मर्तबा 'बुचिया बुचिया' सुनती कि सुनते-सुनते कान थक जाते, हाथ पैर दुखने लगते। थककर चूर होकर जब बुचिया बिस्तर पर निढाल होती, तो एकदम शव-सी पड़ी रहती। कदाचित् सपने में 'बुचिया' सुनकर एकबारगी नींद से उठ बैठती। किन्तु तब भी बेचारी को सुनना पड़ता, "बुचिया कुछ नहीं करती, जब देखो, तब रिकार्ड प्लेयर बजाकर गाना सुनती है या टी० वी० के सामने बैठी रहती है। सिलाई-बुनाई कर सकती है, घर का दो पैसा बच सकता है।"

बुचिया को ताने- उलाहने सुनने, घरवालों की रूखाई देखने और सुनने की आदत पड़ चुकी थी। सुजाता करे, तो क्या करे, कहे तो किससे कहे, कुछ नहीं समझ पाती। वह तो बस भाग्य को कोसती और भगवान् के सामने गिड़गिड़ाती, "हे भगवान ! मुझे लड़की का जन्म क्यों दिया ? लड़की बनाया, तो उस घर में क्यों भेजा, जहाँ लड़की के हाथ पीले करने के लिए ढेर रुपए खर्च करने पड़ते हैं ? उस घर में क्यों भेजा, जहाँ हिटलर जैसा बाप है, जिसके आगे किसी की नहीं चलती ? उस घर में क्यों भेजा, जहाँ बेटियों को थोड़ा-बहुत पढ़ने तो दिया जाता है, लेकिन आगे बढ़ने नहीं दिया जाता है।"

सुजाता ने अपनी भावनाओं को, मन की पीड़ाओं को डायरी में दर्ज़ कर रखा है। सुजाता ने लिखा कि जब वह स्टूडेण्ट थी, उसकी हर प्रगति व प्रशस्ति पर उसके माता-पिता बल-बल खाते, उसकी बातों को गम्भीरता से लेते, उसे बढ़ावा देते, मगर अब जब पढ़ाई-लिखाई छोड़, दो वर्ष से बिन ब्याही बैठी हुई थी, उसकी स्थिति अपने ही घर में दासी की हो गयी थी, जिसे तन ढँकने के कपड़े और दो टाइम खाना खाने के एवज़ में कोल्हू जैसा खटना पड़ता। अब वह सुजाता नहीं, बेजुबान आज्ञाकारी 'बुचिया' बन चुकी थी। सुजाता ने लिखा था कि जब वह एम० ए० में थी और आगे बढ़ने के लिए भरपूर मेहनत कर रही थी, तभी अचानक उसके पिता ने उसे कॉलेज जाने से मना कर दिया था।

उसके पिता के कान भरनेवाला था उसका अपना भाई बबलू। बबलू ने कई बार सुजाता से कहा था कि वह अपने क्लास के लड़कों से बातें न किया करे, मगर सुजाता ने हर बार जवाब में कहा था, "इसमें कौन-सी बुराई है भइया ? हम साथ-साथ पढ़ते हैं, दिन-भर क्लास-रूम में रहते हैं, बातें यूँ ही हो जाती हैं, मैं अकेली थोड़े ना हूँ। सभी लड़कियाँ लड़कों से बातें किया करती हैं।"

मगर जिस दिन बबलू घर पर बेतुकी बात करने लगा था और राजीव नाम के एक लड़के के साथ ख़ामख़्वाह उसका नाम जोड़ा था, उस दिन सुजाता ने अपना आपा खो दिया था और कहा था, "भइया, तुमने तो यूनिवर्सिटी का मुँह नहीं देखा है, को-एजूकेशन क्या होती है, तुम क्या जानोगे ?” उस दिन बबलू ने धमकी देकर कहा था, “खूब समझता हूँ और तुम्हें भी अच्छी तरह से समझाऊँगा बहुत उड़ रही है, तेरे पर काटने पड़ेंगे।”

बबलू ने सुजाता के जीवन में जो जहर घोला था, उसकी ख्वाहिश को जिस तरह लिए सुजाता उससे घृणा करती है। किन्तु यह अजीब-सी विडम्बना है कि घृणा के बावजूद से कुचल दिया था, जिस ढंग से उसकी ज़िन्दगी के अमन-चैन को छीन लिया था, उसके सुजाता को बबलू के हाथ में राखी बाँधनी पड़ती है। राखी बाँधकर जब बबलू बहन को आशीर्वाद देता है, तो सुजाता मन ही मन कहती, "भइया, तुम जुग-जुग जीओ, सुखी रहो। पर तुमने मेरे साथ जो कुछ किया है, उसके लिए मैं तुम्हें कभी माफ़ नहीं करूँगी, कभी नहीं। अगले जन्म में तुम जैसा मनहूस भाई भगवान मुझे ना दे, यही कामना हर रक्षाबन्धन के दिन करूँगी।"

शादी तय हो जाने से सुजाता खुश है। खुश है कि उसे इस दमघोटू वातावरण से मुक्ति मिलेगी, खुश है कि उसे उसके भाई की सूरत नहीं देखनी पड़ेगी, खुश है कि अब उसे 'बुचिया, ए बुचिया' करके कोई नाक दम नहीं करेगा। खुश है कि मोहल्ले की चाची जी, ताई जी, नानी जी, बुआ जी उसे कनखियों से नहीं देखेंगी और अब वे लोग उसकी मौज़ूदगी में उसकी माँ से शादी की इंक्वायरी नहीं करेंगी और सुजाता खुश है कि उसके रिश्तेदार अब खतों के अन्त में नहीं लिखेंगे, सुजाता की शादी का क्या हुआ ?

सुजाता नवीन सपनों की उधेड़बुन में लग गयी। उसके होनेवाले जीवनसाथी ने उसके सर्टिफिकेट व मार्कशीट देखकर उसकी प्रतिभा की तारीफ़ तो की ही थी, साथ ही साथ अचरज भी व्यक्त किया था कि उसने अपने कैरियर को मँझधार में डूबने क्यों दिया। मिहिर ने उससे कहा था कि उसे पढ़-लिखकर नौकरी करनी चाहिए। उत्तर में सुजाता ने कहा था कि उसके खानदान में बेटियों को अधिक पढ़ाने की प्रथा नहीं है, सिर्फ़ अच्छी व कुशल गृहिणी बनने की तालीम दी जाती है। घरवाले नौकरी चाकरी के विरोधी है। मिहिर ने उससे कहा था कि अगर वह लिख-पढ़कर कुछ बनना चाहेगी, तो वह पूरा साथ देगा, क्योंकि उसकी इच्छा है कि उसकी बीबी कमाऊ हो, ताकि दोनों की आमदनी से जीवन का स्तर बेहतर हो ।

सुजाता के मन की अतृप्त इच्छा अचानक जाग उठी। अति उत्साह के साथ उसने सारे सर्टिफिकेट, मार्कशीट, प्रशस्ति-पत्रों तथा तमाम नोट्स व किताबों को बटोरकर इकट्ठा किया। धूल की परतों को हटाकर सारी पुस्तकों पर कवर चढ़ाया और अलमारी में सजा दीं। अब वह सुबह अपनी मर्ज़ी से माँ के साथ काम में थोड़ा-बहुत हाथ बँटाती, फिर किताब खोलकर बैठ जाती। उसे पढ़ते देख उसकी माँ उत्साहित हो उठी, उन्होंने बेटी की पीठ थपथपायी और ब्याह के बाद पढ़ाई चालू करने की बात कही। सुजाता ने माँ के आग्रह को देख पढ़ाई शुरू करने की इच्छा जाहिर की। थोड़े दिनों की बाद वह यूनिवर्सिटी जाने लगी। वह मन लगाकर पठन-पाठन करने लगी और साथ-साथ नौकरी पाने के लिए कम्पीटिशन की तैयारी करने लगी।

मगर जब चार-पाँच महीने बाद सुजाता का इम्तहान निकट था, सुजाता ने अचानक गौर किया कि उसके अध्ययन में किसी को कोई दिलचस्पी नहीं है, बल्कि उसके पिता और भाई दोनों ही उसे यूनिवर्सिटी जाने से मना करने लगे। उसकी माँ ने जुबान पर ताला लगा दिया था। उनके चेहरे पर ना पहले जैसी खुशी थी और ना ही गम था। वह ज्यादातर गुमसुम रहतीं, चुपचाप अपने काम में लीन रहती और मन ही मन बुदबुदातीं।

सुजाता ने गौर किया कि उसके माता-पिता जब कभी आपस में बात करते, उस दौरान अगर वह दाख़िल हो जाती, तो तुरन्त बातचीत का विषय बदल जाता या फिर सन्नाटा पसर जाता। सुजाता को लगा कि शायद घरवाले उसकी शादी की बात उसके सामने नहीं करना चाहते।

फिर धीरे-धीरे उसके पिता और भाई हुक्म चलाने लगे। सुबह होते ही शुरू हो जाता 'बुचिया' 'बुचिया'। सुजाता वज़ह ढूँढ़ती। यूनिवर्सिटी में शीतकालीन अवकाश था। सुजाता दिन-रात पढ़ना चाहती, किन्तु बार-बार किताब बन्द कर हुक्म का पालन करना पड़ता। एक दिन परेशान होकर वह झुंझला उठी, "आप लोगों ने मेरा जीना दूभर कर रखा है। सिर पर इम्तहान सवार है, जब तब डिस्टर्ब करते हैं।"

-"किसके लिए पढ़ रही है तू ? मैं तो कहती हूँ यह पढ़ाई बढ़ाई बन्द कर घर बैठ। ज़्यादा लिख-पढ़ लेगी, तो तेरी शादी नहीं हो पायेगी।" माँ ने हताशा व्यक्त की। 

- "क्या ?" सुजाता स्तब्ध, हतप्रभ। किसी ने कुछ नहीं कहा।

सुजाता ने जब काफ़ी कुरेदा, तब उसकी माँ कमरे के भीतर जाकर लिफ़ाफ़ा ले आय और सुजाता को थमा दिया।

लिफ़ाफ़ा खोलते ही सुजाता सातवें आसमान से गिरी। उसकी तस्वीर और साथ में था एक पत्र । पत्र में लिखा था

"अत्यन्त दुःखी होकर मैं आपको आपकी बेटी की तस्वीर लौटा रहा हूँ। आपका घर-द्वार, आपके घर के लोग हमें बहुत अच्छे लगे थे। सुजाता बेटी की जितनी प्रशंसा करूँ, नाकाफ़ी होगी। किन्तु क्या बताऊँ, मेरे बेटे ने अभी पिछले हफ़्ते फोन पर बताया कि वह वर्किंग गर्ल से शादी करना चाहता है। उसने एक लड़की की सूचनी भी दी है। ऐसी स्थिति में मैं नहीं समझता कि बेटे को जोर-जबर्दस्ती राजी करवाना उचित होगा। आपकी बेटी सुजाता के लिए मंगल कामनाएँ करता हूँ।”

पत्र पढ़ते-पढ़ते सुजाता रूआँसी हो गयी। सुजाता ने देखा उसकी माँ पलंग पर बैठकर सुबक रही हैं, आँसुओं को रोकने की कोशिश कर रही हैं। अपना मनोबल मजबूत कर सुजाता ने कहा, "माँ! ऊपरवाला जो कुछ करता है, भलाई के लिए ही करता है। कहावत है शादियाँ स्वर्ग में तय होती हैं...... आप लोग बेवज़ह दिल छोटा न करें। मैं अपनी पढ़ाई जारी रखूँगी, इम्तहान दूँगी। मैं नौकरी की तलाश करूँगी, नौकरी कर लूँगी, तो किसी के भरोसे नहीं रहना पड़ेगा। किसी के आगे झुकना पड़ेगा, न दहेज का लफड़ा और ना लोगों की बेतुकी बातें।" बगलवाले कमरे से पिता ने कर्कश स्वर में कहा, "बुचिया! ज़्यादा बोलने लगी है। हम तेरे लिये फिर से लड़का ढूंढ़गे। कल से पढ़ाई-लिखाई बन्द । यह मेरा आदेश है।"

सुजाता पिता के सम्मुख जाकर दृढ़ता से बोली, “पापा! पिछली मर्तबा जब मैं घर बैठ गयी थी, उस समय सर्टिफिकेट के मुताबिक मैं अट्ठारह की नहीं थी। अब मैं अपना निर्णय लेने में सक्षम हूँ.. ...मै पीछे लौटनेवाली नहीं हूँ। आप अगर मेरा खर्च नहीं उठाएँगे, तो ना सही। मैं स्वयं अपना रास्ता ढूँढ़ लूँगी। यह मेरा फैसला है।" सुजाता के उत्तर से माता-पिता दोनों स्तब्ध रह गये।

सुजाता की शादी क्यों कैंसिल हो गयी, इसका जवाब देते-देते सुजाता के माता पिता तंग आ गये। पूरे मोहल्ले में, रिश्तेदारों में तरह-तरह की बातें होने लगीं। हर रोज कभी भाई या कभी बहन किसी से कुछ सुनकर घर आकर कहते और तत्काल घर का वातावरण गर्म हो जाता। लोगों को जवाब देने के भय से सुजाता की माँ ने घर से बाहर निकलना बन्द कर दिया। जाने-अनजाने उनका आचरण सुजाता के प्रति ख़राब होने लगा। छोटी-छोटी बातों पर वे रूठ जातीं और सुजाता पर गुस्सा उतारती बहुत दिनों तक सुजाता ने यह सोचकर माँ से कुछ नहीं कहा कि माँ की निराशा और बेटी की चिन्ता उनके आचरण में झलकती है, लेकिन एक दिन जब सुजाता दूध गैस पर चढ़ाकर पढ़ने लगी थी और दूध गाढ़ा होते-होते जलकर राख हो गया था और सुजाता दौड़कर किचन में खड़े-खड़े 'च्च-च्च' करके अफ़सोस करने लगी थी, उस समय उसकी माँ पीछे से आकर बरस पड़ी थी, "पता नहीं तेरा मन कहाँ पड़ा रहता है! तेरे कारण कितना नुकसान हुआ है!” तब सुजाता ने अपना धीरज खो दिया था, "माँ! मेरी तस्वीर क्या लौट आयी, आप सबों ने मेरा जीना दूभर कर दिया है... . अच्छा होता वे लोग तस्वीर ना लौटाकर थोड़ी-सी मोहलत माँग लिए होते, कम से कम और कुछ दिनों तक मैं सुजाता तो बनी रहती। माँ! मेरी तस्वीर लौट आयी है, तो इसमें मेरा क्या क़सूर ?. ..अब से अपनी गृहस्थी आप खुद सँभालिए, सब लोग अपना-अपना काम खुद किया करें। सभी सक्षम हैं.... .. अब मैं और बुचिया नहीं बनूँगी।"

माहौल गर्म हो उठा। माँ का चेहरा तमतमा उठा, होंठ फड़फड़ाने लगे, कटाक्ष दृष्टि से बेटी को देखने लगीं। फनफनाती हुई सुजाता कमरे से बाहर निकलने लगी कि उसके पिता हाथ में एक पैकेट मिठाई लेकर प्रसन्नचित्त मुद्रा में कमरे के भीतर दाख़िल हुए और उल्लसित होकर बोले, "अभी-अभी इण्टरनेट में रिजल्ट देखकर आ रहा हूँ, सुजाता को बैंक की नौकरी मिल गयी है। वेल डन माई गर्ल, खूब तरक्की करो! मे गॉड ब्लेस यू।"

खुशी के मारे सुजाता उछल पड़ी। उसने माता-पिता का चरण स्पर्श किया। माँ ने बेटी को गले से लगाया। अपार खुशी का इज़हार करते हुए पिता बोले, “मुझे नाज़ है बेटी तुम पर, तुमने चमत्कार कर दिखाया। तुमने मेरी सोच बदल डाली। मुझे अब तुम्हारी शादी के लिए चप्पलें नहीं घिसनी पड़ेंगी, रिश्ते खुद चलकर आएँगे।" कुछ शर्मिन्दगी से सुजाता बोली, "पापा बस । मैंने इतना कमाल नहीं किया है। आजकल तो यह आम बात है, लड़कियाँ क्या कुछ नहीं कर रही हैं।”

अगले दिन सुबह-सुबह फोन की घण्टी बजी। सुजाता की माँ ने रिसीवर उठाकर कुछ सुना, कुछ कहा, फिर सुजाता की ओर रिसीवर बढ़ाकर कहा, "लो बेटी, एक और खुशखबरी.."

- "बधाई हो! मैं बहुत खुश हूँ......... बधाई !!”

-“हैलो! हैलो........ . सुजाता खुश हूँ....... बधाई !!"

-"हैलो! हैलो!........सुजाता न ?”

-“जी! मैं सुजाता।”

-" मेरी बधाई क़बूल नहीं करोगी ?. ...मैं मिहिर ।"

- "सॉरी रांग नम्बर !" सुजाता ने गुस्से से रिसीवर पटक दिया। सुजाता के माता-पिता बेटी की आँखों में एक चमकती धार को लौटता देख रहे थे।
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© सुभाष चंद्र गाँगुली
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( "कहानी की तलाश" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2006)
* पत्रिका ' वनिता ' अगस्त 2010 मे प्रकाशित ।

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