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Tuesday, September 6, 2022

कहानी: बर्थ डे

उस दिन संजय की माँ का जन्मदिन था। संजय अपनी माँ आशा से बहुत पहले से ही कहता आ रहा था कि वह जन्मदिन के रोज स्कूल नहीं जायेगा, घर पर रहकर माँ का जन्मदिन मनायेगा किन्तु आशा ने सुबह-सुबह उससे कह दिया कि वह बेवजह नागा न करे, स्कूल से लौटकर बर्थ डे मनाए।

इसी बात को लेकर माँ और बेटे में काफ़ी देर तनातनी चली क्योंकि आशा ने पहले उसकी बात पर हामी भर दी थी।

दोनों अपनी-अपनी बात पर अडिग थे और जब आशा ने डाँट लगायी तो संजय अपनी बात मनवाने के लिए रोने लगा। आख़िरकार आशा ने हार मान ली और संजय से कहा- "ठीक है रोना-धोना बन्द करो, अभी पढ़ाई-लिखाई कर लो फिर जो कुछ मनवाना-वना है कर लेना।"

मगर मामला यहाँ शान्त नहीं हुआ। स्कूल न जाने की बात सुनकर संजय के पिता सतीश नाराज़ हो गये और बेटे को डाँटने-फटकारने लगे।

आशा ने जब बेटे की तरफ़दारी की तो सतीश ने संजय को दो-चार हाथ रसीद कर दिया फिर आशा से कहा- "मेरे रुपए क्या हराम के आते हैं ? खून-पसीना एक करके कमाता हूँ, इंगलिश स्कूल में कितनी मोटी फीस भरनी पड़ती है नहीं मालूम तुम्हें ? नौ सौ रुपया पर मन्थ, जुलाई में एक साथ साढ़े चार हजार दिया था वह अलग, अगले महीने से कोचिंग जायेगा उसके लिए कल ही तीन हजार रुपया एडवांस में जमा करना पड़ा नहीं मालूम? खामख्वाह टेंशन पैदा करती हो।"

-“टेंशन आप पैदा कर रहे हैं या मैं? पढ़ने तो बैठ गया है। दिनभर पढ़ाई-लिखाई करके, एनज्वॉय करेगा। मैंने उससे कह दिया है।" -“खाक पढ़ेगा। फाँकी मारेगा। तुम्हारे चक्कर में लड़का बर्बाद हो जाएगा। भेजो उसे स्कूल । "

-"कभी किसी ने मेरा 'बर्थ डे' नहीं मनाया अब बेटा खुशियाँ मनाना चाहता तो आपको अच्छा नहीं लग रहा है। ख़ुद तो याद नहीं रखते 'बर्थ डे' कब है, मैरिज डे कब है, अब बेटा सेलिब्रेट करना चाहता है तो आपको अच्छा नहीं लग रहा है। सुबह सुबह छोटी-सी बात को लेकर इतना गर्मा रहे हैं दिनभर के लिए मूड खराब कर दिया........

-"ऐसे ही लड़का लबड्डुस है, मार्क्स अच्छे नहीं आते, पढ़ाई में मन नहीं लगता, कन्सन्ट्रेट नहीं कर पाता तभी न वास्तुविदों से कंसल्ट करके घर में पढ़ने-लिखने बैठने की जगह, किताब रखने की जगह सब कुछ बदला गया ? उस पर भी रुपए खर्च हुए। राहू की दशा ठीक करने के लिए गोमेद पहनाया, क्या कुछ नहीं कर रहा हूँ उसे आगे बढ़ाने के लिए ?........तुम्हारा 'बर्थ डे' है तो क्या सब कुछ थम जाए ? सारे लोग हाथ पर हाथ धरे बैठ जाए ? उससे कहो जल्दी से तैयार होकर स्कूल जाए....... चलो तुम्हारे 'बर्थ डे' की खुशी में शाम को होटल ले चलूँगा। जल्दी घर आ जाऊँगा।"

उधर माता-पिता की नोंक-झोंक से त्रस्त संजय आँसू बहाता हुआ किताब का पेज गीला कर चुका था। उस दृश्य को देख आशा का मन तार-तार हो गया और वह कमरे से निकलकर पति से बोली - "अजी रहने दीजिए आज टेंशन में पढ़ भी नहीं पा रहा है। एक दिन न जाने से क्या बिगड़ जायेगा ? मन में तनाव रहेगा तो स्कूल में भी मन नहीं लगेगा। एकाध दिन तो उसकी भी सुननी चाहिए।"

सतीश का गुस्सा भड़क उठा। उसने कहा- "टेंशन हो रहा है! स्कूल में मन नहीं लगेगा! तुम्हारे इस गँवारू रवैये की जानकारी पहले रहती तो मैं कर्जा लेकर पच्चीस हजार डोनेशन देकर एडमीशन ही न करवाता। इंगलिश स्कूल में एक-एक दिन की पढ़ाई माने रखती है। ऐसे ही थोड़े ना लोग हजार तकलीफ़ उठाकर इंगलिश स्कूल में भेजते हैं ? तुम क्या जानोगी कितना नुकसान होता है, ख़ुद जो पढ़ी हो देहाती स्कूल में।"

फिर दनदनाते संजय के कमरे में घुसकर उसका कान उमेठकर सतीश बोले-“कान खोलकर सुन लो आइन्दा कभी स्कूल न जाने का बहाना बनाया तो मार-मारकर चमड़ी उधेड़ लूँगा। तुम्हें आई० ए० एस०, डॉक्टर, इंजीनियर कुछ बनना है। क्लास सेवेंथ में हो, अभी से मेहनत करोगे तभी आगे बढ़ पाओगे। जाओ जल्दी से तैयार होकर भागो, देर हो जायेगी तो सौ रुपया फाइन भरना पड़ेगा।”

आशा बोली- “जा बेटा जा, पापा कह रहे हैं ना शाम को होटल ले चलेंगे।" थोड़ी देर बाद आशा ने पति से कहा-"अजी आप जरा उसे स्कूल छोड़ दीजिए ना ! बच्चा है, देर हो गयी है, स्कूल में सजा मिलने के डर से साइकिल भगायेगा, थक जायेगा...... अभी साइकिल भी ठीक से चला नहीं पाता... "

इस पर भी सतीश ने गुस्सा झाड़ा-"फ़ालतू दिमाग चाट रही हो। दूध पीता बच्चा नहीं है। उसकी उम्र में मैं बहुत कुछ किया करता था। पेड़ों पर चढता. स्वीमिंग करता, कुश्ती लड़ता। तुम्हारे प्यार से लड़का इनडिसीप्लीण्ड होता जा रहा है।" निरुपाय संजय रोता-बिलखता जल्दी-जल्दी ड्रेस पहनकर साइकिल उठाकर भागा।

संजय के जाने के बाद पता चला कि जल्दीबाजी में स्कूल टिफिन संजय की मेज पर ही रह गया है। आशा ने जब सतीश से टिफिन पहुँचाने को कहा तो सतीश ने खिसियाहट से कहा- "लापरवाही तुम करोगी और डाँड़ मैं हूँ ? स्कूटर क्या पानी से चलती है ? एक दिन नाश्ता न करने से मर नहीं जाएगा तुम्हारा लाडला जाओ जल्दी से खाना तैयार करो मैं तैयार हो रहा हूँ। सुबह से टेंशन के मारे सिर फटा जा रहा है। एक कप कड़क चाय बनाकर ले आओ।"

स्कूल से घर लौटने का समय बीतता गया, संजय के वापस न आने पर आशा का तनाव बढ़ता गया। पाँच मिनट, दस मिनट, पन्द्रह मिनट करते-करते डेढ़ घण्टा बीत गया। आशा भीतर-बाहर करती रही, बार-बार दीवार घड़ी देखती रही, सूरज का ढलान और सड़क की ओर देखती रही। फिर जब सूरज ढलने को हुआ तो वह घर से निकलकर गली के मुहाने जाकर खड़ी रही कुछ देर, फिर पी० सी० ओ० से संजय के स्कूल और सतीश के दफ्तर में कई-कई बार फोन मिलाया मगर सारी घण्टियाँ व्यर्थ गयीं।

सतीश रोज़ाना दफ़्तर बन्द होने के बाद दफ़्तर के 'मनोरंजन क्लब' में ताश पीटकर रात दस ग्यारह बजे तक कभी हँसता-मुस्कुराता और कभी मुँह लटकाये घर लौटता। आशा शुरू-शुरू में बहुत पीछे पड़ी थी मगर सतीश को ऐसी लत पड़ गयी थी कि बिना फड़ पर बैठे और पेग लड़ाए उसे चैन न पड़ता।

मगर उस दिन सतीश ने जल्दी घर लौटने का वायदा किया था क्योंकि होटल ले जाना था। इससे पहले भी दो-तीन बार सतीश वादा खिलाफी कर चुका था। बहाना भले ही दफ्तर के काम का बनाया था, दारू की बू से आशा ने सच्चाई जान ली थी।

संजय ने कभी देर भी की हद से हद आधा घण्टा-पौन घण्टा। कभी ट्रैफिक जाम के कारण तो कभी किसी मन्त्री के आने से ट्रैफिक घुमा देने के कारण। आशा ने अड़ोस पड़ोस पूछा, शहर में कोई ऐसी-वैसी बात तो नहीं हुई, फिर दो-चार लोगों से मदद माँगी, स्कूल- दफ्तर जाकर ख़बर लेने की विनती की। सबों ने परेशानी सुनी पर कहा किसी ने कुछ नहीं, क्योंकि सतीश अपने मकान के दो तरफ दो बड़े-बड़े नेम प्लेट में नाम के अक्षरों से बड़े अक्षरों में 'सुपरवाइजर' टाँगकर सबसे बड़ा अधिकारी जो बना हुआ था और बीबी, बेटे को हिदायत देता "अचुआ-पचुआ से न मिला करो, स्टेटस का ख्याल रखा करो।"

आखिरकार अत्यन्त व्याकुल होकर आशा ने घर पर ताला डालकर दफ्तर जाने का मन बना लिया।

उसने ताला डाला ही था कि सतीश के दफ़्तर का बिरजू घर के दरवाजे पर, अपनी मोटर साइकिल रोकी और कहा-“भाभी जी कहाँ जा रही हैं ? अच्छा हुआ आप पहले से ही तैयार हैं, सतीश साहब ने मुझे भेजा है, आपको ले चलने के लिए।"

-"क्या ??" आशा भौंचक ।

-"जी! उन्होंने ही भेजा है आपको ले चलने के लिए।"

-"कहाँ ? वे कहाँ ? आज तो उनको सीधा घर लौटना था। संजय अभी तक घर नहीं लौटा है मैं परेशान हूँ। मैं बार-बार फोन ट्राई कर रही हूँ, मुझे कहाँ पर बुलाया है, क्यों बुलाया है ? क्या हुआ है ?..

- "निश्चिन्त रहिए। सब ठीक है। संजय साहब के साथ है. .अरे! आज तो आपका 'बर्थ डे' है, हैप्पी बर्थ डे ! चलिए! वे दोनों आपका इन्तज़ार कर रहे हैं...... आइए बैठिए !......अरे! आपके पति ने ही मुझे भेजा है, आप अपनी मर्जी से थोड़े ना मेरे साथ चल रही हैं, साहब के आदेश पर ही. ..इससे पहले आपने मुझे एक-दो बार देखा है, पहचानती तो हैं, आइए बैठिए।"

- "भाई साहब आप मुझसे कुछ छिपा रहे हैं। कुछ छिपा रहे हैं, पता नहीं मेरा मन घबरा रहा है....... मैं किसी से हँसकर दो बातें करूँ उन्हें पसन्द नहीं और आज आपके पीछे बैठने के लिए उन्होंने कैसे भेज दिया ? फिर संजय साइकिल से स्कूल जाता है, स्कूल यूनिफार्म में है, वे क्लब जाते हैं, संजय अपने पिता के पास कैसे-क्यों पहुँच गया ? सच-सच बताइए क्या बात है ?"

रास्ते भर आशा इसी तरह की बातें दोहराती गयी और हर बार बिरजू सहज स्वाभाविक ढंग से कहता गया- "भाभी आप अकारण परेशान हो रही हैं। आलतू फालतू क्यों सोच रही हैं ? आज शाम आपको सिविल लाइंस में होटल में जाना था ना।"

- "जी हाँ, होटल की बात तो सही है मगर "

सिविल लाइंस में होटल के पास बिरजू ने अपनी मोटर साइकिल रोकी। होटल के स्टैण्ड में गाड़ी खड़ी की। आशा को थोड़ा-सा सुकून मिला ही था कि बिरजू को होटल के सामने नर्सिंग होम की ओर जाते देख वह सहम गयी। घबराती हुई तेज डगों से वह बिरजू के पीछे-पीछे चलती गयी। बिरजू बिना पीछे पलटे चलते-चलते नर्सिंग होम में इमरजेंसी वॉर्ड के पास जाकर रुक गया। सतीश को देख आशा चीख उठी-"क्या हुआ ? क्या हुआ मेरे बेटे को ? बताइए ना क्या हुआ ? आप चुप क्यों है ?"

गम्भीर मुद्रा में सतीश ने उत्तर दिया- “शान्त रहो। नथिंग सीरियस तुम्हारा बेटा साइकिल से गिर पड़ा था। सिर पर थोड़ी-सी चोट आयी है, जरा-सा खून निकला था, सोचा अच्छे डॉक्टर को दिखा दूँ सो यहाँ ले आया....... अभी ठीक हो जाएगा।" -"कब गिरा ? कैसे गिरा ? कहाँ गिरा ? किससे टकराया ? सिर पर चाट आयी ? ज्यादा तो नहीं लगी? और कहाँ-कहाँ चोट लगी ? हाथ-पैर तो नहीं टूटा ? कितना

खून निकला ?" आशा ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी। सतीश बार-बार कहता गया- "शान्त रहो। ख़ास बात नहीं। मामूली-सी चोट है। अभी ठीक हो जाएगा।"

'वे तीनों 'इमरजेंसी' के सामने चुपचाप खड़े-खड़े एक-दूसरे के मुँह ताकते, डॉक्टर और नर्स को अन्दर-बाहर होते देख रहे थे। क़रीब पौन घण्टे बाद एक डॉक्टर 'इमरजेंसी' से बाहर निकले और सतीश को अपने पास बुलाकर बोले-“फ़िलहाल आपका बेटा ठीक है, होश आ गया है। अच्छा हुआ जो काफ़ी ब्लड निकल गया था, समय रहते आ पहुँचा था। खोपड़ी से क्लॉट की सफाई कर दी है। मगर अभी बहत्तर घण्टे निगरानी रखनी पड़ेगी। देख-सुन और बोल नहीं पा रहा है। बहत्तर घण्टे बाद ही 'इम्प्रूवमेण्ट' समझ में आयेगा। इस बीच आप लोग उससे नहीं मिल पायेंगे।"

सतीश ने कहा- "प्लीज ! एक बार मिलने तो दीजिए। हम लोग दूर से देख तो लें।" - "सॉरी! ही इज नॉट यट आउट ऑफ डेंजर ।"

-"डॉक्टर साहब प्लीज! उसे किसी भी कीमत पर बचाइए रुपए पैसे की चिन्ता मत कीजिए। मुझे अपने दफ्तर के सी० जी० एच० एस० से सब मिल जायगा। प्लीज! उसे बचाइए !"

-“धीरज रखें! ऊपरवाले से प्रार्थना कीजिए। मे गॉड ब्लेस यू!" आशा थोड़ी दूरी पर सुबक रही थी। वह डॉक्टर के हाव-भाव से समझ चुकी थी कि उसका इकलौता बेटा अब ऊपरवाले के भरोसे हैं। उसकी आँखों से अनवरत आँसू निकलते रहे। दोनों हाथों से सिर थामकर वह फर्श पर बैठ गयी।

कुछ देर बाद एक नर्स इमरजेंसी कमरे से बाहर निकली और इधर-उधर देख आशा के समीप आकर रुक गयी। आशा उठ खड़ी हुई।

नर्स ने पूछा- "आप ही संजय की माँ है ?"

-"जी मैं ही हूँ, मैं हूँ। कैसा है मेरा बेटा ?"

नर्स ने कुछ टाफियाँ और एक ग्रीण्टिग कार्ड बढ़ाकर आशा से कहा- "आज सुबह जब आपका बेटा आया था, खून से लथपथ था। उसका पैंट और शर्ट पुलिस जाँच के बाद ही दिया जायगा। पैंट के जेब से यह सामान मिला।"

ग्रीण्टिग कार्ड खोलकर आशा ने देखा और अवाक् होकर एकटक देखती रह गयी। ग्रीण्टिग कार्ड संजय के हाथ का बना हुआ था जिसमें रंगों से भरा एक सुन्दर-सा माँ का चित्र था और उसके नीचे लिखा हुआ था "हैप्पी बर्थ डे टू यू मम्मी! हैप्पी बर्थ डे !”


© सुभाष चंद्र गाँगुली 
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( "कहानी की तलाश" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2006)
* पत्रिका -' क्रांतिमनु ' 1998मे

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