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Tuesday, September 6, 2022

कहानी: बुआ

आज ऋचा की शादी है। थोड़ी देर में बारात आनेवाली है। ऋचा की माँ दीपा दुःखी तो है ही बेहद उदास भी है। उदासी का कारण यह नहीं है कि बेटी परायी हो जायेगी बल्कि यह है कि ऋचा ने माँ के दिये हुए गहने पहनने से इंकार कर दिया है। माँ की सख्त नाराज़गी के बावजूद उसने बुआ के गहनों को पहन रखा है।

माँ ने पहले आदेश दिया, डाँटा-फटकारा, गुस्सा झाड़ा फिर बहुत देर तक वह गिड़गिड़ायी, चिरौरी की और आखिरकार हार मानकर फूट-फूटकर रो पड़ी। ऋचा का मन किन्तु तनिक न पिघला। बुआ ने जो रुपये भेजे थे उससे उसके पिता ने जिन गहनों को खरीदा था उन गहनों को वह किसी कीमत पर उतारने को तैयार नहीं हुई।

खुशियों के बीच एक तनातनी बल्कि एक अज़ीब गमगीन माहौल। घर आये मेहमानों के चेहरे से भी हँसी-मुस्कान लुप्त वज़ह क्या है बाहरी किसी को मालूम नहीं पर सभी हैरत में हैं कि बेटी की विदाई के समय या उससे थोड़ी देर पहले माँ रोये, मूड ऑफ करे तो ठीक है, अभी हँसी-ठिठोली के वक़्त उसका चेहरा क्यों लटका हुआ है? अभी से उसकी आँखें नम क्यों? अपनी बेटी को देख तक नहीं रही है, इसकी वज़ह क्या है?

मन मुटाव का सही कारण क्या है न ऋचा किसी को बताना चाहती और न ही उसकी माँ। दोनों के मन में भय है कि बात का बतंगड़ बन जाने से परिवार की प्रतिष्ठा को आँच लगेगी।

दीपा ने मलय से कहा कि वह ऋचा को समझाये कि वह अपनी जिद्द छोड़ दे, उसे समझाये कि गर्भधारिणी माँ से ऊपर किसी का स्थान नहीं होता है। उसने कहा कि वह समझायें कि आज का दिन जीवन का सबसे शुभ और खुशी का दिन है, इस दिन किसी मृत व्यक्ति के धन और मन को तन-मन से कोसों दूर रखना चाहिए। अन्त में दीपा ने रुआँसी होकर कहा कि वह अपनी लाडली को समझाए कि अगर ऋचा माँ का कहा नहीं मानती है तो वह कभी बेटी का मुँह नहीं देखेगी।

माँ की भयंकर चेतावनी के बाद ऋचा ने माँ के गहनों को तो पहन लिया किन्तु बुआ के गहनों को न उतारने की बात पर वह अडिग रही।

दीपा घूमती-फिरती काम करती। बिलबिलाती और बीच-बीच में मलय के सामने अपनी बात दोहराती है।

मलय के पास इस संवेदनशील समस्या का समाधान नहीं है। माँ और बेटी दोनों की संवेदनाओं को वह समझ सकता है, भावुकता के धरातल पर उसका मन बेटी के साथ है लेकिन विडम्बना ही है कि वह अपनी मन की बात पत्नी से कह नहीं सकता। शादी के शुभ अवसर पर मलय को ऋचा की बुआ की कमी महसूस होने लगी। उसकी यादें, उसके साथ बिताये गये दिन, उसकी पूरी कहानी मलय की आँखों के सामने घूमने लगे।

*

रात के बारह बजे का समय था। मलय गहरी नींद में था। दीपा की छटपटाहट से उसकी आँखें खुल गयी थीं। उसने झुंझलाकर दीपा से कहा था- "रात होने से पहले ही मैंने तुमसे कहा था अस्पताल चलना हो तो बताओ, रात को परेशान न करना मगर उस समय तुम चुप थी, अब परेशान कर रही हो। अब चुप भी हो जाओ! देखता हूँ।"

बेचारी दीपा ! क्या करती ? उसके जीवन का यह पहला अवसर जो था। घर में ड़े-बूढ़े भी न थे। दीपा की माँ तो बचपन में ही चल बसी थी और पिता शादी के थोड़े दनों के बाद। मायके के नाम उसका कोई नहीं है। बड़ा भाई है, उसे प्यार भी करते हैं पर दीपा की भाभी, माँ का स्थान लेने को तैयार नहीं थी। उसने दीपा को अपने ससुर के तेरही के दिन ही कह दिया था-"आज से तुम इसे मायका कहना छोड़ दो, यह तुम्हारे भाई का घर है। भाभी अपनी गृहस्थी देखेगी कि ननद को सँभालेगी ?" भाभी की बात दीपा को इस कदर चुभ गयी थी कि उसने भाभी से नाता तोड़ दिया था।

मलय की माँ दस रोज़ पहले तीर्थ यात्रा में निकली थी। मलय ने माँ से प्रोग्राम स्थगित करने की विनती की थी पर उन्होंने जवाब में कहा था- "बहुत खट चुकी हूँ जिन्दगी भर, अब तुम सब अपना-अपना सँभालो। मुझे क्या समझ रखा है तुम लोगों ने ? मैं क्या फालतू हूँ जो आज इसकी सौरी कल उसकी सौरी सँभालूँ ?”

माँ के बर्ताव से मलय को भीषण आघात पहुँचा था मगर उसने माँ से कुछ भी नहीं कहा था। आज भी वह खुद को टटोल रहा था। आखिर उसने अनजाने कहीं माँ को चोट दी होगी वर्ना ऐसे नाजुक वक्त पर माँ उसे छोड़कर चली नहीं जाती।

दीपा ने मलय से कहा था “चलिए मान लेती हूँ कि अनजाने में मुझसे या हम दोनों से कोई गलती हुई थी और माँ के मन को ठेस पहुँची था लेकिन यह बताइए कि क्या ऐसे संकट के समय ही उनको हिसाब चुकाना था। नागिन भी गर्भवती पर रहम करती है। बेटे पर अपना हक दिखाते समय, नौ महीने कोख में पालने की तो खूब याद दिलाती है, तिरथ में निकलते समय भूल गयी उसी बेटे की सन्तान मेरे कोख में है। माँ के नाम से मकान है तो हड़कम्प देखिए कहती हैं खूब खट चुकी हूँ, खूब खटी हैं तो अपनी गृहस्थी के लिए खटी हैं बेटे की गृहस्थी के लिए खटी थीं क्या ?" मलय ने महसूस किया था कि बड़े-बूढ़े कितने भी असमर्थ हों परिवार में उनकी ज़रूरत रहती है। माँ की याद में मलय की आँखें भर आयी थीं। उसने महसूस किया कि माँ को किसी भी कीमत पर रोकना चाहिए था।

जब तक मलय पलंग पर बैठे-बैठे चिन्तन-मनन कर रहा था तब तक दीपा की पीड़ा और बढ़ गयी थी। दर्द से कराहती हुई वह पलंग से उतरकर जमीन पर वैसे छटपटाने लगी थी जैसे जल बिन मछली। मलय को एक बारगी दफ़्तर के शुक्ला जी की याद आ गयी जो उसी के घर के पास रहते थे। शुक्ला जी से कहते ही वे साथ चलने को तैयार हो गये थे। शुक्ला जी क़मीज पहन रहे थे कि उनकी पत्नी उमा ने कहा था- "आप क्या करने जा रहे हैं? आप वहाँ क्या करेंगे? मैं चलती हूँ। यह औरतों का काम है। "शुक्ला जी ने अवाक् होकर कहा था-"तुम ? तुम जाओगी ? तुम अस्पताल और डॉक्टर के नाम से रोने लगती हो, तुम्हारे पाँचों बच्चे घर पर जन्मे हैं.. को सँभालेगा या तुम्हें ?" उमा ने कहा था- "कब तक डरती रहूँगी ? अस्पताल और ...... मलय अपनी बीबी डॉक्टर से कौन बच पाया है ? आज दीपा के लिए डर जाऊँ तो कल अपनी बहू के लिए किसे बुलाने जाऊँगी ? कहीं मैं बीमार पड़ गयी और अस्पताल जाना पड़ा तो ?” उसकी बातों से शुक्ला जी प्रसन्न हो गये थे।

मलय रिक्शा ढूँढ़ने निकला था। बड़ी खुशामद व चिरौरी के बाद एक को राजी कर पाया था मगर जहाँ दिन में पाँच रुपये लगते हैं वहाँ आधी रात में पच्चीस रुपये में सौदा तय हुआ था। बड़ी मुश्किल से उमा ने दीपा को रिक्शे पर चढ़ाया था और मुश्किल से अस्पताल पहुँची थी।

अस्पताल में उस दिन छुट्टी थी। किसी डॉक्टर की नाईट ड्यूटी नहीं थी। सिर्फ़ इमरजेंसी के लिए एक डॉक्टर की ड्यूटी थी मगर वे अपने चेम्बर में सो रहे थे। नर्स ने मलय से कहा था आप बेवज़ह परेशान कर रहे हैं। अभी डिलेवरी में देर हैं। फाल्स पेन लग रहा है ले जाइये कल ले आइएगा।"

-"डॉक्टर साहब को जगाइये ना ? वे देख लें। फॉल्स पेन नहीं है। आण्टी जी कह रही हैं समय हो गया है। डॉक्टर साहब को उठाइये एडमिट कीजिये।"

"उन्हें उठाने से वे नाराज़ हो जायेंगे।"

-"इसमें नाराज़ होने की कौन-सी बात है ? डॉक्टर को सोने के लिए थोड़े ही तनख्वाह दी जाती है। यह उनकी ड्यूटी है। यह सरकारी अस्पताल है, मैं सरकारी कर्मचारी हूँ, ड्यूटी फर्स्ट।"

-“भाषण देने आये हैं या बीबी को एडमिट करने ?"

मलय की इच्छा हुई थी कि वह नर्स का कान उमेठकर दो तमाचा जड़ दे मगर उसने खुद को क़ाबू में रखकर नर्मी से कहा था. "मेरी परेशानी समझिये।" नर्स ने आगबबूला होकर कहा था-"अगर मैं एडमिट न करूँ तो आप क्या कर लेंगे ?"

मलय के मुँह से निकल पड़ा था-"आपके दोनों पैर पकड़ लूँगा और तब तक नहीं छोडूंगा जब तक उसे एडमिट न करें.........आखिर आपको भी तो बुआ बनना है.. बुआ बनेंगी ना ?"

अचानक नर्स के चेहरे पर प्रसन्नता उमड़ पड़ी थी और उसने नम्रता से कहा था "अभी एडमिट करती हूँ। आप घबराइए मत। इत्मीनान से बाहर बैठिए। आपने मुझे बहन माना है अब सारी जिम्मेदारी आपकी बहन की है। "

कमरे से बाहर निकलकर मलय बेंच पर बैठ गया था। नर्स दीपा को लेबर रूम में ले गयी। मलय बेहद नर्वस व चिन्तित था। उसके जीवन में यह अनोखा अनुभव था। एकान्त में अकेला चिन्ताग्रस्त होकर समय बिताना कठिन होता है! रातभर वह जम्हाई लेता रहा। कदाचित् इधर-उधर और टहल लेता। सुबह सात बजे नर्स बाहर निकलकर मेट्रन से मिली फिर मलय से बोली कि उमा जी को घर पहुँचा दें। उसने यह भी कहा कि उसने अपनी ड्यूटी फिर से लगा ली है, वह देख लेगी।

उमा को घर पहुँचाकर मलय अस्पताल लौटा फिर उसी बेंच पर बैठा रहा।

दोपहर बारह बजे तक नर्स अन्दर-बाहर आती-जाती रही। जब-जब वह कमरे से बाहर निकलती मलय पूछता-“सिस्टर कोई खबर ?" बिना उत्तर दिये वह चली आती। क़रीब साढ़े बारह बजा मलय नाश्ता करने सड़क पर निकल गया था। लौटने के बाद उसने देखा कि कई डॉक्टर और लेडी डॉक्टर लेबर रूम के अन्दर जा रहे हैं और उन सबों के पीछे था ऑक्सीजन और सबसे पीछे थी नर्स नर्स का चेहरा पिछली रात जैसा गम्भीर किन्तु भय-विह्वल । मलय नर्स की ओर बढ़ा था मगर इससे पहले की वह कुछ पाता वह तेज रफ़्तार से लेबर रूम के भीतर घुस गयी थी। व्यग्रता और काल्पनिक भय से तनावग्रस्त मलय बरामदे के एक कोने में बैठा रहा

लगभग आधे घण्टे बाद नर्स ने बाहर निकलकर पूरे उल्लास के साथ कहा था "मैं बुआ बन गयी हूँ। बधाई हो गुरुवार दोपहर का समय लक्ष्मी आयी है।" मलय प्रसन्न हुआ था लेकिन अभी भी वह इतना सहमा हुआ था कि प्रसन्नता व्यक्त न कर सका था। उसने पूछा था-"मेरी पत्नी कैसी हैं ? सीरियस बात तो नहीं है ? आप ऑक्सीजन लेकर गर्यो ? कहीं. ..?" नर्स ने कहा था-"इस समय ठीक है। आप देर से लेकर आये थे। बच्चे के गले में फन्दा पड़ गया था। जान ख़तरे में पड़ गयी थी। अब ख़तरा टल चुका है मगर अभी भी सावधानी बरतने की ज़रूरत है। आप घर जाकर फ्रेश हो आइये, मैं हूँ। मिठाई खिलाइयेगा न ?"

-"यह भी पूछने की बात है ?" नर्स के प्रति मलय का हृदय अगाध स्नेह और असीम श्रद्धा से भर उठा था। उसने महसूस किया कि नर्स ने उसके लिए नर्स और माँ दोनों का काम किया है।

दीपा को अस्पताल से छुट्टी मिलने बाद नर्स रोजाना मलय के घर आने लगी थी। बच्ची को गोद में खिलाती, उसके कपड़े बदलती। एक महीने तक नित्य आना हुआ। फिर महीने में चार-पाँच बार उसकी सास भी तीर्थयात्रा से लौट चुकी थी लेकिन फिर भी बुआ बीच-बीच में आकर भतीजी की सेवा करती।

मलय ने सोचा बड़ी फजीहत है। उसने तो बेबसी में काम निकालने के लिए उसे बुआ बना दिया था मगर वह तो सचमुच अपने को बुआ मान बैठी। दीपा बिस्तर से उठकर काम-काज करने लगी थी।

नर्स जब भी ऋचा से मिलने आती अपने साथ कुछ न कुछ सामान ले आती। मलय

का धीरे-धीरे उसके साथ लगाव हो गया वह उसे घर का सदस्य मानने लगा था।

कई साल बाद नर्स का प्रमोशन हो गया था, साथ-साथ तबादला भी। वह मद्रास चली गयी थी। मद्रास से वह अक्सर भतीजी को फोन करती। उससे दुनिया भर की बातें करती। जब कभी ऋचा को दीपा डाँटती तो वह यह कह के चुप करा देती कि वह बुआ से शिकायत कर देगी और फोन पर शिकायत सुनते ही बुआ कहती-"माँ को फोन दो". और फिर फोन पर भतीजी का पक्ष लेकर भिड़ जाती। कदाचित् दीपा उसकी दखलअंदाजी बर्दाश्त नहीं कर पाती और कह देती "तुम बुआ नहीं, नर्स बुआ हो। सगी बुआ होती तो इस कदर मेरी बेटी को सिर न चढ़ाती।" इस प्रहार से नर्स को चोट पहुँचती और वह फोन पटक देती। दीपा को यह नागवार था कि उसकी बेटी उसे बुआ कहे। वह नर्स बुआ कहने को कहती मगर बेटी ने माँ की बात नहीं मानी।

हर साल जाड़ों में हफ्ता-दस दिन छुट्टी लेकर बुआ भतीजी से मिलने आती। मलय के घर रुकती। दीपा को उसका नियमित आना और उसके यहाँ ठहरना नापसन्द था। एक बार दीपा ने मलय से कहा था-"नर्स को समझाकर कहिए वह हमारे घर न ठहरा करे पता नहीं लोग क्या कुछ सोचते होंगे। वैसे भी वह मेरी ननद तो नहीं है।" मलय ने कहा था- "तुम्हारे मन में खोट है। तुम अपना मन साफ़ कर लो। वह मेरी बेटी की खात आती है.. ..क्या कहेंगे लोग ? इसमें कहने का क्या है ? रिश्ता और सम्बन्ध क्या सिर्फ खून से होता है ? यह तो बिटिया की तकदीर है उसे इतनी अच्छी बुआ मिल गयी है। तुम्हें उसका सम्मान करना चाहिये, आदर करना चाहिये। वह अब गैर नहीं है।"

प्रत्युत्तर में दीपा ने कहा था-"उस दिन देवर जी कह रहे थे भाभी तुम कितनी भोली हो इतना भोलापन ठीक नहीं है। मर्दों को ढील नहीं देनी चाहिये। इससे पहले कि घोड़ा भाग जाये तुम लगाम खींच लो अपने पैरों पर कुल्हाड़ी न मारो।" उसकी बातों से मलय सकते में आ गया था। उसने कहा था-"आप भला जग भला। लोग क्या कहते हैं मुझे इसकी चिन्ता नहीं है किन्तु इस कारण तुम्हारे मेरे रिश्ते में दरार नहीं आनी चाहिये। उसके बारे में घटिया ख़्याल आना पाप है। उससे मेरा न सही बेटी का कुछ न कुछ सम्बन्ध पिछले जन्म में अवश्य रहा होगा। सच्चाई तो यह है कि मैं उसे बहन नहीं मान सका। भले ही वह मुझसे उम्र में छोटी है जब भी वह मेरे सामने होती है जाने क्यों उसमें माँ का रूप देखता हूँ। मुझे लगता है वह कभी मेरी माँ थी, पर इस क्रूर सच्चाई को मैं जानने नहीं देना चाहता। कहीं जान जाए तो वह जुदा हो जायेगी।"

दीपा ने कहा- “सॉरी! अनजाने में मैंने आपको चोट पहुँचायी। किन्तु मैं क्या करूँ लोग तरह-तरह की बातें किया करते हैं।" मलय ने गम्भीरता से कहा था- "छोड़ो लोगों की बातें। सारे सम्बन्ध बखान के नहीं होते हैं कुछ सम्बन्ध सिर्फ अनुभूति के होते हैं।”

लेकिन किस्मत में जुदाई ही लिखी थी। एक दिन एक अजनबी का ख़त मिला। खत से पता चला नर्स को ब्रेन ट्यूमर था जिस कारण से उसने शादी नहीं की। वह अपनी बीमारी के बारे में किसी से चर्चा भी नहीं करती। अचानक ड्यूटी के दौरान उसकी तबीयत ख़राब हो गयी थी और बिस्तर पर दो दिन रहने के बाद उसने दम तोड़ा था। मृत्यु शैय्या पर लेटे-लेटे उसने अपनी भतीजी को एक पत्र लिखा था-"जो रुपये मैंने तुम्हारे नाम छोड़ा है उससे मनपसन्द गहने खरीद लेना और गहनों को पहनकर शादी करना, बुआ ऊपर से देखेगी।" और अन्त में लिखा था-"अगले जन्म में मैं तुम्हारी माँ बनने की कामना करती हूँ।" (नर्स बुआ)

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
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( "कहानी की तलाश" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2006)
* समाचार पत्र ' पायोनियर ' दिनांक 11/12/1999मे प्रकाशित
* पत्रिका ' दस्तक' बहादुरगढ़, हरियाणा अप्रैल 1997मे प्रकाशित
* पत्रिका : 'तरंग ' जनवरी--मार्च 2003
* पत्रिका 'उत्तरा'‌14/06/1999

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