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Wednesday, September 14, 2022

कहानी- कहानी की तलाश


 कहानी की तलाश 
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मैं इन दिनों परेशानी में हूँ। 
मुझे एक कहानी की तलाश है।

एक ऐसी कहानी की तलाश है जिस पर फिल्म बन सके, एक ऐसी कहानी जिसे वरिष्ठ कथाकार अव्वल मान लें, मुझे एक ऐसी कहानी की तलाश है जिसे जाने-माने आलोचक भी तरजीह दें और यही मेरी परेशानी का कारण बना हुआ है।

'फिल्मांकन' के लिए मुझे जरा-सी चिन्ता नहीं है क्योंकि फिल्म निर्माता बड़े-से बड़े सर्जन को मात देने का कौशल रखते हैं। कहानी में ज्यादा धचर-पचर होगा तो व्यावसायिक फिल्म न सहीं आर्ट फिल्म तो बन ही जायेगी।

कहानी प्रतियोगिता में अव्वल आने के लिए मुझे निर्णायक मण्डल में रहनेवाले वरिष्ठ कथाकारों के मन को छूना पड़ेगा। कौन कथाकार मेरी कहानी पढ़ेगा इसकी भी चिन्ता नहीं है मुझे, क्योंकि कई 'जेनुइन' कथाकारों ने मुझे सराहा है, कईयों से प्रशस्तिपत्रनुमा नोट्स मिल चुके हैं और इसी कारण मुझे इत्मिनान है कि मुझे जिस कहानी की तलाश है वह अगर मेरे जेहन से सही ढंग से उतर जाय तो अपने आप बात बन जायेगी वर्ना टाँय-टॉय फिस्स ।

जेनुइन कथाकार किसी 'इज़्म' (वाद) का नहीं होता है। वह सिर्फ़ कथा सुनाता है और सुनता है। वह उस कथा को सुनता है और सुनाता है जो जीवन मन्थन से निकलती हो किन्तु आलोचकों का ध्यान आते ही कथाकार परेशान हो जाता है। आलोचकों में ऐक्य नहीं है। उनमें मतभेद है, मनभेद है। वे मार्क्सवादी हैं, प्रगतिशील हैं। वे आलराउण्डर हैं, कलावादी हैं, फलाँवादी हैं। वे सारे जहाँ हैं अडिग हैं, दल-बदल के कट्टरविरोधी वे अपने-अपने वैचारिक दृष्टिकोण में पक्का पण्डित, कट्टर तालिबानी हैं।

कहानी की तलाश में मेरा मस्तिष्क कभी वैचारिकी की इस गली तो, कभी उस गली में झाँकता-ताकता और फिर निराश होकर एक ' कमरे का देश' में लौट आता है।

आलोचक महोदय की वैचारिक प्रतिबद्धता की जानकारी मिलने से ऐसी कहानी गढ़ने की कोशिश की जा सकती है जो उसकी कसौटी में खरा उतरे। किन्तु नहीं, मैं वैसा नहीं करूँगा. ..मुझे किसी प्रकार का बन्धन पसन्द नहीं है। मैं बन्धनमुक्त हूँ, आवारा हूँ। आवारा बने रहना चाहता हूँ. इसी नैतिक आवारापन के कारण मेरा कथाकार हवा और पानी की तरह हर इंसान को स्पर्श करता हुआ चलता है और इसी क्रम में उसने जाना कि यह जरूरी नहीं कि हर पूँजीपति, हर सफेदपोश, हर प्रशासक, हर राजनेता, हर धनी व्यक्ति बुरा होता है।

और इस प्रकार पुरस्कार योग्य कहानी की तलाश मेरे जीवन में विषाद घोल देती है। मेरा आत्मविश्वास डिगने लगता है।

मुझे यकीन नहीं हो रहा है कि इससे पहले मैंने दर्जनों कहानियाँ लिखी हैं। इस समय रात का ग्यारह है। कागज के टुकड़ों से टोकरी अटी पड़ी है। कमबख्त कहानी नहीं बन पा रही है। अभी तक कुछ लाइनें ही मनपसन्द लिख पाया हूँ।

रात्रि नौ बजे से अब तक चार-पाँच बार मेरी पत्नी भोजन के लिए बुला चुकी है, अब अचानक मेरे कमरे में दाख़िल होकर पिल पड़ती है-"क्या आज भी खाली पेट सो जाने का इरादा है ? कब से बुला रही हूँ, बाद में कह देंगे भूख नहीं है, आप नहीं खाते हैं तो मेरा भी खाने का मन नहीं होता है. .इससे पहले मैंने कभी आपको इतना परेशान होते नहीं देखा ? आप क्या ख़ास किस्म की कहानी लिखना चाह रहे हैं ?"
- "यह ख़ास किस्म की कहानी से आपका अभिप्राय ?"
- "अभिप्राय यह है कि आप क्या ऐसी कहानी लिखना चाह रहे हैं जिसे लेकर विवाद हो जाय और आप चर्चा में आ जायें ? क्या आप अपने 'गुरु' और उनके 'मठ' पर कीचड़ उछालने की कोशिश कर रहे हैं? या कि 'चड्ढी के नीचे हीरे जेवरात.......' 1 लिखकर नारी को बेआबरू कर अपनी मर्दानगी और कलम का बोल्डनेस दिखाना चाह रहे हैं? या कि 'विश्व सुन्दरी ने उसे वियाग्रा की गोली दी', ...........या फिर मोटी-मोटी औरतों को देख लगता कि वे 'बाल्टी भर के हगती होंगी' जैसी अश्लील चीजें लिखकर आप क्या 'हासिल' करना चाहते हैं ? नेम एण्ड फेम ? पुरस्कार ? ये जो पाठकों के प्रशंसा-पत्र आते रहते हैं ये पुरस्कार से कम हैं क्या ? किसी-किसी कहानी के लिए आपके पास अनेक खत आते हैं, वैसी ही एक कहानी लिखिए जिससे अनेक प्रतिक्रियाएँ, प्रशंसनीय पत्र आ सके, अपने आप पुरस्कार आ जाएगा।" 
-"मेरी परेशानी का कारण तुम जानती हो। कारण है समालोचकों का विखण्डित समाज।"
-"पुरस्कार देने के लिए निर्णायक मण्डल के सदस्य न कथाकार होते हैं, ना ही समालोचक, निर्णय लेते समय वे सिर्फ़ पाठक होते हैं, जागरूक पाठक।" 
पत्नी का संवाद सुनकर मैं स्तब्ध, हतप्रभ। मैं अचकचाकर कह उठता हूँ-"समथिंग स्पेशल करना चाहता हूँ।"

वह भावुक होकर कहती हैं-"समथिंग स्पेशल के चक्कर में आप दुनियादारी से कटते जा रहे हैं, अपने आप से भी कट रहे हैं, दीनता की मनोस्थिति में रहकर समाज को क्या परोसेंगे आप ?.....मेरी ठुड्डी पर यह मस्सा दो महीने से उगा हुआ है........ दुखता है.. . आपको कहाँ ?"
फुरसत मुझे खुद पर कोफ़्त होने लगती है।

          भोजन से पेट भरता है, शरीर को ऊर्जा मिलती है किन्तु कदाचित् आत्मा की तृप्ति के लिए आहार व निद्रा त्यागना आवश्यक हो जाता है।

मैं त्यागता हूँ। उसके क़रीब जाकर उसकी ठुड्डी को तनिक ऊपर रोशनी की ओर उठाता ..वह पलकें मूँद लेती है... वाकई उसका मस्सा उसकी व्यथा-कथा सुना रहा था।
ऑपरेशन करवाना पड़ेगा। 

उसके मुखड़े पर दुबारा कोई दुखनेवाला मस्सा न उग पाये इसका ध्यान रखने का कसम खाता हूँ।

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सुमन की व्यथा
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एक जागरूक पाठक की हैसियत से पत्नी द्वारा कही गयी उस रात की बातें मेरे दिल और दिमाग को कचोटने लगीं।

मुझे कथाकार सआदत हसन मण्टो का ख्याल आया। जब कभी उनके सामने कहानी लिखने का संकट आता उनकी बेगम कहा करती-"आप सोचिए नहीं........ कलम उठाइए
और लिखना शुरू कर दीजिए।” और कदाचित् मिस्टर मण्टो का अफ़साना जेब से उछलकर बाहर आ जाता था।

मण्टो की सारी कहानियाँ पुरस्कार के योग्य थीं जबकि पुरस्कार पाने के मकसद से उन्होंने कोई कहानी नहीं लिखी।

दफ़्तर में अपने कक्ष में बैठा हुआ हूँ। यह पेंशन वितरण कार्यालय है। इन दिनों मैं पेंशन वितरण अधिकारी का चार्ज संभाले हुआ हूँ।

मैं फुरसत में हूँ। आज का काम निपटा चुका हूँ। यहाँ का काम बैंक जैसा है, रोज का रोज। दफ़्तर बन्द होने में एक घण्टा पच्चीस मिनट बाकी है। लगभग पूरा दफ़्तर हो चुका है।

मेरे अलावा यहाँ मेरे दो अंधीनस्थ अधिकारी और अन्य दो कर्मचारी हैं। वे मेरी 'निगाहों में 'एक्सलेण्ट' वर्कर हैं और वे दोनों 'एक्सलेण्ट' बने रहना चाहते हैं।

मेरे चेम्बर के बाहर एक विराट् हॉल है। कहीं किसी कोने में वे सब अलाव जलाये हाथ सेंक रहे होंगे। आज का तापमान शून्य डिग्री है। तापमान कुछ भी हो, बिजली हो, या न हो मुझे तो फुल टाइम रहना है, आखिर अधिकारी जो हूँ। 

पर्दा हटाकर एक महिला भीतर झाँकती है। मैं हाथ से तशरीफ़ रखने का संकेत देता हूँ।

अपना नाम बताकर वह कहती है कि वह फलाँ रिटायर्ड अनुभाग अधिकारी की पत्नी है। उसके पति को छह हजार पाँच सौ छप्पन रुपये पेंशन मिलती है जिसमें से वह उसे मात्र पाँच सौ रुपए खर्चे के लिए देते हैं।

मैंने कहा-"यह आप लोगों का निजी मामला है, इससे इस ऑफिस का क्या लेना देना ? काम की बात करिए।" 

उसने कहा- "काम से आयी हूँ, काम की ही बात कर रही हूँ। दो मिनट सुन लीजिए पूरी बात सीरियस प्रॉब्लम नहीं होती तो इतनी ठण्ड में घर ही पर न बैठी रहती। मेरे मोहल्ले के बुज़ों ने कहा कि आप अच्छे अधिकारी हैं, औरों के दुःख-दर्द सुनते हैं, मदद करते हैं, उन सबों ने आपसे मिलने को कहा।"

मैं सहज भाव से कहता हूँ-"मैडम ! एक पेंशनभोगी अगर अपनी बीबी को हाथ खर्च के लिए पाँच सौ देते हैं तो यह मिसाल देने लायक बात है।" 

वह खिन्न होकर कहती है-"अगर मिसाल देने लायक बात होती तो मैं आपके पास आती ही क्यों ? पाँच सौ हाथ खर्च के लिए नहीं, मेरे खाने-पीने, नहाने धोने, कपड़े-लत्ते के लिए मिलते हैं। क्या पाँच सौ रुपए से गुजर-बसर होता है ?....मैं आपसे यह रिक्वेस्ट करने आयी हूँ कि आप मेरे नाम से दो हजार रुपए का चेक काटिएगा, बाकी उनके नाम मैं आपके नाम एक एप्लीकेशन लिखकर ले आयी हूँ।” 

मैं जिज्ञासु होता हूँ। मैं गौर करता हूँ कि उसके चेहरे पर ज़र्द उदासी है। इस हाड़ काँप शीत में वह एक प्राचीन बांग्लादेशी शाल ओढ़ी हुई है। उसका घिसा हुआ टाँका लगा हवाई चप्पल और सूखी-फटी एड़ियों के ठीक ऊपर सफेद मैला साड़ी का किनारा उसकी कथनी पर मुहर लगा रहा था। 

मुझे हमदर्दी होने लगती है। माता-पिता ने क्या सोचकर बेटी की शादी की थी और क्या परिणाम हुआ..... .मगर क्यों हुआ ? कैसे हुआ ? कब हुआ ? गुनाहगार कौन ? 

मैं कहता हूँ-“देखता हूँ क्या किया जा सकता है। पहले आप अपनी एक्चुअल समस्या बताइए।"

-“मेरी समस्या पुरानी है। जटिल भी है। किन्तु एक्चुअली समस्या यह है कि पिछले छह माह से एक जून खाती हूँ, भूखमरी के कगार पर हूँ। रिटायरमेण्ट के बाद ढाई वर्ष तक वे मुझे पन्द्रह सौ प्रतिमाह देते रहे, किसी तरह चल जाता रहा किन्तु छह माह पहले उन्हें लकवा मार गया था। अभी भी बिस्तर पकड़े हुए हैं। पेंशन बिल पर अँगूठे का निशान लगाकर मेरा बेटा यहाँ से चेक ले जाता है फिर कैसे क्या होता है हमें मालूम नहीं है। मगर मेरा बेटा मुझे पाँच सौ देता है। मैं और माँगती हूँ तो नहीं देता है।" 

-"आपके पति होशो हवास में अँगूठे का छाप देते हैं या फिर आपका बेटा जोर जबरदस्ती करवा लेता है ?"

-"पूरे होश में। पहले तो मैं लड़-झगड़कर, उधम मचाकर जरूरत भर की रकम ले लेती थी मगर अब मैं थक चुकी हूँ, शरीर साथ नहीं देता, ऊँचा बोलने में कष्ट होता हौ. ..मुझे कष्ट देने में उन्हें आनन्द मिलता है।"

उसकी बातें अटपटी लगती हैं। मुझे उस पर यकीन नहीं होता है। हकीकत जानने के लिए मैं तहकीकात करता हूँ-"आपने तलाक़ क्यों नहीं दे दिया था ? डिवोर्स हो गया होता तो यह प्रॉब्लम नहीं आती। जब इतनी परेशानी थी तो डिवोर्स ले ही लेना चाहिए था। आपकी मुश्किल आसान हो जाती। उनके वेतन से आपको हिस्सा बल्कि अपना हक मिल जाता।"

-मैं चाहती थी। मैं तलाक़ दे देना चाहती थी। पहल नहीं कर सकती थी। मजबूरी थी।" 

-"बुढ़ापे में रिटायरमेण्ट के बाद ऐसी समस्या ? बुढ़ापे में ही लाइफ पार्टनर की अहमियत समझ में आती है, जवानी में मनमुटाव, नोंक-झोंक होती रहती है, तलाक़ भी हो जाता है। लेकिन आप लोग बुढ़ापे में."

-"नहीं सर! बुढ़ापे में नहीं, लम्बे समय से। बल्कि शुरू से बुढ़ापे में ज्वालामुखी फूट पड़ा है।"

-"आपके पति ने इस दफ्तर में इतने वर्ष नौकरी की, यहाँ के सभी जानते हैं कि वह एक शरीफ आदमी हैं, उनके बारे में कभी किसी ने कोई किस्सा नहीं सुना, बड़ा अजीब लग रहा है यह सब विश्वास नहीं हो रहा है....इस दफ्तर के लोगों को तो एक-दूसरे की बेडरूम तक की ख़बर रहती है।"

-"विश्वास नहीं हो रहा है तो छानबीन करवा लीजिए। सर! मैं आपको वैम्प लग रही हूँ क्या ?...... इंसान के जब बुरे दिन आते हैं तो उस पर कुत्ते भी पेशाब कर देते हैं। पता नहीं और क्या कुछ सुनने के लिए जिन्दा रहना पड़ेगा। मेरा घर शाहगंज में है, मकान नम्बर एफ-५०१/२१/० आप जाँच करवा लीजिए, सच्चाई जान जाएँगे। मोहल्ले का बच्चा-बच्चा मेरे घर का किस्सा जान चुका है। कोई भी इस अभागिन की कहानी सुना देगा।"

मैं महसूस करता हूँ कि अनचाहे ही मैंने उसे जलील कर दिया है। खुद को सँभालते हुए मैं कहता हूँ-"नहीं, अविश्वास नहीं। मैं सोच रहा था यह कैसी कहानी है ?"

-"यह कहानी है घुटन की। नारी के घुटन की कहानी है। पुरुष प्रधान समाज में पुरुष द्वारा नारी को पालतू जानवर से भी बदतर ज़िन्दगी जीने को विवश करने की कहानी है। यह कहानी है एक खूबसूरत अभागिन की, एक अभागिन जिसके लिए खूबसूरती वरदान नहीं अभिशाप सिद्ध हुई। एक बेकसूर की जो रौंदी जाती रही, जिन्दगीभर रौंदी जाती रही। टूटती रही, मरती रही, मर-मरकर जीती रही।"

उसकी बातों को सुनने के बाद मैं उसे देखने के नज़रिए से देखता हूँ। वाकई बेहद खूबसूरत है वह । खण्डहर बता रहा है इमारत क्या चीज थी। पचास की दहलीज पर होगी, अभी भी उसका रूप देखने योग्य है।

मैं कहता हूँ-"जी, आप खूबसूरत हैं। किन्तु आप....... "

-"किन्तु विन्तु नहीं, अपने समय में मैं उतनी खूबसूरत थी जितनी आप कल्पना कर सकते हैं और वही खूबसूरती मेरे जीवन में अभिशाप बनी।"

- "अभिशाप ? किस तरह ? कोई दुर्घटना घटी थी ?" 

- "कह सकते हैं....... जिस दिन मेरी सुहागरात थी उसी दिन बहू भात था। रात को इन्होंने अपने दोस्त-यारों से परिचय करवाया था। हँसी-ठिठोली में किसी ने कहा “तू बड़ा भाग्यवान है, बन्दर के गले में मोती का हार", किसी ने कहा था "पकड़कर रखना भाभी कहीं हीरोइन बनकर बम्बई भाग न जाय"। एक ने तो हदें पार कर दी थी।...... उसने कहा था “तू इस चीज़ को एक रात के लिए दे दे मैं जिन्दगी भर तेरा गुलाम बना रहूँगा”......सारी बातें घरकर गयी थी। जाने कितनी रातें, कितने दिन चौपट हुए उन सारे दोस्त यारों से उन्होंने दोस्ती ख़त्म कर दी......मुझे वह शक की निगाहों से देखते....... दफ़्तर जाते तो बाहर से ताला डालकर, बच्चे बड़े होने लगे तो ताला नहीं डालते पर घर लौटकर बच्चों से पूछते मैंने खिड़की से तो नहीं झाँका था, छत पर तो नहीं चढ़ी थी। कभी-कभार दस-पन्द्रह दिनों के लिए दौरे पर जाते तो अपनी सौतेली माँ को अपने भाई के घर से ले आते थे रखवाली के लिए और वह चुड़ैल कहाँ नारी दमन के ख़िलाफ उस मर्द को समझायेगी उल्टा तेल छिड़कती थी अक्सर मेरा मन चाहता अपने ऊपर तेल छिड़ककर मुक्ति पा लूँ। एक दिन अपने ऊपर तेल डाल चुकी थी, माचिस की तीली भी ले ली थी मगर धड़ाम से गिरने की आवाज़ और मेरे बेटे की चीख सुनायी दी......मैं दौड़ गयी थी, वह सीढ़ी से गिर पड़ा था, सिर फूट गया था......उसके बाद दुबारा साहस नहीं जुटा सकी थी। बच्चों की खातिर मैं जीती रही, सहती गयी। मन-ही-मन सुबकती रही, अपना आँसू पीती रही, हर रोज़ पीती रही। मैं तिल-तिल मरती रही, मर-मरकर जीती रही। सोचा था बच्चे बड़े हो जायेंगे तो मेरी पीड़ा समझेंगे, दुःख बाँट लेंगे मगर बड़ावाला अपने बाप पर गया, बना भी अपने बाप का नारी जात के प्रति उसकी सोच, उसकी भावना बाप जैसी मेरी कोख से जन्मा वह नर पुरुषसत्ता का उत्तराधिकारी बना......दूसरा बेटा अपने बाप से डरता, बाप के मुँह पर कुछ नहीं कहता किन्तु मेरा ख्याल रखता, मुझे सपोर्ट करता...... मैं तो जैसे पैदा ही हुई थी दुःख-दर्द झेलने.......दूसरा बेटा बीस वर्ष का था, इण्टर पास, मगर चालाक चतुर, तेज-तर्रार एकदम अपने नाना जैसा। वैसा ही कद, वैसी ही काठी, बहादुर, मृदु स्वभाव का 'कारगिल' युद्ध के दौरान फौज में भर्ती होने के लिए 'दानापुर' गया था...... बेरोजगारी इतनी कि दस की ज़रूरत हो तो दस हजार पहुँच जाते हैं।..... दानापुर का वह किस्सा आपने सुना होगा, ट्रेंच में अनेक लड़के गिर पड़े थे, भगदड़ मची थी, गोलियाँ चली .........सेलेक्शन से पहले ही मेरा बच्चा शहीद हो गया था। देश के लिए कुर्बान होने का शौक था उसे एन० सी० सी० करता था, एन० सी० सी० का ड्रेस पहनकर सैलूट मारकर मुझसे कहता 'जयहिन्द !' मैं आशीर्वाद दिया करती 'तेरी इच्छा पूरी हो....... जय हिन्द ! मेरे लाल जय हिन्द।'तू वर्दी पहनकर शहीद हो गया होता तो तेरी माँ आज न रोती ...सुमन का आँचल खाली हो गया। क्या बचा है अब मेरे जीवन में? मैं जीयूँ तो किसके लिए, रोऊँ तो किसके लिए ?"

मुझे उस पर दया आती है बल्कि 'एम्पैथी' होती है किन्तु मेरे पास उसकी समस्या का निदान नहीं है।

जब तक यह कथानक आगे नहीं बढ़ेगा मेरी कहानी संरचना पूरी नहीं होगी। इसे आगे बढ़ाने की मंशा से मैं कहता हूँ-“आपको अपनी समस्या लेकर नारी संगठन के पास जाना चाहिए था।"

- "पेंशन का दफ़्तर आपका है, भुगतान आप करते हैं, संगठन से क्या मतलब है ?"

-"पेंशन तो बाद की बात है। प्रॉब्लम क्रानिक है। पूरी जिन्दगी आप उत्पीड़न सहती रहीं, मर-मरकर जीती रहीं, इस पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए आपको नारी संगठन, ह्यूमन राइट्स, अदालत कहीं-न-कहीं जाना चाहिए था। " 

-"मैं गयी थी। 'नारी मुक्ति संगठन' की सचिव मिसेज अंजना से मिली थी। वह बोली जब तक मेरे पति मुझे लात-घूँसा मारकर घर से निकाल नहीं देते, जब तक पति द्वारा दी गयी प्रताड़ना का सबूत मैं अपने बदन पर पड़े दागों से प्रस्तुत न कर सकूँ, जब तक मैं दो-चार चश्मदीद गवाह पेश न कर सकूँ तब तक प्रताड़ना सम्बन्धी मामला बनता नहीं है. ..वह मेरा मजाक उड़ाकर बोली कि पति-पत्नी का कलह, आपस की नोक झोंक घर-घर की कहानी है। वह बोली मैं अगर लिखित शिकायत करूँ तो वह अख़बारों में छपवाकर मेरे पति की मिट्टी पलीद कर सकते हैं। बेनकाब हो जाने के बाद प्रताड़ना करना मुश्किल हो जाएगा... मैं सहमत नहीं हुई थी। ऊपर थूकने से अपने ही ऊपर थूक गिरता । यह भी सम्भव था कि वह मुझ पर लात घूँसा जमाने लगते। मिसेज अंजना बोली कि उसके पति हाईकोर्ट में सीनियर एकवोकेट हैं, वह अगर अपने पति को मेरा केस टेकअप करने के लिए राजी करवा लेती तो मुझे बिना डिवोर्स के ही प्रतिमाह अच्छी रकम तथा मेण्टल टॉर्चर के कम्पेनसेशन के रूप में एक मुश्त मोटी रकम दिलवा देंगे। उसने पति की फीस इक्कीस हजार बतायी थी। बिना उत्तर दिये, बिना नमस्ते किये उसके घर से मैं लौट आयी थी।.. ...मैंने क्या कुछ नहीं किया था। एक बड़े ज्योतिष ने मुझे यह नग पहनने को कहा था। उसने कहा था इसे पहनने से मेरी शनि की साढ़े साती उतर जायेगी। इसे पहनने के लिए मैंने अपना झुमका बेच दिया था।"

अपनी व्यथा-कथा सुनाते-सुनाते उसकी आँखें बार-बार छलछला जातीं। आवेदन-पत्र मेरी ओर बढ़ाकर वह कहती-"सर। इसमें मेरी प्रार्थना है, आप चाहें तो जाँच करवा लीजिएगा! काईण्डली मेरे नाम से दो हजार रुपये का चेक जारी करने का ऑर्डर कर दीजिएगा! पता नहीं, ऊपर कोई भगवान् है या नहीं फिर भी यह अभागिन आपके लिए दुआ माँगेगी।”

अब मैं अजीब उलझन में फँस गया हूँ। कहानी ऐसा मोड़ ले लेगी मैंने इसकी कल्पना भी न की थी और न ही इससे पहले कभी इतना बुरा फँसा था।

मैं कम्प्यूटर का माउज चलाता हूँ। सरसरी निगाह से एक-एक रूल पढ़ता हूँ, बार बार अप एण्ड डाउन करता हूँ, दिमाग पर प्रेशर भी डालता हूँ, मगर कहीं कुछ नहीं दिखता। मैं जान रहा था मेरा यह कम्प्यूटर भानुमती का पिटारा है, पूरी दुनिया को देने के लिए इसके पास कुछ-न-कुछ होगा जरूर मगर यह तो ऊँची दुकान फीका पकवान निकला। सुमन की ओर मुखातिब होकर भारी हृदय से मैं कहता हूँ-"सॉरी मैडम! कोई नियम नहीं है जिससे मैं आपकी मदद करूँ।"

"नहीं है तो बनाइए, नया नियम बनाइए। जमाना कितनी रफ्तार से बदला है, हर पल हर क्षण बदलता जा रहा है और आपके नियम वहीं के वहीं हैं ? जब तक मैं अपने घर की इज़्ज़त को सड़क पर न उतार फेकूँ, इस दफ़्तर के बाहर या कचहरी के सामने आमरण अनशन पर न बैठूं या पति की मौत न हो जाए क्या तब तक मुझे अपना हक नहीं मिल पायेगा ? यह कैसा नियम है ?"

-"सॉरी मैडम! मुझे आपसे हमदर्दी है, आपकी व्यथा और आपका आक्रोश मैं समझ रहा हूँ किन्तु नियमों के मुताबिक आपको अलग से मिलने का हक तब तक नहीं प्राप्त होता है जब तक आपका डिवोर्स न हो जाए .....या फिर उनकी मौत।”

वह चीख उठती-"पता नहीं यह कैसा नियम, कैसा विधान है यह। पति जीवित रहे तो भूखा मरूँ, मर जाये तो भरपेट खाऊँ। मेरा सुहाग रहे तो कुछ भी मेरा नहीं, न रहे तो सब कुछ मेरा.......मौत भी तो नहीं आती है उनको, मैं तो कब से उनकी मौत की कामना कर रही हूँ।”

वह रोने लगती है। फूट-फूटकर रोती है। मैं उसे रोने देता हूँ। सुबकना, आँसू पीते रहता सेहत के लिए अच्छा नहीं है। रोने से मन का बोझ उतर जाता है, निर्णय लेने की क्षमता विकसित होती है। वह रोती है। मैं उसे रोने देता हूँ। 

मेरे अधीनस्थ दोनों अधिकारी दरवाजे के बाहर कान लगाये खड़े हैं, वे इसके आदी हो चुके हैं। उन्हें मालूम है मेरा यह कमरा कथापीठ है। अपाहिज़ों, आश्रितों, मासूम बच्चों की मार्मिक कथाओं से भरा हुआ है यह कमरा।

अब कथानक को उसके मुकाम तक पहुँचाने के लिए एक टर्निंग पॉइण्ट की ज़रूरत है। अभी इसी वक़्त अगर उसका पति कमरे में दाखिल हो जाए और उसकी पीठ पर हाथ रखकर कहे- "चलो घर! सुमन! मुझे अपने किये पर पछतावा है, मैं भी तड़प तड़पकर जीता रहा, न जी सका, न ही मर सका, तुम भी तो मुझे एहसास दिला सकती थी कि तुम मेरी रहोगी, सिर्फ़ मेरी, तो मेरे मन के भीतर का खौफ निकल जाता।चलो सुमन। चलो घर। तुम मुझे माफ नहीं करोगी ?"

और फिर वह महिला कुर्सी से उठकर पति के वक्ष पर मस्तक पटकने लगे तो कहानी का सुखद अन्त हो जाएगा। फिल्मों से जनता को सुखान्त की आदत पड़ चुकी है।

मगर कथानक की गम्भीरता के मद्देनज़र कथाकार अपने विविध अनुभवों के आधार पर एक मार्मिक, हृदय विदारक अन्त खोज लेता है।

सुमन के बेटे का फोन आता है। पेंशन वितरक अधिकारी सुमन को सूचित करता है कि वह पति की मौत की कामना कर रही थी, ऊपरवाले ने सुन ली है। वह अब नहीं रहे।

ख़बर सुनकर सुमन चीख उठती है, मुट्ठियाँ भींच लेती है, फिर रोती-कलपती दोनों मुट्ठियों को जोर-जोर से मेज पर पटकती है, हरी काँच की चूड़ियाँ चूर-चूर होकर

बिखर जाती हैं और सुमन की गोरी कलाइयों से खून रिसने लगता है।

लेकिन कहानी का अन्त कितना ही मार्मिक क्यों न हो, कहानी कितनी अव्वल क्यों न हो, पहली रीडिंग के बाद दूसरी रीडिंग में पाठक उसे खारिज कर देगा अगर वह उसके अनुभव से न गुजरे और सच्चाई की कसौटी पर खरी न उतरे।

कोरी कल्पना को थोपने की बजाय कथाकार कहानी को उसके स्वाभाविक, वास्तविक अन्त पर ख़त्म करता है।

पेंशन नियमावली में उस प्रताड़ित, विक्षिप्त, मदद की गुहार लगाती महिला के लिए कोई नियम न मिल पाने से कथाकार आहत होता है। सुमन के पति द्वारा किया गया अपराध एक ऐसा अपराध है जिसे पुरुष प्रधान सामाजिक व्यवस्था में दण्डनीय अपराध नहीं माना गया है। जब तक यातना दाग या जख्म की शक्ल में दिखायी न दे तब तक उस यातना को दण्डनीय अपराध नहीं माना जा सकता है। यातना जब जघन्य, हिंसक, निर्मम रूप ले लेती है तभी वह कानून के दायरे में आती है।

वैसे कानून के हाथ लम्बे होते हैं। अंजना के पति की हथेली में अगर वह प्रताड़ित महिला इक्कीस हजार दूँस देती तो कानून हाथ विशालकाय होकर पाताल से कोई द्रव्य ढूँढ़ लाता जो उसकी शनि की साढ़े साती उतार फेंकता। मैं महसूस करता हूँ कि उसकी मदद करना कहीं-न-कहीं मेरी नैतिक जिम्मेदारी

है। सुमन की समस्या आज की जटिल समस्या है, नारी अस्मिता की समस्या है। उसके आवेदन पत्र को मैं अपने पास रख लेता हूँ।

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शहादत
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सुबह अखबार पलटता हूँ। 'स्थानीय समाचार' (पेज थ्री) के स्थान पर लिखा हुआ है 'शहर की कहानियाँ । 

कहानी की नयी परिभाषा मेरे दिमाग में नहीं घुसी फोन मिलाकर अपने पत्रकार मित्र से पूछता हूँ-"क्या अब से समाचार को भी कहानी माना जाएगा ?"

खुद को सही ठहराते हुए वह कहता है कि अंग्रेजी न्यूज चैनेल में बहुत दिनों से न्यूज रीडर द्वारा 'मेन स्टोरिज ऑफ दि डे आर' कह के समाचार पढ़ा जा रहा है। काफ़ी देर तक बहस चली। मैं दफ्तर पहुँचता हूँ। सुबह से हल्की-हल्की बारिश हो रही थी, दोपहर होते-होते तेज हो गयी।

आज दफ्तर में अघोषित 'रेनी डे' है। मेरा बच्चा सुबह मना रहा था कि स्कूल में 'रेनी डे' हो जाय किन्तु हुआ नहीं, सारे स्कूल खुले हुए थे। 

कार्यालय में कर्मचारी नहीं है सो कोई 'कर्म' भी नहीं है।
कहानी की तलाश में मैं अपनी डायरी पलटता हूँ। 

'कारगिल' युद्ध से सम्बन्धित छोटी-बड़ी घटनाओं का जिक्र है इसमें 'कारगिल' की पृष्ठभूमि पर उपन्यास लिखने के इरादे से मैंने उन तमाम तथ्यों तथा घटनाओं को नोट कर रखा है जो अत्यन्त हृदय विदारक व हतप्रभ करनेवाली थी। 

मेरे नोट्स में उन बेशुमार लोगों की मार्मिक कहानियों का शुमार है जिनकी चीखें युद्धोन्मत्त लोगों के विजय डंका के शोर में विलीन हो जाती हैं।

मेरी आँखों के सामने उस शोकातुर वृद्ध पिता का क्रुद्ध चेहरा आ जाता है जिसकी आवाज़ प्रायः मेरे कानों में गूँजती है-"मुझे नाज़ है अपने बेटे पर देश की खातिर उसने अपनी आहुति दे दी। मगर यह देखना चाहिए इस त्रासदी के लिए जिम्मेदार कौन है? इतने सारे आंतकवादी कैसे घुस आये ? इसकी सूचना पहले क्यों नहीं मिली ? समय रहते कार्यवाई क्यों नहीं की गयी ? इतनी सारी मौतें क्यों हुई ? इसका जिम्मेदार कौन ?.... मैं उन्हें गुनाहगार मानता हूँ। गुनाहगार को उसके किये की सजा मिलनी चाहिए।"

एक दर्दनाक कथा। एक क्षुब्ध पिता की कथा जो कभी भी स्मरणीय कहानी में तब्दील नहीं हो पायेगी। अनुत्तरित रह जायेंगे उनके प्रश्न। मेरे पत्रकार मित्र ने शायद ठीक ही कहा था ऐसे प्रश्न किसी-किसी को क्षणिक उद्वेलित तो करते हैं किन्तु आहत किसी को नहीं। जटिल प्रश्नों का उत्तर जानना बौद्धिक विलासिता है इस युग में।

पलक झपकते शोकातुर पिता का चेहरा लुप्त हो जाता है और इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि ट्रेजेडी में कामिक्स आ जाता है। टेलीविजन के स्क्रीन पर विश्वसुन्दरी अपनी कोमल त्वचा का राज़ बताने लगती है और अंग-अंग की कोमलता का राज़ जानने के लिए पारखी नज़रें तल्लीन हो जाती हैं 'मधुशाला' में।

डायरी का पन्ना पलटता हूँ। कारगिल के दुर्गम पथ पर बोफोर्स धमाका, बोफोर्स की कामयाबी, बोफोर्स पर चल रहा अन्तहीन विवाद, जवानों की लाशें, ताबूत की खरीद फरोख्त में कमीशन खाने का आरोप, सबूत के अभाव में लाशों का दुखान्त आदि तमाम किस्सों के बारे में सोचते-सोचते मेरे मानस पटल पर और एक करुण कथा मण्डराने लगती है जो शायद ही इतिहास के पन्नों में दर्ज हो पाये।

कथा है पाकिस्तान की एक युवती की क्या नाम था उसका मालूम नहीं है। नाम भी रहा हो कथाकार को इससे मतलब नहीं है। वैसे कहानी के लिए उसका नाम कुछ रेहाना रखता हूँ। रेहाना का शौहर आर्मी अफ़सर, अपनी मर्दानगी, अपना ज़ज्बा दिखाता हुआ मुल्क की सरहद पारकर आ पहुँचा था इस मुल्क में और शिकार हुआ था हिन्दुस्तानी फौज का ।

उस आर्मी अफ़सर की लाश को पाकिस्तानी फौजी हुकूमत ने लेने से इनकार कर दिया था।

पाकिस्तान का दावा था कि उसका कोई भी फौजी युद्ध में शिरकत नहीं कर रहा था। घुसपैठ करनेवाले आतंकवादी थे।

रेहाना को क्षोभ है कि उसके बहादुर शौहर के नसीब में उसके वतन की छह की जमीन भी न थी।

फुट रेहाना का आखिरी ख़त हवा में लहराता हुआ दिखायी देता है। रेहाना ने लिखा था- "उस दिन हमारी पैंतालीस मिनट की बात फोन पर मैं तुम्हें बहुत कुछ कहना चाहती थी, कह नहीं पायी.......कल मेरा जन्मदिन है और सण्डे को तुम्हारा, मगर तुम्हारे बिना सब कुछ बेमानी लगता है........ की दुआ माँगती हूँ.... ..पाँच बार नमाज़ अदा करती हूँ, तुम्हारी ख़ैरियत ........ दुबारा बात करना,...... .. बन्नी को तो तुमने अभी तक देखा भी नहीं, वह एकदम तुम पर पड़ी है, उसके ऊपर के दो दाँत निकल आये हैं, मैं उससे कहती हूँ 'पप्पी दो' वह दाँतों से गाल काट देती है, दिन-भर 'ताम-ताम ताम-ताम' जाने कौन-सा लफ़्ज़ निकालती और हँसती रहती है। एक नम्बर की शैतान है, तंग करती है दिन-भर जल्दी से घर लौटो और संभालो अपनी नॉटी गर्ल को.......बस अब और नहीं लिखा जा रहा है, आँखों से आँसू आ रहे हैं, खुदा सही सलामत रखे। अपना ख्याल रखना...... रेहाना।”

बन्नी अब कुछ बड़ी हो गयी है। वह जान गयी है कि हर बच्चे का अब्बू होता है। वह अपने अब्बू के बारे में पूछती है।

रेहाना अपनी बेटी से कहना चाहती है कि उसका अब्बू एक जांबाज़ फौजी अफसर था जिसने जंग में दुश्मनों के दाँत खट्टे कर दिये थे, सैकड़ों को मौत के घाट उतारकर शहीद हो गये थे। वह कहना चाहती है कि उसे अपने शौहर पर नाज़ है और बेटी को भी अपने बाप पर फ़न होना चाहिए।

मगर लाख कोशिश के बावजूद रेहाना अपनी बेटी से झूठ नहीं बोल पाती। उसका दिल गवाही नहीं देता।
कथाकार चाहता है कि रेहाना अपनी बेटी बन्नी को हकीकत से वाकिफ़ करा दे।

रेहाना अपने शौहर के कब्र के पास बन्नी को ले जाकर दिखलाना चाहती है कि उसके अब्बू के हत्यारों ने अब्बू को पाकिस्तानी झण्डे से ढँककर अपने देश की छह फुट जमीन में दफ़नाकर शहीदी सलाम दिया था।

रेहाना अपने शौहर को शहीद नहीं बोल पाती।

रेहाना दुश्मनों को दुश्मन नहीं मान पाती। हत्यारों को हत्यारा नहीं मान पाती। रेहाना जानना चाहती है गद्दार कौन है ? वह जानना चाहती है उसके पति की मौत के लिए कौन जिम्मेदार है ? 

रेहाना ख़ामोश रहती है। ख़ामोशी में वह अपनी ख़ैर समझती है। सच बोलना उसके लिए गुनाह है। गुनाहगार बनकर रेहाना अपनी और बन्नी की ज़िन्दगी बर्बाद नहीं करना चाहती है। यही इस कहानी का सच है।

शोकातुर वृद्ध पिता की तरह रेहाना अपनी भड़ास नहीं निकाल सकी थी। अपनी भड़ास निकाल दी होती तो शायद अपने ज़मीर पर अपना ऐतबार रख पाती, घूमती-फिरती लाश बनने से बच जाती।

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इच्छा मृत्यु की मांग
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कार्यालय बन्द होने में अभी भी एक घण्टा बाकी है।
इस समय मूसलाधार बारिश हो रही है। रेनकोट निकालकर मैं निकल पड़ता हूँ। फाटक के पास कोई साधन न देख मैं पैदल चल पड़ता हूँ। चलता रहता हूँ। सड़क के पॉश एरिया से गुजरता हूँ। कहीं कोई साधन नहीं दिखता है। थोड़ी-थोड़ी देर में कोई भारी वाहन गुजरता है और मैं ख़ुद को सँभालता।

सड़कों पर कहीं दो इंच, कहीं चार और कहीं-कहीं एक फुट जलभराव है। अपने घर की हालत कैसी हुई होगी यह सोचकर भयभीत होता हूँ। गंगा किनारे बाँध के नीचे बसा मेरा मोहल्ला कभी-कभार बरसात में थोड़े दिनों के लिए तालाब बन जाता है। एक बार 'मोरी गेट' खुला रह जाने से गंगा जी का पानी पूरे शहर में फैल गया था, ऊपर से हफ़्ते भर की लगातार बारिश ने और तबाही मचा दी थी। मेरा मकान छह फुट पानी में डूबा हुआ था इक्कीस दिन।

मेरे जीवन का बहुमूल्य खजाना डूब गया था। दो उपन्यासों की पाण्डुलिपियाँ और सारे कतरन जिन्हें मैंने अथक परिश्रम से उपन्यास के लिए कलेक्ट किया था, डूब गये थे। डूब गयी थी ढेर सारी दुर्लभ, बेशकीमती पुस्तकें। निमिष में दशक का श्रम पानी में डूब गया था और जलभराव ने लिख दी थी मेरे जीवन में एक असमाप्त निर्मम कहानी।

किन्तु मुझे इत्मीनान है इस बार मेरा कुछ नहीं डूबेगा इंतजाम पुख्ता है। जलभराव से न कोई कहानी बनेगी, न ही कोई कहानी मिटेगी। 

मेरी आँखों के सामने मैत्रेयी पुष्पा की कहानी 'राय प्रवीण' की बाढ़ का दृश्य आ जाता है। मैं उस कहानी के साथ आगे बढ़ता हूँ।

चलते-चलते मुझे एक चीख सुनायी देती है। बाँये देखता हूँ। बौछारों के बीच में से मैं गौर करता हूँ कि फुटपाथ से लगी गुमटी के नीचे कोई बैठा हुआ था। मैं उसे देख अनदेखा कर आगे बढ़ना चाहता हूँ। वह फिर गुहार लगाता है। मैं रूक जाता हूँ। उसके क़रीब जाता हूँ।

गुमटी के नीचे एक मोटा-सा अधेड़ उम्र का आदमी बैठा हुआ दिखता है। 

-"बोलो क्या बात है ?" है

- "कल रात से कुछ नहीं खाया, बहुत भूखा हूँ, रोटी चाहिए।"

- "रोटी क्या जेब में रहती है ?" 

- "बाबू! आपकी जेब में रोटी न सही रुपये तो होंगे ही।"

- "हट्टा-कट्टा आदमी भीख माँगते शर्म नहीं आती? जब से तुम्हारे जैसे तन्दुरुस्त लोग भीख माँगने लगे हैं लोगों ने भिखारियों पर रहम करना बन्द कर दिया है।"

मैं आगे बढ़ता हूँ फिर जाने क्यों दया आ जाती है। जेब से एक रुपये का सिक्का निकालकर उसकी ओर बढ़ाता हूँ।

वह हाथ बढ़ाकर फिर अचानक नीचे उतारकर कहता है-"दस रुपया दो।" मैं हँसकर आगे बढ़ जाता हूँ। उसकी ज़बरदस्त चीख से फिर रुक जाता हूँ। औंसा होकर वह मदद माँगता है। 

भिखारी के नाम से निकला हुआ सिक्का भी मेरी मुट्ठी में है, इसे मैं जेब में रखने से कतराता हूँ। मुझे लगता है यह सिक्का अब उसका है, इस पर अब मेरा हक नहीं है, मैं मुट्ठी खोलकर सिक्का बढ़ाता हूँ.. ..... वह झट से मेरी कलाई पकड़ लेता है। मैं सहम जाता हूँ। उसकी आँखें अँगार हो उठती हैं।

मैं शोर मचाना चाहता हूँ मगर दूर-दूर तक कोई नहीं दिखता। अति विनम्रता से मैं कहता हूँ - "छोड़ो मैं तुम्हें और देता हूँ, छोड़ो भाई और एक रूपया दूँगा।"

वह तपाक से कहता है-“दो रुपया से क्या होता है आजकल ? इतना बड़ा पेट है... .. कल शाम से यहीं हूँ। खाली पेट सोचा था सुबह कहीं निकल जाऊँगा मगर इतनी बारिश, कोई वाहन नहीं दिखता, कैसे जाऊँ ? पेट में दर्द है, भूख से पेट पीड़ा कर रहा है, सुबह बहुत दर्द था इस वक़्त थोड़ा-सा कम हुआ है, दोपहर से कोई नहीं दिखायी दिया, तुम पहले आदमी हो......भूख से पेट में कैसा दर्द होता है तुम्हें क्या मालूम ? नहीं मालूम।ए बाबू, तुम शक्ल-सूरत से साहब लगते हो, कीमती घड़ी पहने हुए हो, सोने की तीन-तीन अँगूठियाँ भी हैं, कीमती नग जड़े हुए हैं, भूखे को दस रुपया देने से तुम ग़रीब हो जाओगे क्या ? जाओ जाऊँगा।” तुम, मैं भूख से मर जाऊँगा।

वह एक झटका देकर मेरा हाथ छोड़ देता है।

अब मैं उससे नहीं डरता हूँ। मन में नाराज़गी है किन्तु अजीब मुसीबत में फँस गया हूँ। उसकी हरकत देख एक ढेला देने का मन नहीं कर रहा है और उसे बिना चले जाने में कमीनापन लग रहा है। मैं जेब टटोलता हूँ। डेढ़ रुपया निकालकर कुल ढाई रुपये बढ़ाता हूँ। वह दुबारा मेरी कलाई पकड़कर अधिकारपूर्वक कहता है- “बाबू, तुम्हारे कुछ दिये लिये दस रुपया क्या है ? हाथ का मैल है। जब से तुम कमा रहे हो किसी को दस रुपए नहीं दिये तभी ढाई रुपया निकालने में इतनी तकलीफ़ हुई। रख लो इसे।"

वह मेरा हाथ छोड़कर कहता-"मैं तुम्हारे बदरंग आत्मा को चाक-चौबन्द बना सकता हूँ। तुम मुझे दस रुपया नहीं दे सकते मैं तुम्हें बहुत कुछ दे सकता हूँ, बस तुम्हें एक काम करना पड़ेगा।"

मैं डगों को आगे बढ़ा चुका था किन्तु उसकी बातों से चकित होकर पीछे पलटकर पूछता हूँ-“बोलो तुम मुझे क्या दे सकते हो ? भीख माँग रहे हो और रंगबाजी के साथ !” 
-"मैं तुम्हें जो कुछ अपना है सब दे सकता हूँ बस तुम्हें एक काम करना पड़ेगा। इस पापी पेट की ख़ातिर मैं कभी यहाँ तो कभी वहाँ, न खाने का ठिकाना, न रहने का..... "

कौतूहल के बावज़ूद मैं उसके पागलपन में नहीं आना चाहता था। वह मेरी आत्मा को कोस चुका था, मुझे बाद में अफ़सोस न हो इस कारण मैं दस रुपया निकालकर कहता हूँ-"लो, रख लो इसे, सचमुच अगर भूखे हो तो खाना खा लेना, बारिश थम रही है। मैं चलता हूँ।"

मैं आगे बढ़ जाता हूँ। 'बैहराना' से पहले रेलवे ओवरब्रिज के पास एक 'स्टूडेण्ट्स 'भोजनालय' में टिफिन देख दिमाग में आता है क्यों न रोटी-सब्जी लेकर उस भिखारी को देकर अपनी 'बदरंग आत्मा' की थोड़ी-सी सफाई कर लूँ। ठीक ही तो कहा था उसने, मैंने कभी किसी को दस रुपये दान नहीं किया था। मगर क्या काम है उसका ? किस काम के लिए वह अपना सर्वस्व देना चाहता था ? होगा ही क्या उसके पास ऐसा भी किस्सा सुन रखा है कि भिखारी के मरने के बाद उसकी पोटली से चालीस-पचास हजार पाये गये। मगर किस काम के एवज़ वह मुझे सब कुछ देना चाहता था ? मुझे किसी से कुछ नहीं लेना है, पर एक भिखारी कां कोसना मुझे बर्दाश्त नहीं करना चाहिए। क्या कहा उसने मेरी आत्मा बदरंग है ? नहीं नेकी मुझे भी आती है। 
एक पन्नी में रोटी-सब्जी और पानी की एक पन्नी लेकर मैं पहुँचता हूँ।

आहार पाते ही वह गपागप खाने लगता है और कहता है-"बाबू माफ़ करना भूख के कारण तुम्हें उल्टा-सीधा कह गया। अल्लाहताला से मैं तुम्हारे लिये दुआ माँगूगा। तुम वाकई नेक इंसान हो खुदा तुम्हारा भला करे!”

मैं अपनी जिज्ञासा रोक नहीं पाता हूँ और उससे पूछता हूँ-“मगर एक बात बताओ तुम फ़कीर हो भीख माँगकर अपना पेट भरते हो तुम मुझे क्या दे सकते हो ?” वह हाजिर जवाब देता है- "अपनी दो आँखें, दो किडनी, खून सब कुछ अपनी मर्ज़ी से दे दूँगा। तुम बेचकर रईस बन जाओगे.... "

वह हँसने लगता है। मैं गुस्सा झाड़ता हूँ-“धत् साला पागल ! मेरा भी किस पागल से पाला पड़ा है।”

मैं डगों को ज्यों ही आगे बढ़ाता वह चीख उठता- "बाबू ठहरो! बाबू !”

मैं पीछे घूमकर उसे देखता हूँ। वह एक झटके से भारी कथरी हटाता है। मैं काँप उठता हूँ। उसके दोनों पैर कटे हुए थे। दो-चार मिनट लगते हैं खुद को सँभालने में। फिर सहानुभूतिपूर्वक पूछता हूँ-"यह कब से ? कैसे ?”

उसकी आँखें छलछला उठती हैं। उसकी असहाय अवस्था देख मैं तार-तार हो जाता हूँ। इतनी करुणा, इतनी वेदना इससे पहले मैंने कभी किसी के चेहरे पर देखी न थी। मैं दुबारा पूछता हूँ-"कब से ? कैसे ? जन्म से ?"

-"नहीं। तीन साल पहले। मैं भी तुम्हीं जैसा था। हट्टा-कट्टा, फुर्तीला । कमाता खाता था, खुशहाल था। घर-द्वार, बीबी-बच्चे सब कुछ था मगर.... "

वह फूट-फूटकर रोने लगता है। "कैसे खो दिया तुमने सब कुछ ? कैसे तुम्हारे पैर.....?

-"अहमदाबाद में अपना मकान है, कारोबार था कंस ने हर बार इन्तज़ार किया था, पैदा होने के बाद कत्ल किया करता था। मनहूस, बेरहम, शैतानों ने मेरी बीबी के पेट से सात महीने के बच्चे को निकालकर मार डाला था, कोई नहीं बचा था, मेरे मासूम बच्चों को नेजों पर उछालकर मार डाला था...... मैं सबको बचाना चाहता था। मैं अकेला था और वे थे.. .. हैवानों ने मेरा यह हश्र किया....." 

-"कौन थे वे ? पहचानते हो किसी को ? पहचान पाओगे ?"

-"वही जो 'बापू' का हत्यारा था............

.........बाबू तुम बताओ मैं कौन हूँ ?.. ..
..........बाबू तुम बताओ तुम कौन हो ?.............

.........मुझे जैसी भूख लगी थी तुम्हें वैसी भूख लगती है क्या ?" 

मैं चुप रहता हूँ। मेरी चुप्पी उसके जख्म पर मरहम का काम कर सकती थी। मैं उसने आगे कहा-"मेरा एक रिश्तेदार रहनुमा बनकर मेरी ज़िन्दगी में दाखिल हुआ। वह भी इंसान की शक्ल में हैवान निकला। हड़प लिया उसने। ज़ोर ज़बरदस्ती वसीयतनामे में दस्तखत करवा लिया. छोड़ गया मुझे, लावारिस कुत्ते से बदतर जिन्दगी जीने के लिए। जिन्दा दफना दिया होता मुझे, तो भी दम तोड़ते वक़्त दुआ देता उसे, पता नहीं किस गुनाह की सज़ा भोग रहा हूँ. कमबख्त मौत भी नहीं आती है, मैं मरना चाहता हूँ........ बाबू मैं दूसरा वसीयत लिख सकता हूँ ना ? मैं जिन्दा हूँ, मैं अपना मकान बल्कि अपनी हवेली दूसरे के नाम कर सकता हूँ ना ?" 

-"हाँ कर सकते हो।"

अभी भी काले और घने बादल घिरे हुए अन्धेरा छा चुका है। घर लौटने के लिए व्याकुल हूँ मगर उसकी कहानी अभी भी अधूरी है। उसकी एक-एक बात मेरी जिज्ञासा बढ़ाती है। मैं आगे बढ़ना चाहता हूँ तो वह कहता-“बाबू थोड़ी-सी मदद कर दो तो बड़ा अहसान होगा, तुम अपना यह दस रुपया ले लो, मैं यहीं बैठा रहूँगा, तुम मुझे एक पुड़िया जहर ला दो ना!"

-“क्या ?” मैं सातवें आसमान से गिरता हूँ।

-"तुम्हें कुछ नहीं होगा। कुछ नहीं। अपनी मौत की जिम्मेदारी ख़ुद लूँगा, जैसा तुम कहोगे मैं वैसा लिख दूँगा, मैं अपनी मर्ज़ी से मौत चाहता हूँ लिख दूँगा, कोई जिम्मेदार नहीं है, कोई नहीं, लिख दूँगा मैंने ख़ुद मौत को गले लगाया है......दंगे में जो बच्चे अनाथ बने हैं उनके नाम मैं अपनी हवेली लिखना चाहता हूँ, तुम चाहोगे तो तुम्हारे नाम कर दूँगा........बाबू तुम बहुत सोचनेवाले इंसान हो, सोचो बताओ मुझे इस तरह जीते रहना चाहिए या मरना चाहिए ?"

मेरे दिल की धड़कनें बढ़ जाती हैं। मेरे जीवन में यह पहला अवसर है जब मैं स्वयं को इतना असहाय, लाचार और मानसिक रूप से अपंग पाता हूँ। 

बड़ी मुश्किल से कह पाता हूँ-"माफ़ करना भाई। मैं तुम्हारे काम नहीं आ सकता। तुम्हारे लिये क्या करूँ समझ नहीं पा रहा हूँ। मैं अपनी सुध-बुध खो बैठा हूँ.......... 'इच्छा मृत्यु' की इज़ाज़त नहीं है कानून में आत्महत्या अधर्म भी है.... 

तुम्हारा हाल देख मैं दुःखी हूँ.......अल्लाहताला तुम्हारी मदद करें ! हाँ...... तुम्हारी पीड़ा उजागर कर मैं एक कहानी अवश्य लिखूँगा। शायद मुझे इसी कहानी की तलाश थी। ख़ुदा हाफिज़ !"

वह अट्टाहस करता है। फिर कहता है-"क्या ? तुम कहानीकार हो ? जानते हो आज का सच क्या है ? जानते हो आज की सबसे बड़ी कहानी क्या है ? यहाँ मैं हूँ, कायर बुजदिलों की कहानी, एक जिन्दा लाश, एक-एक रोटी को मुहताज़, जिसे दुनिया का कानून एक पुड़िया जहर देने की इज़ाज़त नहीं देता, जिसमें तुम्हारे जैसा बुजदिल कहानी तलाशता है और उधर दुनिया के ठेकेदारों का दाम्भिक यन्त्र, 'स्पिरिट' मंगलग्रह में उतरकर अपने पंखों को फैलाकर फुदक-फुदककर छह अरब इंसान से अलग किसी अजूबा इंसान की खोज कर रहा है. ....... बाबू तुम कायर हो, बुजदिल हो तभी मुझ जैसों पर घड़ियाली आँसू बहाते हो और चाहते हो तुम्हें सुनकर और लोग भी घड़ियाली आँसू बहायें.. ..तुम गपोड़ी हो, गम्प मारते हो, सच बोलने की हिम्मत नहीं है तुममें। क्या तुम लिख सकते हो गाँधियों की हत्याएँ क्यों करायी गयी थीं ?......."

वह ठहाके मारकर हँसता है कुछ देर, फिर अचानक गम्भीर होकर कहता "बाबू भागो, भाग जाओ, अभी वे हत्यारे आ जायँगे, तुम्हें मार डालेंगे। तुम्हें मालूम आज शहर में दंगा हुआ है, कर्फ्यू लगा हुआ है ? बाबू भागो, भाग जाओ वे आ रहे हैं, भीड़ आ रही है, वे तुम्हारे पैर काट देंगे...... भागो, बाबू भाग जाओ. ." फिर जोरों से हँसने लगता है। मुझे अब वह पागल लगने लगता है। लगता है वह सचमुच पागल हो गया है। चारों ओर सन्नाटा, अन्धेरा, घोर अन्धेरा। उसके पैर नहीं है फिर भी मैं डरने लगता हूँ। भाग निकलता हूँ। मानो जान छुड़ाकर, जान बचाने की कोशिश में भागता हूँ, बहुत
दूर तक उसकी चीख सुनायी देती है. 

"बाबू भागो, भाग जाओ, वे आ रहे हैं, भीड़ आ रही है....वे आ रहे हैं....
भागो, भाग जाओ.. .. "

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
( "कहानी की तलाश" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2006)

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