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Monday, September 5, 2022

कहानी- खून का रंग



सुहागरात पर अभिजीत ने पत्नी को एक सोने की अंगूठी भेंट की फिर एक बेशकीमती हार देकर कहा-यह हार मेरी दादी की और से।'
'दादी? तुम्हारी दादी?' पूजा चकित हुई।
"हाँ पूजा, मेरी एक दादी है....इस हार की चर्चा तुम माँ से, माँ से ही क्यों किसी से न करना क्योंकि दादी ने मुझे एक ही हार दिया था और अपना आशीर्वाद भी दिया था।'
"दादी की चर्चा तो तुमने पहले कभी नहीं की। तुम्हारी सगी दादी ?"
'अपनी ही दादी। कभी बात नहीं उठी सो।"
'कहानी लंबी है पर तुम मेरी अद्धांगिनी हो, तुम्हें मेरे अतीत की जानकारी रहनी चाहिए.....और एक बात मेरी दादी के संबंध में तुम मेरी माँ से कुछ भी नहीं पूछना क्योंकि मेरी माँ को मालूम नहीं है कि दादी जीवित हैं।'
'आश्चर्य!! ऐसा क्यों!!'
पूजा ने बहुत देर तक उस हार को गौर से देखा फिर कहा-कितना सुंदर! काफ़ी वजनी है, दस-बारह तोले का होगा। इतना सुन्दर उपहार किसी को पता भी नहीं चल पायेगा किसने दिया है क्योंकि पहनने से सब पूछेंगे ही। अजीब बात है, पहन भी नहीं पाऊँगी, कह भी नहीं सकूँगी। तुम्हें कैसे पता चला? किसने दिया?'

"लंबी कहानी है। आज रहने दो। फिर कभी ।"
"क्यों रहने दें? अभी बताओ ना?"
"सुहागरात है. कहानी सुनाकर रात बीता दूं? इट इज ए स्पेशल नाइट ।" अभिजीत ने ट्यूब लाइट ऑफ कर दी।

नाइट लैंप की रोशनी में पूजा हार को एकटक देखती रही। अपनी जिज्ञासा को वह शांत नहीं कर पा रही थी। ज्योंही अभिजीत उसकी बगल में बैठा पूजा ने कहा-'बोलो ना जी. इस हार का किस्सा सुनाओ ना! कितनी लंबी कहानी होगी. शॅर्ट में बताओ ना। जब तक जान नहीं लूँगी मुझे नींद नहीं आयेगी, पहन नहीं पाऊँगी, बोल नहीं पाऊँगी, झूठ नहीं बोला जाएगा. संक्षेप में ही सही, अभी बताओ। पंद्रह-बीस मिनट लगेगा कहानी में....."

अभिजीत बुरा फंसा । उसने महसूस किया अब बचने का उपाय नहीं है। उसने कहा- “फिर सुनो........तब मैं बारह वर्ष का था। हम लोग साउथ मलाका में किराये के मकान में रहते थे। शहर में चारों ओर हिन्दू मुसलमान दंगा, चारों ओर मार-काट हंगामा। लगभग डेढ़ माह तक कर्फ्यू कभी कैरम खेलता, कभी लूडो और कभी ड्राइंग मुझे ड्राइंग करना अच्छा लगता। मेरी ड्राइंग कापी का पन्ना पलटते- पलटते दादी की निगाहें एक चित्र पर ठिठक गई। कुछ देर तक देखने के बाद वह बोली अरे! इस तस्वीर में लाल काले धब्बे क्यों ?"
उन्हें नासमझ मानकर मैं बाला- " यह मॉडर्न आर्ट हैं। ये धब्बे नहीं. खून के संकेत हैं। दादी को जैसे इलेक्ट्रिक शॉक लगा। उन्होंने कहा "गधा कहीं का! खून का रंग लाल, सिर्फ़ लाल होता है. एकदम लाल ।"

मैंने कहा- " धत् ! तुम बुद्ध हो। पता है मेरे ड्राइंग बॉक्स में जितने रंग हैं उससे भी अधिक रंगों के खून होते हैं। दादी ने आँख फाड़कर मुझे देखा फिर मुस्कराकर कहा-" पगला कहीं का। आठ में पहुँच गया है अभी भी बुद्धि नहीं आई। जाने कहाँ से गलत सलत सीखता है, खून का रंग लाल, सिर्फ़ लाल होता है, एकदम लाल।" 
मैं अड़ गया- " नहीं हेरक का खून एक जैसा नहीं होता, खून-खून में फ़र्क होता है, मेरे सभी दोस्त यही कहते हैं।"
दादी अचकचा उठीं । " ये दोनों खून किस किसके हैं ?"

मैंने एक साँस में जवाब दिया-" लाल रंग मेरे शरीर का है जो घर से बाहर जाने के लिए छटपटा रहा है, काला उन लोगों का है जिनके कारण एक महीने से घर में कैद हूँ...जब देखो तब दंगा, तंग आ गया हूँ।"

मेरे उत्तर से खिन्न होकर दादी ने पूछा- " खून के बारे में और क्या क्या जानते हो ?" मैंने तपाक से कहा- " जिन लोगों ने हम हिंदुस्तानियों को गुलाम बनाया था उनका खून नीला है यानी ब्लू ब्लड, वह 'बहू' जो बर्तन माँजने आती है उसका खून पीला है, ये ग़रीब और नीच होते हैं, और......"

दादी ने अचानक अपना हाथ उठा लिया फिर खुद को संभाल कर कहा -"ऐसी बेतुकी बात दुबारा करेगा तो बहुत मार खायेगा.....वह बहू कोई साधारण औरत नहीं है, वह देवी है, देवी। तुमने कभी किसी के बदन से खून रिसते देखा है? किसी हिन्दू का खून? मुसलमान का खून? अंग्रेज का खून ?"

दादी की बातें दिन-रात मेरे मन में नाचतीं। अपनी आँखों से खून देखने के लिए मैं व्याकुल हो उठा। फिर एक दिन मेरे सामने एक हादसा हुआ। एक आदमी ट्रक से टकराकर मुँह के बल गिरा। सायकिल दो हिस्से में टूटकर बिखर गयी। ट्रक वाला तेज चलाकर भाग निकला। निमिष में अनेक लोग एकत्र हो गए। 
एक ने पूछा- " कौन है ? जवान है या बुड्ढा ?" दूसरे ने आहिस्ता से पूछा-" हिन्दू या मुसलमान ?"
किसी ने फिसफिसाया " जवान है, दाढ़ी है, सिर पर मुल्ला टोपी भी है।"

सब एक दूसरे को ताकते रहे फिर आहिस्ता-आहिस्ता अनेक लोग खिसक गये। घायल आदमी दर्द से कराह रहा था, जोरों से हाथ-पैर पटक रहा था, नाक और कान से खून बह रहा था। देखते-देखते उसकी हालत नाज़ुक हो गयी। मुझे यह देखकर हैरानी हुई कि किसी ने उसे स्पर्श तक नहीं किया ।
अचानक किसी ने चीत्कार किया--"भागो भागो पुलिस आ रही है, अभी पूछताछ होगी, खिसको।"
झट से सारे लोग भाग खड़े हुए। मैंने भी दौड़ लगायी।

पूजा ने मुस्कराकर पूछा- तो तब तुम्हें यकीन हुआ कि खून का रंग लाल होता है।' 
अभिजीत ने कहा- " सुनती रहो। सुनती रहो। मैंने पहले ही कहा था कहानी लंबी है। अभी तो कहानी शुरू ही नहीं हुई।"
पूजा बोली- " नहीं, मैं अधीर नहीं हो रही हूँ। बोलो। इन्टरेस्टिंग कहानी है। अंत तक सुनूँगी। हार का रहस्य जानना ही है। "

अभिजीत ने फिर से शुरू किया-" स्कूल पहुँचकर उस हादसे का ब्यौरा देकर मैंने अपने मित्रों को कन्विंस करना चाहा कि खून का रंग सिर्फ़ लाल होता है मगर मेरा मजाक उड़ाते हुए वे बोले-" तुम हिन्दुस्तान छोड़कर चीन या रूस चल जाओ वहीं तुम्हारी कदर होगी, हिंदुस्तान में लोग कम्यूनिजम नहीं समझते हैं। "

लंच के समय मैंने सारी बातें उस टीचर से कहीं जो अक्सर आजादी की लड़ाई और देश विभाजन की कहानी सुनाया करते थे। मेरी बातों को ध्यान से सुनने के बाद उन्होंने गंभीरता से कहा--" बेटा बात तो सही है कि हिंदू, मुसलिम, सिख, ईसाई आपस में हैं सब भाई-भाई....लेकन यह सब कहने के लिए है। दरअसल इंसान की दुनिया पशुओं की दुनिया से अधम है, यहाँ सब एक दूसरे की टाँग खींचने में लगे रहते हैं....मैं जमींदार वंश का हूँ, प्रचुर धन-संपत्ति थी मगर देखो देश को आजादी क्या मिली हम बर्बाद हो गए, रातोरात भिखारी बन गए । ईस्ट बंगाल पाकिस्तान बन गया, मुसलमानों ने हमें खदेड़ दिया। यहाँ हम खाली हाथ पहुँचे, न ठौर न ठिकाना, यहाँ हमारा क्या परिचय ?....लोग नफ़रत से कहते हैं  "ये रिफ्यूजी है देखो ना मुझे सब ' रिफ्यूजी मास्टर ' के नाम से जानते हैं.... जिन लोगों की वज़ह से हमारी यह दुर्दशा हुई है उन लोगों के खून को हम लाल कैसे मान लें ? जिनका दिल काला है उनका खून काला ही होगा ना ? तुमने गौर से देखा नहीं होगा, उसका खून काला ही रहा होगा।"

" स्कूल से लौटते समय मैंने देखा वह दुर्घटनाग्रस्त आदमी दुर्घटनास्थल पर ही पड़ा हुआ था। उसका शरीर लाश में तब्दील हो चुका था । मैंने गौर से देखा वाकई उसका खून काला था । मेरी हैरानी बढ़ गई । मास्टर साहब की बातें दिमाग में खलबली मचाने लगीं ।"

घर लौट कर सारी बातें मैंने दादी से कहीं । दादी के चेहरे पर क्लेशयुक्त चिंता प्रकट हो गई। दादी ने गंभीर मुद्रा में कहा- " बेहतर होगा तुम अपनी ड्राइंग कापी में हँसते-खेलते बच्चों की तस्वीरें" बनाओ, नदी नाले. झील, पहाड़, पर्वत बनाओ, फ़ालतू खून-खराबा, जात-धर्म के चक्कर में न पड़ो, अच्छी-अच्छी चीजें देखो, अच्छा सोचो, उम्र के साथ साथ सही क्या गलत क्या खुद ही जान जाओगे।"

मेरा कौतुहल बना रहा। मैंने कहा-" मगर दादी! मेरे टीचरजी क्यों कह रहे थे जिन लोगों ने उन्हें देश से खदेड़ दिया था उनका खून काला है, वे हमारे दुश्मन हैं? "
दादी ने मुझे समझाने की कोशिश की- " बेटा इस दुनिया में कोई किसी का दुश्मन नहीं है। लड़वाना, भिड़वाना, बँटवारा करना नेताओं का काम है। किसी देश की एकता-अखंडता के रहते सारे शीर्षस्थ महत्वाकांक्षी नेता सत्ताधिकारी होने का मजा नहीं पा सकते। उनकी सत्ता की भूख के कारण देश खंडित होता रहता है । हिंदुस्तान और पाकिस्तान के विभाजन के पीछे यही कारण था। हर दिग्गज नेता प्रधानमंत्री, मंत्री, गवर्नर बनना चाहता था । प्रांतों के विभाजन के पीछे भी यही कारण रहता है। अपने स्वार्थ के चक्कर में वे हमें अपनी बातों से उकसाते हैं, आंदोलित करते हैं। वे इन लड़ाइयों की कभी आस्था की लड़ाई, कभी अस्मिता की लड़ाई की संज्ञा देते हैं । हर लड़ाई देर-सबेर खूनी जंग बन जाती है । मगर जंग और रंजिश के बावजूद भीतर ही भीतर इंसानियत काम करती है .... देश विभाजन के समय जब हम अपना आदिवास छोड़ रहे थे तब उन्हीं लोगों में जिनका खून तुम काला समझ रहे हो, हमें यहाँ सुरक्षित पहुँचाया था.... देर शाम हम घर से रवाना हुए थे, हमारे साथ हमारे पड़ोस के दो भाई अब्दुल व कादिर हमारे बॉडी गार्ड बनकर चले थे। वे हमारे आगे आगे थे। दस-पंद्रह मील पैदल चलने के बाद उन लोगों ने हमें अपने रिश्तेदार के घर छोड़ दिया और खुदा से हमारे लिए दुआएं माँगकर लौट गए। उस समय तुम अपनी माँ की कोख में पल रहे थे, तुम्हारी माँ की तबियत अचानक ख़राब हो गयी थी। हमें चोरी-छिपे उनके घर रहना पड़ा था। चार दिन चार रात ...उस समय बहुत सारे मुसलमानों ने हिंदुओं की मदद की थी। उन मुसलमानों को अपने ही लोगों से, जो दरअसल कट्टर थे. खतरा था। जैसे ही उन कट्टर लोगों को पता चलता कि कहीं किसी मुसलमान ने हिंदू को शरण दी है, वे हमला करते। अब्दुल कादिर के रिश्तेदारों ने दुश्मनों की परवाह किए बगैर हमें पनाह दिया था । फिर एक बैलगाड़ी में आलू के बोरों के पीछे छिपाकर हमें पहुँचा गए थे .... तेरी माँ के पास तक़रीबन चालीस तोला सोना था, अपने रिश्तेदार के यहाँ छोड़कर जब अब्दुल और कादिर वापस जा रहे थे, उन्होंने हमें सलाह दी कि हम उन गहनों को उनके पास छोड़ दें और भरासा दिया कि स्थिति सामान्य होने के बाद वे गहनों को वापस भेज देंगे। तुम्हारे पिता ने गहनों को उन्हें। दे दिया.....यहाँ आने के बाद और स्थितियाँ सामान्य हो जाने के बाद हमलोगों ने अपना पता देकर पत्र भेजा कई पत्र भेजे. महीनों बीते साल बीता, कई साल बीत गए, कोई उत्तर नहीं.... हमलोगों ने मान लिया घर दुआर, जमीन-जायदाद के साथ-साथ हमने अपने गहनों को भी हमेशा के लिए खो दिया है.... मगर अकस्मात एक दिन कादिर आ पहुँचा। उसने हमें हमारी अमानत लौटायी और कहा कि उसकी आर्थिक बदहाली के कारण वह पहले नहीं आ सका था। वह हमारे लिए अमावट, खजूर का गुड़, सिंदूरी आम और नारियल के लड्डू ले आया था तुम्हारे पिता ने उसे दोनों तरफ़ का भाड़ा, अंगूठी और एक घड़ी भेंट करनी चाही मगर उसने कुछ भी नहीं लिया।'

कहानी सुनाते-सुनाते दादी का गला भर आया था, आँखे नम हो आयी थीं। साड़ी के पल्लू से आँखों को पोंछकर उन्होंने पूछा--' अब बताओ खून का रंग क्या है?'
मैं चुप था। क्योंकि दादी की सारी बातें मेरे सिर के ऊपर से निकल गयी थीं।

आये दिन दादी मुझे किस्से-कहानियाँ और अनुभव की बातें सुनातीं. 'अच्छी तालीम देतीं। वह हर वक्त मुझे अपनी आँखों के क़रीब रखना चाहतीं और मुझे अपनी छड़ी सा इस्तेमाल करतीं। मंदिर, मठ, बाजार जहाँ कहीं जाती मुझे साथ रखतीं। उधर मेरे यार-दोस्त चाहते कि खाली समय मैं उनके साथ रहा करूँ और मेरी दादी थीं कि उन सबों के साथ घूमने-फिरने से रोकतीं। उन्हें भय था कि मैं बिगड़ सकता हूँ मुझसे नाराज़ होकर मेरे साथी लोग मुझे देख 'पिछलग्गू' 'पिछलग्गू' कहके ऐसे चिल्लाते जैसे वही मेरा नाम रहा हो.... उन सबों से तंग आकर मैं दादी का पीछा छुड़ाने में लग गया और एकदिन सचमुच मैंने उन्हें खो दिया। बात कुछ यूँ हुई कि एक दिन साँझ होने पर जब मैं मैदान से खेलकर घर लोटा तो मकान के गलियारे में दादी ने मेरी कलाई पकड़ ली और मुझे एक गिलास दूध थमाने लगीं, मुझे दूध से चिढ़ थी सो मैं चीख उठा-माँ देखो ! दादी चोरी-छिपे दूध पिला रही है।'

दादी सिहर उठीं। उनेक हाथ से काँच का गिलास गिर पड़ा। मेरी माँ बिजली सी कड़कती हुई आ पहुँची और दादी पर बरस पड़ी... फर्श पर दूध फैला हुआ था, काँच के टुकड़े दूर-दूर तक बिखरे हुए थे, दादी मुल्जिम की तरह ख़ामोश खड़ी थी। मुझे अपने किए पर पछतावा हो रहा था।

दफ़्तर से पापा के आने की देर नहीं हुई कि माँ ने दादी की शिकायत कर दी फिर क्या था घर में कोहराम मच गया। काफ़ी कहासुनी के बाद माँ ने पापा से कहा--" कान खोलकर सुन लीजिए अब इस घर में या तो ये बुढ़िया रहेगी या फिर मैं रहूँगी। इसने मेरा जीना दूभर कर रखा है। "
माँ तनतनाती हुई पड़ोसिन के घर चली गई। पापा का चेहरा लाल हो था, कटाक्ष दृष्टि से उन्होंने मुझे देखा, मैं डर कर भीतर भागा, चुपचाप किताब खोलकर बैठ गया। अचानक पापा कमरे में पहुँचकर मुझे मारने लगे। हाथ चलाते-चलाते अपनी लरजती-गरजती आवाज़ से बोले " बेईमान ! जिसके लिए चोरी करो वही बोले चोर ! इतना बड़ा हो गया है। मगर गधा का गधा रह गया । माँ बेचारी अपने हिस्से का दूध पिलाती है और तू उसे चोर कहता है ? इडियट ! तेरे लिए वह अपना खून बहा रही है और तू उसे नीचा दिखाता है ?...फिर कभी तूने ऐसी हरक़त की तो तेरी हड्डी-पसली तोड़कर रख दूँगा।"

इस बीच दादी आकर बीच-बचाव करने लगी थी मगर बड़ी मशक्कत के बाद वह अलगा-अलगी कर सकी थी। बीच-बीच में पूजा ‘अच्छा' 'जी' 'हाँ' कहती जा रही थी। अब उसने पूछा- तुम्हारी दादी चोरी-छिपे क्यों दूध पिला रही थी ? तुम क्या बहुत कमजोर थे?"

अभिजीत ने कहा-" थोड़ी देर सब करो, सब कुछ साफ़ ऊब रही हो तो बताओ झट से दो लाइन में कह दूँ मगर उससे जाएगा.... तुम्हारे मन में तरह-तरह के सवाल उठेंगे। "
पूजा बोली--" नहीं, नहीं पूरी कहानी बताओ, मेरे मन में तमाम प्रश्न बन चुके हैं।"
अभिजीत ने फिर से बोलना शुरु किया--"हफ़्ते भर बाद दादी को सामान पैक करते देख मैं हैरत में पड़ गया।"
 मैंने पूछा--"अरे! कहाँ की तैयारी? कहाँ जा रही हो ?"
कुछ भावुक होकर दादी बोली--" पता नहीं... इस जग में तुम्हारे पिता के अलावा मेरा कोई नहीं है, कोई नहीं है जिसे मैं अपना कहूँ....कुछ लोगों
को पूर्व जन्म के लिये की सजा भुगतनी पड़ती है।" फिर दादी ने मुझे अपने पास बिठाया और आपबीती सुनायी।

दादी ने कहा--"जब मैं मात्र नौ साल की थी तब मेरी शादी करदी गई थी । सत्रह वर्ष होते-होते मुझे ससुराल भेज दिया गया। दस रोज बाद तुम्हारे दादा के आफिस से तार आया और वह ड्यूटी पर लौट गये..... उन दिनों विश्व युद्ध चल रहा था, तुम्हारे दादा मिलिटरी में काम करते थे, लंबे-चौड़े, तंदुरुस्त एकदम चंद्रशेखर आजाद जैसे ड्यूटी पर गये तो गये, कभी नहीं लौटे....मेरी चूड़ियाँ तोड़ दी गई सफेद थान पहना दिया गया, मेरे लंबे घने बाल काट दिए गए खाने में जो कुछ प्रिय था सब त्यागना पड़ा, हमेशा के लिए मना हो गया....मेरी जिंदगी जानवर से बद्तर हो गयी....मेरे ससुराल वालों ने काशी भेजने की व्यवस्था कर दी....उन दिनों विधवा बनते ही औरतों को काशी भेज दिया जाता था। काशीवास को विधवाएँ 'कालापानी' कहा करती थीं, यानी कि आजीवन कारावास....तुम्हारा पिता मेरा भतीजा है । उसकी माँ बचपन में चल बसी थी... तुम्हारे पिता ने मुझे 'कालापानी' से बचा लिया था, उसने कहा था अगर मुझे ज़बरदस्ती काशी भेजा गया तो वह आत्महत्या कर लेगा।"

दादी की आँखों से अविरल आँसू झर रहे थे। मैं स्तब्ध, हतप्रभ। मैंने कहा-दादी ! मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ, तुम्हें छोड़कर नहीं रह पाऊँगा, कब लौटोगी ?..... कितने दिनों के लिए जा रही हो ?"
दादी ने हताशा व्यक्त की क्या पता ! " भगवान जाने। अब शायद कभी न आ सकूँ। "

मेरा सिर चकराने लगा। मैंने रोते-रोते कहा-- " दादी ! भगवान कसम आइंदा शिकायत नहीं करूँगा, तुम्हारा कहा मानूँगा, मुझे छोड़कर मत जाना। "
कुछ कठोर होकर दादी बोली--" अब इस घर में मेरे लिए कोई जगह नहीं है, तुम्हारी माँ मुझसे खफा है, वह मुझे बिल्कुल नहीं सह पाती, मैं तुम्हारे लिए दुआएँ माँगूगी।"

मैंने माँ के सामने गिड़गिड़ाया- " माँ! दादी को रोक लो, रोक लो ना, दादी के बिना नहीं रह पाऊँगा।"
माँ चुप थी किन्तु उसकी आँखें छलछला आयी थीं। करुण दृष्टि से
मुझे देख वह बोली- "तुम्हारी दादी फिर आ जाएगी।"
तंगी के कारण पापा को डबल ड्यूटी करनी पड़ती, जब-जब मौका मिलता करते, छुट्टियों के दिन बाहर का काम करते। फिर भी हमेशा प्रसन्नचित्त रहते किन्तु दादी के जाने के बाद उन्हें जैसे साँप सूँघ गया मैंने उन्हें फिर हँसते-मुस्कराते नहीं देखा..... जिस दिन दादी घर छोड़ रही थी उस दिन हमारे घर की महरी यानी 'बहू' लगभग सारा दिन दादी के साथ थी। वे दोनों एक दूसरे की भाषा नहीं समझ पाते। दादी ईस्ट बंगाल के बरिशाल जिले की आँचलिक बोली बोलती और बहू ठेठ 'इलाहाबादी' किन्तु फिर भी दोनों में घनिष्ठ संबंध था....शायद वे दोनों एक दूसरे का चेहरा पढ़ लेती।

घर छोड़ते समय दादी ने मुझे हिदायत दी कि मैं बहू का आदर किया करूँ, उसका कहा माना करूँ। उन्होंने कहा था-" गलती से बहू की चुगली माँ से न करना वर्ना तू उसे भी खो देगा, अकेला पड़ जाएगा। "
उस दिन दादी और बहू एक दूसरे से लिपटकर खूब रोयी थी।

दादी के चले जाने के बाद हर पल, हर क्षण उनकी गैर मौजूदगी का अहसास होने लगा। अक्सर पढ़ते-पढ़ते मैं उनकी यादों में खो जाता और स्वयं को गुनाहगार समझता... बहू मुझे बहुत दुलार देती, प्रायः वह पास बुलाकर बातें करतीं....मगर उस वजह से उसे माँ की डाँट भी सुननी पड़ती।

मेरे घर के सामने खेल का मैदान था जहाँ हर शाम हम क्रिकेट खेलते और उसी मैदान से सटा बहू का अहाता था। अहाते की सात-आठ झोपड़ियों में से एक में बहू का आवास था। उसकी झोपड़ी के सामने चार पाँच बकरे-बकरियाँ बँधे रहते थे। मुझे उन सबका मिमियाना और उनके साथ खेलना प्यारा लगता था। उसी आकर्षण से मैं प्रायः बहू के घर पहुँच जाता, जब लगातार दो-तीन दिन मैं नहीं जाता तो बहू खुद ही मुझे बुला लेती, वह मुझसे पूछती " आज क्या-क्या खाया?"  "भरपेट खाना खाया था न?" "कितनी रोटियाँ खायी थी ?" 'पढ़ाई-लिखाई कैसी चल रही है?" " स्कूल का काम किया या नहीं?"
"दादी की चिट्ठी आयी ? दादी कैसी है, ठीक-ठाक है ना ?" आदि कभी कभार वह मुझे बकरी का दूध पिला देती। आदि.....एक बार होली के बाद जब मैं बहू के घर गया तो उसने मुझे ढेर सारे पापड़ और गुझिया दिए। मैंने कुछ खाया और कुछ जेब में रख लिये रात को थका-हारा बिना पैंट-शर्ट बदले मैं बिस्तर पर निढाल हो गया और नींद लग गई। अगले दिन जब मेरी आँखें खुली तो माँ ने गुझिया की जानकारी माँगी.......मैं घबड़ा गया था, कुछ समझ में नहीं आ रहा था , मैं चुप था, माँ ने कई बार पूछा मगर मैं चुप था। फिर माँ ने कान उमेठकर कहा- " तूने किचन से चुराया " चुप क्यों है ? चोर,अब चोरी भी करने लगा ?"
चोरी के इलजाम से क्षुब्ध होकर मैंने सच्चाई उगल दी और मेरी बात सुनते ही माँ का मिज़ाज ख़राब हो गया। उसने मुझसे कान पकड़वाकर उठक-बैठक करवाया, कसम दिलवायी कि आइंदा बहू के घर की कोई चीज नहीं लूँगा।

उस दिन जब बहू काम पर आयी तो मेरी माँ उस पर टूट पड़ी और कटु शब्दों की बौछार कर दी... अपराधिन की तरह बहू नतमस्तक खड़ी थी। उसे अपदस्थ देख मैं बोल पड़ा-माँ अब चुप भी करो, बहुत हो चुका, तुमने मुझे सजा दी तब भी मन नहीं भरा? खामख्वाह उसके पीछे क्यों पड़ी हो? उस बिचारी का क्या कसूर? मैंने खुद ही माँगा था, उसने जोर-जबरदस्ती नहीं ठूंसा था ।‌‌ ँँँँँँँँँँँँँँँँँँँँँँँँँँँँँँँँँँँँ

 मां ने अपना आपा खो दिया और उसने अपना गुस्सा बहू पर उतारा " नीच जात की औरत तूने अपने घर का सामान मेरे बेटे को खिलाने की जुर्रत कैसे की ? तू उसका जात-धर्म बिगाड़ रही है तुझे कोढ़ लग जाएगा।"
मुझसे रहा नहीं गया। मैं बोला- "माँ तुम्हें चुल्लूभर पानी में डूब मरना चाहिए, जब वह बर्तन साफ़ करती और तुम्हारे कामों में हाथ बटाती तब तुम्हें उसकी जात याद नहीं आती? इसी को पोंगई कहते हैं, इसी पोंगई के कारण लोग ब्राह्मणों को कभी-कभी पोंगा पंडित कहते हैं।"
आगबबूला होकर माँ ने बेलन उठा लिया और उसके हाथ बेलन आते देख मैं घर से भाग निकला और पीछे-पीछे बहू भी निकल आयी

शाम को जब पिताजी घर लौटे तो उनके पीछे-पीछे मैं भी लौटा। पिताजी ने अभी सायकिल खड़ी भी न की थी कि माँ ने शिकायत शुरू कर दी। दोनों में काफ़ी कहा-सुनी हो गयी। उसी कहासुनी में माँ ने कहा " आपकी तनख्वाह मात्र डेढ़ सौ रुपए, उसमें से कलकत्ते में उस बुढ़िया को पच्चीस भेजते हैं और उस कमीनी महरी को बीस देते हैं, अपना पेट नहीं भरता, चले हैं दूसरों का पेट भरने, हूँ! बड़ी हमदर्दी है, उस कमीनी से....उस नीच के लिए मुझे भला-बुरा कहते शर्म नहीं आती?...मैं पूछती हूँ उस कहारिन से क्या संबंध है आपका? बिन माँगे क्यों बढ़ाते गये उसकी तनख्वाह ?"
गुस्से से पिताजी ने अपना हाथ उठा लिया फिर ऐन वक्त पर खुद को संभाल कर कहा-"कितना ज्यादा देता हूँ उसे?... जितना खटा सकती हो खटा लेती हो, झाड़ू-पोंछा, गेहूँ सफाई, सब्जी काटना, अचार डलवाना दुनिया भर का काम ।"
माँ चीख उठी-कोई जरूरत नहीं है हमें उसकी, चार-पाँच रुपए में किसी और को रख लूँगी, पंद्रह रुपए मेरे हाथ में दीजिएगा। बहुत रुपए हो गए आपके....एक दो काम क्या कर देती खूब ध्यान जाता है उस पर और मैं जो कोल्हू की तरह पिसती रहती हूँ उस पर ध्यान नहीं जाता, बंधुआ मजदूर हूँ ना.....न जाने उस चुड़ैल ने क्या जादू-टोना कर दिया है, बाप-बेटे दोनों उसकी तरफदारी करते हैं।"
बात ख़त्म करके माँ भीतर चली गई और बिलख-बिलख कर रोने लगी।

माँ का क्रंदन सुनकर मकान के दोनों किरायेदारों की श्रीमतियाँ माँ के पास पहुँच गईं। उन दोनों ने माँ को अपने पति के मन मुताबिक चलने की सलाह दी फिर बाहर निकल कर खुसुर-फुसुर करती हुई चली गई।

मुझे माँ पर क्रोध आ रहा था और दया भी....। अब मैं इंटर में पढ़ रहा था और कुछ-कुछ समझने लगा था। मैंने सोचा वाकई पिताजी बहू को ज्यादा रुपए क्यों देते हैं ? वह भी माँ की सहमति के बगैर। मुझमें संदेह का बीज पैदा हो गया।

अगले दिन बात का बतंगड़ बन गया। मेरे पिताजी के साथ बहू के गलत संबंध होने की बात कानो-कान फैलने लगी। पिताजी सकते में आ गये। उन्होंने बहू की छुट्टी कर दी ।
दादी को खो चुका था, बहू का आना बंद हो गया। दोनों की कमी बुरी तरह खलने लगी। मकड़ी के जाल की तरह अकेलापन मेरे चारों और फैलने लगा। यह सोचकर मैं दुःखी होने लगा कि मैंने स्वयं उसी डाल को काट दिया जिस पर मैं बैठा हुआ था। बिछोह का धाव दिनोंदिन गहराता गया।

मुझे दादी की चिट्ठी का बेसब्री से इंतज़ार रहता। स्कूल से लौटते ही मैं माँ से पूछता चिट्ठी आयी है कि नहीं, माँ अधिकतर निरुत्तर रहती, कदाचित हाँ या ना में उत्तर देती...मेरी दादी अपनी बूढ़ी उँगलियों से बड़ी मुश्किल से चिट्ठी लिख पाती, उनका ख़त मेरे पिता के अलावा कोई न पढ़ पाता फिर भी दादी के ख़तों को मैं पढ़ाई की टेबुल पर सजा कर रख देता और अक्सर उन खतों को देखते-देखते मैं दादी की यादों में खो जाता।'

इतनी देर धीरज से सुनने के बाद पूजा ने उत्सुकता से पूछा- तुम्हारी माँ तुम्हें प्यार नहीं करती क्या ?'
अभिजीत ने कहा- नहीं पूजा ऐसी बात नहीं है, वह मुझे बेहद प्यार करती है, पहले भी करती थी लेकिन उनका अपना पसंद-नापसंद है, बचपन में मैं उन्हें समझ नहीं पाता था....लंबी-चौड़ी, गोरी, लंबा मुखड़ा, बड़ी-बड़ी भावुक आँखें, चौड़ा ललाट और उस पर बड़ी सी बिंदी...बड़ी प्यारी लगती थी। कभी अगर अच्छी साड़ी पहन लेती और भी अच्छी लगती। कदाचित मैं उससे कहा करता "माँ तुम कितनी प्यारी लगती हो, तुम गुस्से में न आया करो, गुस्से में गंदी लगती हो "  माँ मुझे अपने पास खींचकर मेरे गालों को चूमकर कहती- " मुझे क्यों गुस्सा आता तू नहीं समझेगा किसे अच्छा लगता है चीखना, चिल्लाना ? "
माँ मुझे मारती नहीं थी, डाँठ भी बहुत कम लगाती फिर भी पता नहीं क्यों मुझे उससे डर लगता था। मैं भागा-भागा फिरता था। गर्मी में दोपहर को जब मैं कमरे से निकल कर भागना चाहता था उसकी आँखों की पलके जो हल्की सी खुली रहती थी देखकर भाग नहीं पाता फिर से सो जाता..... जब मैं बी. ए. और एम. ए. में था मेरी माँ को मेरी कम्पनी अच्छी लगती। खाली समय वह मेरे पढ़ाई के कमरे में बैठती, दुनिया भर की बातें करती। यूँ तो वह हाईस्कूल थी पर पढ़ाई-लिखाई से उसका खास लगाव है। वह मेरी किताबों को पढ़ती, कभी-कभार चर्चा करती....इम्तहान के दिनों में मैं जब जी-जान से मेहनत करता वह मुझे रात-बिरात चाय बना देती, गर्म-गर्म दूधे ले आती...मगर इन सबके बावजूद वह मेरे मुख से 'दादी' और 'बहू' शब्दों को सुनना पसंद नहीं करती थी। उल्टा नाराज हो जाती और मैं था कि उन दोनों को नहीं भूल पा रहा था। एक बार दादी को भेजा गया मनीऑर्डर वापस लौट आया। पापा ने उन्हें कई खत लिखे मगर किसी भी ख़त का उत्तर नहीं आया। कई माह बाद दादी की ख़बर लेने पापा कोलकाता गये मगर वह निराश होकर लौटे। उन्होंने हमें जानकारी दी कि दादी का दिमाग खराब हो गया था और वह घर छोड़कर चली गयी थी। मुझे दाल में कुछ काला लगा। मैंने पिताजी से पूछा- " उन लोगों ने हमें सूचित क्यों नहीं किया ? "
पिताजी बोले- " उन लोगों ने कई पत्र भेजे थे मगर डाक की गड़बड़ी के कारण हमें ख़त नहीं मिल पाया। मुझे रिश्तेदारों की बात झूठ लगी। मैं अत्यंत मर्माहत हो गया। अपराध बोध ने मुझे बुरी तरह दबोच लिया। दिनरात में स्वयं को कोसने लगा।
जब से बहू ने काम छोड़ा था उसके अगले महीने से हर माह पिताजी मेरे हाथों बहू को दस-बीस रुपए भिजवाते और हर बार आगाह करते " माँ से मत कहना।" कदाचित वह स्वयं रुपया दे आते। हर बार बहू रुपया लेने में आनाकानी करती मगर मैं खाट पर रख कर लौट आता हमेशा मेरे मन में जिज्ञासा होती आख़िर क्या माजरा है ? पिताजी उस औरत पर इतने मेहरबान क्यों हैं? माना कि वह बहुत गरीब है पर पिताजी ही कौन रईस हैं?

जब मैं एम. ए. फाइनल में था एक दिन सुबह-सुबह बहू की मौत की ख़बर मिली। उसकी शव यात्रा में मैं शामिल हुआ....मेरी माँ घर से उसकी अर्थी को देखती रही, पिताजी उसकी अर्थी को लगभग पूरे रास्ते अपने कंधों पर ढोये.....उस दिन पिताजी बेहद दुःखी थे! रात को तीन मंजिले छत के एक कोने मैंने उन्हें रोते हुए देखा था। मेरे मन का संदेह और गहरा गया। एक दलित औरत के लिए उनका सुबकना मुझे अच्छा नहीं लगा। मुझे माँ से हमदर्दी होने लगी।

एम. ए. पास करने के बाद मुझे नौकरी मिल गयी और नौकरी मिलने के साथ-साथ मुझे अहसास हुआ कि मुझे दादी को ढूंढ निकालना चाहिए। अज्ञानतावश मुझसे जो पाप हुआ था उसका प्रायश्चित करना चाहिए। मुझे लगा कि मेरी दादी को पिछले जन्म के पाप की सजा नहीं बल्कि इस जन्म की परिस्थितियाँ भुगतनी पड़ रही हैं। उनकी परिस्थिति को बदलने के लिए मैं अधीर हो उठा। पहली तनख्वाह मिलते ही मैं कोलकाता पहुँचा।

कोलकाता में जब रिश्तेदारों से शराफ़त से पूछने पर संतोषप्रद उत्तर नहीं मिल पाया तब मैंने जासूसी पूछताछ की. पुलिस और कानून की धमकी दी। डर के मारे उन लोगों ने क़बूल किया कि चूँकि दादी उन लोगों के लिए बोझ थी उन लोगों ने उन्हें घर से निकाल दिया था और यह सूचना दी थी कि दादी को उन लोगों ने एक बार कालीघाट के मंदिर के पास देखा था।

मैं कालीघाट काली मंदिर पहुँचा। मंदिर के पास प्रवेश द्वार तक पहुँचने के रास्ते लगभग आधा किलोमीटर दांये बांये दोनों किनारें भिखारियों की लंबी लाइन, अधिकतर बूढ़े व लाचार मंदिर के चारों ओर हाथ फैलाने वाले अनगिनत हर उम्र के लोग, किन्तु शारीरिक दृष्टि से ठीक-ठाक दिखे। एक-एक बूढ़ी औरत को मैं बहुत करीब से देखता गया फिर अपनी दादी को मैंने ढूंढ़ निकाला....उन्हें देख मैं तार-तार हो गया। मेरी हट्टी-कट्टी खूबसूरत दादी कंकाल लग रही थी। उन्हें पहचान पाना मेरे लिए नामुमकिन था, गनीमत थी कि उनके गले में काले धागे में बँधा वही ताबीज लटक रह था जिस पर उनके गुरु की तसवीर थी।

मैंने जब दादी को अपना परिचय दिया तो वह आश्चर्य चकित होकर मुझे देखने लगी। कुछ देर बाद वह बोली-मैंने तुम्हें पहचाना नहीं..इस दुनिया में मेरा कोई नहीं है. कोई नहीं है जिसे मैं अपना कहूँ, तुम्हें गलतफ़हमी हुई है।"

मैंने उस ताबीज की चर्चा की, उस घटना का जिक्र किया जिसके कारण उन्हें बेघर होना पड़ा था, तब जाकर दादी ने मुझे पहचाना। मगर वह मेरे साथ आने के लिए तैयार नहीं थी। वह बोली 'सुखे पेड़ से किसी को छाँव नहीं मिल सकती. मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो... चंद दिनों की बात

है. आखिर भगवान निष्ठुर तो नहीं है, बुला ही लेंगे।' मैं अपने निर्णय पर अडिग था. उनकी कलाई पकड़कर मैंने उन्हें उठाया। वह अपने साथ मुझे अपनी झुग्गी में ले गयी। बात चीत के दौरान पाया कि दादी की याददाश्त क्षीण हो गयी थी, अतीत ओझल सा हो गया था। मैं उन्हें एक-एक दिन की बात याद दिलाता गया, धीरे-धीरे उन्हें सब कुछ याद आता गया.... दादी ने एक पुरानी कथरी निकाली, गंदा, तेलचिट्टा, जगह-जगह पैबंद लगा हुआ कथरी का कोना-कोना टटोलने के बाद दादी ने मुझे कथरी फाड़ने को कहा।

अवाक् होकर मैं कथरी को देखता रहा। दादी ने कहा- फाड़ दे। टुकड़ा टुकड़ा कर दे, जो कहती हूँ सुन।"

मैंने कथरी को फाड़ डाला, कई टुकड़े कर दिए। कथरी के भीतर से सोने का एक हार निकल आया। यही वह हार है। दादी ने इसे मेरे हाथ देकर कहा-'ले इसे संभाल कर रख यह मेरी शादी का हार है, तेरी दुल्हन के लिए रखा था।"

फिर पोटली से एक कागज निकालकर दादी ने कहा-'देख इसे । इसमें मैंने अपनी इच्छा लिख रखी थी।'

उल्लास, ग्लानि, श्रद्धा, अनुकंपा, अनुताप आदि तमाम भावनाओं से उत्पन्न आवेग ने मेरे हृदय को झकझोर कर रख दिया। कुछ खामोशी के बाद दादी बोली'ले ले इसे रख ले क्या सोच रहा है. इसे बहू को पहनाना। मेरा आशीर्वाद है यह।'

बहू शब्द सुनते ही मेरा माथा ठनका शरीर सिहर उठा, मैंने संकोच से पूछा-दादी यह बताओ कि महरी बहू के साथ मेरे पिताजी का क्या संबंध था?"

दादी का खिला हुआ चेहरा औचक मुरझाया। कुछ देर गंभीर रहने के बाद हठात् मुस्कराकर उन्होंने पूछा-खून का रंग क्या है?'

मुझे अपना बाल्यकाल याद आ गया। आह्लादित होकर मैं बोला 'लाल! सिर्फ लाल। एकदम लाल।'

दादी ने कहा- " शाबास! फिर अपना तेवर बदल कर कहा जब तू पैदा हुआ था डाक्टर ने तेरी माँ को स्तनपान न कराने का हुक्म दिया था..... तेरी माँ को टी. वी. हो गया था। तेरी जान बचाने के लिए माँ के दूध की जरूरत थी... उस समय बहू उसी अस्पताल में थी। उसने एक संतान को जन्म दिया था। बहू ने जब सुना कि एक नवजात शिशु माँ के दूध बिना मरने की स्थिति में है तो उसने नर्स से कहलवाया कि वह दूध पिलाना चाहती है. उसने अपनी जात बता दी थी.....गरीब थी. दुबली पतली. भरपेट आहार नहीं जुटा पाती फिर भी वह दूध पिलाने के लिए आगे आयी.... एक साथ दो-दो बच्चे को उसने दूध पिलाया, उसके दूध से तू बच गया....वह तेरी जीवनदायिनी माँ है, माँ का दूध एक जैसा होता है रे माँ सिर्फ माँ होती है. पिता-पिता नहीं बन सकता मगर कोई माँ किसी और की माँ बन सकती है. यह औरत जात की खूबी है, मातृत्व उसका धर्म है और मातृत्व ही उसकी जात होती है.... तूने किसी जात का दूध नहीं पिया था. तूने माँ का दूध पिया था, उसी के दूध से तेरा खून बना है.... उस खून का रंग लाल है, हर माँ की संतान का खून लाल होता है... तूने जो दूध पिया था तेरा पिता उस कर्ज के अहसान से लदा था।"

दादी शांत हो गयी थी। मेरे मन का बोझ उतर गया था किन्तु भावुकता से मेरा हृदय भारी हो उठा। बहू अब इस दुनिया में नहीं रही वर्ण मैं उसका चरण स्पर्श करने पहुँच जाता।

बहू की मौत की ख़बर मैंने दादी को नहीं दी थी उल्टा झूठ बोला था। कि वह ठीक है क्योंकि उस खबर से वह आहत होती।

अल्पकालीन नीरवता के बाद दादी ने कहा अपनी माँ से बहू की बात समझबूझ कर तू ही बता देना उसका भी भ्रम दूर हो जायेगा।' मैंने अवाक् होकर पूछा- क्या ? अब तक माँ को मालूम नहीं? क्यों? यह कैसे संभव ?

आश्चर्य चकित होकर दादी ने मुझे देखा फिर कहा- तेरे जन्म के एक महीने बाद तेरी सगी माँ चल बसी थी, यह तेरी दूसरी माँ है। तू जब एक साल का था तब तेरे पिता ने दूसरी शादी कर ली थी। तब तक तुझे मैं रोजाना बहू के पास छोड़ आती रही, वही देखभाल करती रही...... तेरी माँ एक कट्टर ब्राह्मण की बेटी है, वह जात-पात, ऊँच-नीच मानती है, 'बहू' की बात बता देने से आफत आ सकती थी, हो सकता था कि वह तुमसे नफ़रत कर बैठती।

दादी की बात सुनकर मैं सातवें आसमान से गिरा। मुझे लगा कि मैं विकट झंझावत में फँस गया हूँ, मुझे लगा कि मेरे पैरों के तले जमीन खिसक रही है, मेरा सकल वजूद चरमराने लगा।

मैं माँ की उम्र के साथ अपनी उम्र का फ़र्क उंगलियों पर गिनने लगा, देखा ठीक तो है, वह मुझसे बीस साल की बड़ी है, मैं अपने चेहरे की तुलना छोटे भाई से करने लगा देखा हम दोनों पिता पर ही गए हैं। मैं माँ का प्यार व बर्ताव मेरे लिए तथा छोटे भाई व बहन के लिए कैसा है याद करने लगा, देखा कहीं कोई पार्थक्य नहीं है। दादी की बात मैं हरगिज मानने को तैयार नहीं था। मैंने कहा-दादी तुम मजाक कर रही हो।'
दादी ने कहा-'सच एकदम सच। यह जानकर मुझे प्रसन्नता हो रही है कि इस क्रूर सच्चाई को तेरी माँ ने तुझे जानने नहीं दिया जबकि उसकी अपनी संतान भी है.... शायद यही वज़ह थी कि उसने मुझे घर से निकाल दिया था... ख़ैर! अब तू लायक बन गया है, समझदार हो गया है, तू उसका साथ कभी न छोड़ना।'
मैंने कहा-'दादी वृक्ष कभी वृक्ष की छाया से अलग नहीं हो सकता।"

दादी को मैं अपने साथ ले आने के लिए जिद्द करता रहा मगर उसने मेरी बात नहीं मानी।
इस हार को जेब में रखकर मैंने कहा-दादी एक लड़की से मेरा ...... मेरे साथ वह यूनिवर्सिटी में पढ़ती थीं, माँ को पसंद है, तुम्हें भी पसंद आयेगी....जाड़े में उसी के साथ शादी होनी है, तुम मेरे साथ चलो, अपने हाथ से उसे पहना देना।'
थोड़ी देर के लिए दादी सोच में पड़ गयी फिर बोली-'इस खुशखबरी से मेरा मन भर गया, तुम सब खुश रहो, मुझे इसी मंदिर में पड़े रहने दो, भगवान के नाम में बड़ी शांति है, भगवान का नाम जपते-जपते मुझे शांति से स्वर्ग जाने दो.....पिता-माता को मेरा आशीर्वाद कह देना ।'

मगर दादी की खबर और उनका आशीर्वाद मैं अपने पिता को सुना न सका था.... जिस दिन मैं घर लौटा पिताजी का मृत देह मेरे इंतजार में था। उन्हें दिल का दौरा पड़ा था। उन्हें देख मैंने मन ही मन कहा 'पापा मुझे माफ़ करना।'

'बहू' के संबंध में दादी के मुख से सुनी हुई बात दादी के आदेश के बावजूद अपनी माँ से मैं कह न सका, यहाँ तक कि दादी से मेरी मुलाकात हुई थी इस बात को भी माँ से छिपाए रखना पड़ा क्योंकि मुझे भय था कि सब कुछ कह देने से मैं हमेशा के लिए माँ का प्यार खो बैठता ....वह मेरे लिए दूसरी माँ बन जाती....उसे खोकर मैं रिक्त नहीं होना चाहता था।
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© सुभाष चंद्र गागुली
(कहानी संग्रह: सवाल तथा अन्य कहानियाँ से, प्रथम संस्करण: 2002, इसके कुल तीन संस्करण है ।)
** पत्रिका ' कथ्यरूप' ( सम्पादक: अनिल श्रीवास्तव ) अंक 28 वर्ष 2001मे प्रकाशित ।

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