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Friday, July 16, 2021

कहानी- तीन कसमें



कहानी की अपनी प्रक्रिया है। आलोचक कहानी पढ़ते समय इसी प्रक्रिया से गुजर कर कहानी समीक्षा के कुछ सूत्र जुटा पाता है। केवल प्रभाव ग्रहण करना, कहानी पढ़ना नहीं। कहानी का पाठ संवेदना की सूक्ष्म गहराई को नापना है। इसी स्थिति को लेकर एक नया स्तम्भ शुरू कर रहे हैं, इस अंक से। कहानी पाठ की प्रक्रिया में आलोचक कितना पाठक से जुड़ता है तो कितना आलोचना से। इसी दुहरी प्रतिक्रिया के बीच नए प्रतिमानों की तलाश कथा-समीक्षा के लिए अत्यधिक आवश्यक है।

इस बार प्रस्तुत हैं सुभाषचन्द्र गांगुली की कहानी 'तीन कसमें' और उस पर आलोचक यश मालवीय की सटीक टिप्पणी |

डॉक्टर कृष्ण बिहारी सहल
सम्पादक (तटस्थ), सीकर, राजस्थान
अंक : जनवरी - मार्च 2001



तीन कसमें


पहाड़ पर स्थित कार्यालयों का निरीक्षण करना था। चूंकि प्रोग्राम लम्बा था और मेरे घर से पहाड़ दूर था इस कारण बीच में भागकर आना सम्भव नहीं था इसलिए जिस दिन मेरा ट्रांजिट था उस दिन रवाना न होकर सात दिन बाद मैंञ घर से रवाना हुआ। पहाड़ पहुंच कर अगले दिन दफ़्तर की जीप से घूमने निकला। मुझे घुमाने और मेरी खातिरदारी के लिए दफ़्तर के बड़े बाबू, खजांची और एक जूनियर इंजीनियर मेरे साथ थे।

मुझे याद है कि मैं नैनीताल के सातों ताल घूमा था, होटल में लंच लिया था, शॉपिंग भी की थी। सूरज ढल चुका था, हम वापस लौट रहे थे फिर उसके बाद क्या हुआ था मुझे याद नहीं है। मुझे जब होश आया था तब मैंने खुद को एक अजनबी के घर पाया वह रघु कुली का घर था। रघु ने मुझे बताया कि जिस रास्ते से वह अपने घर आया जाया करता था वहीं से वह बेहोशी की हालत में मुझे उठाकर ले गया था। बहुत माथा-पच्ची करने के बाद मुझे याद आया कि जब हम अपने डाक बंगले के लिए वापस लौट रहे थे तब हमारी गाड़ी एक बारगी उछल गयी थी, हम सब चीख उठे थे... आगे की बात याद नहीं आई। मैंने कलेंडर देखा, छह दिन बीत चुके थे, और छह दिनों की बातें लुप्त हो चुकी थी। मैंने उस निर्भीक कुली को और उसके परिवारजनों को धन्यवाद दिया और जिस कार्यालय का निरीक्षण चल रहा था वहां के लिए प्रस्थान किया।

कार्यालय पहुंचते ही सारे लोग मुझे इस कदर घूरने लगे जैसे वे भूत देख रहे थे। मैंने कार्यालय के निदेशक से सम्पर्क किया और उन्हें सब कुछ बताया। उन्होंने मुझे जानकारी दी कि मेरी जीप खाई में गिर गई थी और जल कर राख हो गई थी। चार लाशें मिली थी और चारों की शिनाख्त कर ली गई थी पर कई दिनों के अथक प्रयास के बाद जब मेरा पता नहीं चल पाया तो पुलिस ने यह मान लिया कि जीप के साथ-साथ में भी जल कर राख हो गया हूंगा और उसी आधार पर मुझे मृत घोषित कर दिया गया था।

निदेशक महोदय ने यह भी कहा कि पुलिस रिपोर्ट के आधार पर ही मेरी मौत की सूचना उसी दिन मेरे पहुंचने के दो घंटे पहले मेरे कार्यालय को भेज दी गई थी। लाख विनती के बावजूद उन्होंने मुझे काम करने की अनुमति नहीं दी। उन्होंने मुझसे कहा कि काम शुरू करने से पहले मुझे पुलिस को इतला करनी चाहिए तथा अपने कार्यालय के मुखिया से भी अनुमति लेनी चाहिए।

पुलिस और कानून की बातें दिमाग में आते ही में सहम गया। मैंने कहा कि मैं अविलम्ब घर लौटना चाहूंगा क्योंकि अब तक मेरे घर पर मातम छा गया होगा, पत्नी ने चूड़ियां तोड़ दी होंगी, बच्चे सुबक रहे होंगे, घर पर भीड़ उमड़ पड़ी होगी, मोहल्ले में सन्नाटा पसर गया होगा, न जाने और क्या-कुछ हो रहा होगा, मुझे पहले घर पहुंचना चाहिए फिर इत्मीनान से कुछ सोचूंगा। निदेशक ने आगाह किया कि पुलिस की इज़ाज़त के बगैर घर जाने का अंजाम बुरा हो सकता है, जवाब-तलब के लिए मुझे सलाखों के पीछे रहना पड़ सकता है। अत्यन्त निरुपाय होकर मैंने कहा- 'ठीक है जैसा आप कहते हैं वैसा ही करूंगा।

उसी दिन देर शाम डाक बंगले के चौकीदार की मदद से मैंने अपना सामान बाहर निकाल लिया। टोपी और मफलर की मदद से अपना हुलिया इस कदर बदल लिया कि मुझे कोई पहचान न सके। लोगों की नजरों से बच-बचा कर चौकीदार ने मुझे बस पर बिठा दिया। उसके इस नेक कार्य से खुश होकर मैंने उसे सौ रुपए बख्शीश दी।

अगले दिन रात दस बजे मैं अपने शहर पहुंचा। मेरी मौत की खबर का क्या असर मेरे घर परिवार, दफ़्तर तथा अन्य लोगों पर पड़ा होगा यह जानने के लिए मैं बेताब था फिर भी अचानक मुझे शरारत सूझी और अपना नाम पता गलत लिखाकर मैं एक धर्मशाला में दाखिल हुआ।

रातभर में सोता-जागता रहा। छोटी-छोटी आवाज से मैं सिहर उठता, रोंगटे खड़े हो जाते चिन्ता, भय, करुणा आदि तमाम आवेगों की एकसाथ उठापटक से मेरे दिल की धुकधुकी उफान पर थी। मरकर जीवित रहने की अद्भुत अनुभूति में मुझे लगा मैं दरअसल एक अधमरा प्राणी हूं, न मरना चाहता हूं न ही जीवित रहना चाहता हूं, यह संसार न सुन्दर है न ही असुन्दर, यह जीवन न अर्थमय है न ही अर्थहीन, जो कुछ है जैसा है सब ठीक है। चेतन-अर्द्धचेतन अवस्था में रहकर मेरे मन के भीतर बैठे दार्शनिक मित्र के साथ एक अनूठी रात बीत गई।

अगले दिन अपना हुलिया बदल कर मैं अपने कार्यालय के समीप पहुंचा। कार्यालय परिसर की परिक्रमा करने के बाद जब मुझे यकीन हो गया कि मेरी असलियत जानना नामुमकिन है, तब मैं इत्मीनान से हबीब की चाय की दुकान पर बैठ गया। मेरे हाथों में अखबार था मगर मेरी निगाहें इधर-उधर घूम रही थी, कान खड़े थे।

दुकान पर जो कोई आता मेरी ही चर्चा करता। मैंने सुना अगले दिन मेरा कंडोलेंस मनाया जाएगा। अगले दिन तनख्वाह मिलनी थी। इस कारण शत-प्रतिशत हाजिरी होनी ही थी और इसी कारण से कंडोलेंस में अधिक से अधिक भीड़ होने की उम्मीद की गयी।

दुकान पर बैठे-बैठे पता चला मेरे दफ़्तर के कल्याण अधिकारी, ट्रेड यूनियन के पांच पदाधिकारी, और दफ्तर के खजांची स्टाफ कार से मेरे घर पहुंचे थे। अधिकारी महोदय ने मेरी पत्नी को एक हजार रुपए इमिडिएट रिलीफ और कॉऑपरेटिव सोसायटी की राशि भेंट की । 
 रुपए पाते ही मेरी पत्नी बोल पड़ी थी आप लोगों ने सही समय पर हमारी मदद की है। हम लोग तो भूखे मर रहे हैं। घर पर फूटी कौड़ी नहीं है, ऐसे भी हम लोग बड़ी तंगी में रहते हैं, न भरपेट खाना मिलता है न ही तन के लिए पर्याप्त कपड़े किताब, कापी, जूते-चप्पल हर एक चीज की दिक्कत रहती है। किस तरह से अपना गुजर बसर होता है, हम ही जानते है हम उसका बखान भी नहीं कर सकते देखिए ना आप लोगो को बिठाने के लिए कुर्सी तो क्या दरी तक घर में नहीं है उनकी हालत तो कभी सुधरती ही नहीं थी, जाने क्या करते थे अपनी तनख्वाह से अपने मन की बात एक सांस मे कह कर पत्नी फूट-फूट कर रोने लगी थी।

कल्याण अधिकारी ने मेरी पत्नी से सांत्वना के दो बार शब्द कहे और फिर सुखद, उज्ज्वल भविष्य का आश्वासन देते हुए कहा कि मेरे कार्यालय में अनुकम्पा के आधार पर मेरी पत्नी को या किसी संतान को योग्यतानुसार नौकरी दी जाएगी. ग्रुप इन्सुरेस की राशि, जी.पी एफ. फण्ड की राशि बीमा समेत ग्रेच्युटी डबल यानी तैतीस माह की तनख्वाह तथा उसके अलावा पारिवारिक पेंशन भी मिलेगी। उन्होंने कहा कि पूरी रकम, जो लगभग पांच लाख होती है एकाध महीने में मिल जायेगी।

इतने सारे रुपए, नौकरी और पेंशन की बातें सुनकर मेरी पत्नी उल्लसित हो गई मगर अगले ही पल शायद उसे सुहाग का खयाल आ गया और वह दीवार पर सिर फोड कर रोने बिलखने लगी।

मेरी नासमझ, बेवकूफ, भोली पत्नी की बातें आग की तरह फैल गई और सुननेवालों ने त्काल बातों का बतंगड़ बना डाला। एक ने कहा- 'क्या पता जुआ, लॉटरी खेलता रहा होगा।" दूसरे ने कहा- दारू पीता रहा होगा या कोठे पर जाता रहा होगा। और किसी ने कहा- क्या पता, हो सकता है एक और बीवी रही हो या फिर किसी से नाजायज सम्बन्ध रहा होगा।

अपने बारे में इस तरह की बातें सुनकर मैं अत्यन्त आहत हुआ। मैंने सोचा कल तक जिस कार्यालय में मैं सीना तानकर चला करता था, जहां सारे लोग मुझसे अदब से बातें किया करते थे. वहीं आज मेरी कितनी छीछालेदर हो रही है। दिल थामकर काफी देर तक में बैठा रहा। कई गिलास पानी गटक लिया फिर बेजान-सी देह को ठेलते-खेलते धर्मशाला लौट गया।

भूखा-प्यासा, थका हारा, मानसिक रूप से मृत मैं एक प्राचीन तख्त पर निढाल हो गया। में गहरी नींद मैं डूब जाना चाहता था, मैं सब कुछ भूल जाना चाहता था मगर खटमलों और मच्छरों ने मेरी नींद को हराम कर रखा था, रह रहकर मैं गहरी सोच में डूब जाता, खुद को कुरेदता। मेरा कसूर क्या था ?

थोड़ी-सी तनख्वाह में इतने बड़े परिवार का भरण-पोषण, पढ़ाई-लिखाई, त्योहार का खर्च और फिर इसके बाद पांच-पांच लड़कियों के लिए धन जोड़ना कितना दुरूह काम है, यह तो मेरी आत्मा ही जानती है। मैं कंजूसी करके पाई-पाई नहीं जोड़ता तो और क्या करता ? पिछले वर्ष कितना भयंकर दिल का दौरा पड़ा था। तकदीर अच्छी थी बाल-बाल बच गया था। हाई ब्लड प्रेशर का मरीज हूं, नित्य गोली खानी पड़ती है। घुटनों में दर्द रहता है, उसका भी इलाज चल रहा है। इन सब के बावजूद भी दो पैसे की तलाश में बल्कि यूं कहूं कि लालच में मैंने हिम्मत बांधकर पहाड़ का दौरा कबूल किया था। किसके लिए? सिर्फ परिवार के लिए।

मैं तो दो बेटियों के बाद नसबन्दी करवा लेना चाहता था। मैंने पत्नी से कहा था 'जीवन में सुखी रहने के लिए पग-पग पर समझौता करना पड़ता है, मन की हर मुराद पूरी नहीं होती है। मगर उसके हठ के आगे मुझे झुकना पड़ा था और पांच-पांच बेटियों का बाप बनना पड़ा था। हर संतान के जन्म के बाद मैं उससे कहता रहा 'बड़ा परिवार हो जायगा तो संकट में फंस जाऊंगा, बेटियां बिन ब्याही बैठी रह जायेगी, चैन से मर भी नहीं पाऊंगा' मगर हर बार और बार-बार वह कहा करती 'लड़कियों की शादी की चिन्ता नहीं करनी चाहिए। लड़की के जन्म से पहले ही ऊपर वाला पति भेज देता है। ऊपर वाले ने जिसके साथ शादी लिख दी है उसी के साथ शादी होनी है, हम और आप कौन होते हैं शादी तय करने वाले ? मगर मुझे मालूम था और है कि अपने पास रोकड़ हो तो बेटी पार हो पायेगी जितनी बड़ी रकम उतनी ही बड़ी पार्टी मिलेगी और इसी कारण से अपनी सारी इच्छाओं को कुचलकर, परिवारजनों को कष्ट देकर धन इकट्ठा करता आ रहा हूं। अपनी बिरादरी की बात तो एकदम निराली है, मामूली सी शादी में भी तीन लाख रुपए की जरूरत पड़ती है। कहावत है कि जो लड़का बिना दहेज के शादी करता है उसे अगले जन्म में छछूंदर बनना पड़ता है और इस कारण से रिश्ता लेकर जाने से पहले ही दहेज की बात पूरी कर ली जाती है।

सोचते सोचते मुझे लगा, मेरा शरीर लाश में तब्दील हो गया और उसी हाल में मैं कब सो गया था पता नहीं।

अगले दिन अपना कंडोलेंस समारोह देखने में कार्यालय पहुंचा। पता चला प्रशासन द्वारा कार्यालय आदेश जारी कर कर्मचारियों को निर्देश दिया गया था कि वे ठीक चार बजे यानी छुट्टी होने से एक घंटा पहले डायरेक्टर के कमरे के समक्ष शोकसभा में एकत्रित हों। आदेश में यह भी था कि शोकसभा के पश्चात् छुट्टी हो जाएगी। सारे अनुभाग अधिकारियों के पास प्रतियां भेजी गई थी। अनुभागों में किसी ने आदेश को पढ़ा, किसी ने बिना पढ़े एक नज़र देख हटा दिया और किसी ने लंच करने के बाद अपना जूठा हाथ पोंछ लिया और किसी ने मेज साफ़ कर फेंक दिया। लंच के बाद लोग अपने-अपने अनुभाग से तनख्वाह लेकर धीरे-धीरे खिसकने लगे।

किसी ने कहा- 'आज तनख्वाह मिली है जल्दी घर पहुंचना है। किसी ने हल्की मुस्कान के साथ कहा--'आज जल्दी छुट्टी है, कोई मर गया है और किसी ने किसी से कहा---'अरे इतना बड़ा ऑफिस है कोई न कोई मरता रहता है कहां तक कंडोलेंस अटेंड किया जाए। जिसे जाना था चला गया अब वह देखने आ रहा है क्या कि कौन है कौन नहीं है ?'

चार बजते-बजते पूरा दफ़्तर लगभग खाली हो गया और जब मात्र दो मिनट शेष रह गया तब डायरेक्टर साहब के कमरे के सम्मुख मात्र आठ लोग दिखाई दिए। उनमें से पांच यूनियन के नेता थे तथा अन्य तीन मेरे अनुभाग के अगले दो मिनट में कल्याण अधिकारी और उनके सहायक हाजिर हुए।

•ठीक चार बजे डायरेक्टर साहब अपने कक्ष से पूरी व्यस्तता के साथ निकल आए और उनके पीछे-पीछे उनके सचिव भी, जो उनके बगल में अंगरक्षक की भंगिमा में खड़े हो गए। डायरेक्टर साहब की अपेक्षा सचिव का चेहरा ज्यादा गुरु-गंभीर एवं फिल्मी इमोशन से लबालब। जिस कार्यालय में सैकड़ों लोग काम करते हैं वहां शोकसभा में मात्र बारह लोगों की मौजूदगी ? ऐसा क्यों ? इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने लगा। हालांकि यह पहला अवसर नहीं था और अनेक शोकसभाओं में में स्वयं उपस्थित नहीं हुआ था फिर भी मैं चकित हुआ क्योंकि यह शोकसभा मेरे लिए थी।

डायरेक्टर साहब ने घड़ी देखी और उनका मस्तक ऊपर उठते ही कल्याण अधिकारी महोदय ने जेब से कागज का टुकड़ा निकाल कर पढ़ना शुरू कर दिया। उन्होंने पढ़ना शुरू ही किया था कि बगल से एक 'हीरो हांडा' मोटर साईकिल हरहराती हुई निकल गई। अधिकारी महोदय का पाठ चालू था और उन्होंने क्या पढ़ा किसी को सुनाई नहीं पड़ा। फिर उन्होंने अपने सहायक से फाइल मांगी और फाइल खोलकर दो लाइन का शोक प्रस्ताव पढ़कर सुनाया और तत्पश्चात उन्होंने दो मिनट का मौन धारण करने का आग्रह किया। मौन शुरू होते ही पास से गुजर रहे चार-पांच लोगों के अट्टहास से मौन में व्याघात हुआ। सभी ने उन्हें घूरकर देखा फिर पूर्ववत खड़े हो गए। सभी अर्द्ध नतमस्तक और सबों की आंखें मुंदी हुई थीं। उसी दौरान कई लोग बेहद उतावले दिखे। वे बार-बार हाथ उठाकर आंखों की पलकों को हल्का सा खोलकर टाइम देख रहे थे और अन्ततः दो मिनट का मौन समाप्त हो गया। मैंने सोचा नीरवता भी कितनी अजीब और कष्टप्रद स्थिति होती है। मात्र दो मिनट का समय कितना लम्बा प्रतीत होता है।

लगभग सारे लोग अब जा चुके थे, इक्के-दुक्के लोग इधर-उधर नज़र आ रहे थे, मैं घुटन महसूस कर रहा था, पसीने से तर था, सांसें तेज थी, आहिस्ता-आहिस्ता डगों को बढ़ाता हुआ मैं  कार्यालय परिसर से बाहर निकल रहा था, पूरे घटनाक्रम को देखकर मैंने मन ही मन तीन कसमें खायी, यह कि मैं हर शोकसभा में उपस्थित होऊंगा, दूसरी--'छोटा परिवार सुखी परिवार की शिक्षा नौजवानों को दूंगा और तीसरी--दहेज के नाम पर भीख मांगने वाले स्तरीय भिखारियों के मन से पिशाचवृत्ति खत्म करने की निर्भीक लड़ाई जीवन के अन्तिम क्षण तक जारी रखूंगा। मैं भली-भांति समझ रहा था कि मेरे जीवन में आये विषाद का कारण क्या है ?

ज्योंही मैंने दफ़्तर के फाटक से बाहर कदम रखा, एक जबरदस्त धमाके की आवाज हुई. मनोरंजन क्लब में शोर मचा हुआ था, हाथा-पायी चल रही थी, दो तीन बाहरी आदमी दौड़ लगाकर भागे, एक के माथे से खून निकल आया था। यह घटना मेरे लिए नयी नहीं थी, मनोरंजन की आड़ में जुआ खेलते-खेलते ऐसी घटना साल दो साल में एक-दो बार घट जाती है और हर बार लोग बाद में समझौता, सुलह करके एकजुट हो जाते हैं।

फाटक के बगल में तिवारी की चाय की दुकान पर चाय पीते-पीते मैं सोचने लगा अब मैं क्या करूं, किधर जाऊं?

मेरा सपना टूट गया। आँखें खुल गई। मैंने देखा मैं सचमुच पसीने से तर था और मेरी सांसें तेज थीं। मेरे बिस्तर पर धूप की तेज किरण खिड़की से प्रवेश कर चुकी थी। पिछली रात होली की रात थी। मैंने भांग वाली मिठाइयां खायी थीं। दस घंटे से ज्यादा सोया था। अब भांग का असर तो नहीं था लेकिन दुःस्वप्न ने गहरा असर छोड़ दिया था। 

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
(कहानी संग्रह: सवाल तथा अन्य कहानियाँ, प्रथम संस्करण: 2002, कहानी "मौत की सूचना" नाम से प्रकाशित )
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"हिंदुस्तान" अख़बार दिनांक 8/8/1999 में प्रकाशित ।
   



'तीन कसमें' के बहाने सुभाषचन्द्र गांगुली के कथा शिल्प पर कुछ नोट्स


समकालीन कथा लेखन में पिछले दशक में इलाहाबाद से जो महत्त्वपूर्ण कथाकार उभरे उनमें श्री सुभाषचन्द्र गांगुली का नाम अन्यतम है। यह कहना भी उनके अवदान को कम करके आंकना होगा कि वह एक गैरहिन्दी भाषी होकर भी हिन्दी में कहानियां लिख रहे हैं। उनकी कहानियां हिन्दी में नियमित कहानियां लिखने वाले कहानीकारों के साथ रखकर निस्संकोच देखी जा सकती हैं। पिछले वर्षों में पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनकी कहानियां, 'सवाल', 'बांसुरीवाला', 'झील', 'शंख', 'नौकर', 'लाली', 'रिश्ता', 'पलंग', 'हीरक जयंती', 'दूध का डिब्बा', 'अनुकम्पा' आदि ने समीक्षकों एवं पाठकों का ध्यान अलग से आकृष्ट किया है। इसी क्रम में उन्होंने ताजा कहानी 'तीन कसमें' का सृजन किया है। इस कहानी के माध्यम से गांगुलीजी के रचना शिल्प एवं कथ्य पर अलग से बात की जा सकती है।

व्यक्ति का रोजमर्रा का संघर्ष, मध्यमवर्गीय जिंदगी की कशमकश, रोज़-रोज़ की टूटन, थकी हारी जिजीविषा, समस्याओं में उलझी सांसें, अपने समय का धुआं और गुबार, समकालीन राजनैतिक, सामाजिक एवं युगीन परिस्थितियां, रिश्तों-नातों की आत्मीयता व दबाव, रचनाकर्म की प्रतिबद्धता व्यक्ति के मानवीय मूल्य, नून-तेल-लकड़ी के साथ जीवन के सरोकार, इन सारी स्थितियों एवं तत्त्वों के 'फ़्लैशेज़' गांगुलीजी की छोटी-सी कहानी के पैरहन में देखे जा सकते हैं। 'तीन कसमें' के अन्तर्गत भी कमोबेश कई-कई सन्दर्भों को पृथक रूप में रेखांकित किया जा सकता है। व्यक्ति के अन्तर्मन एवं बाह्य परिवेश का द्वन्द्व रचनाकार को बहुत करीब से छूता है। वह रोज़ रोज़ जीता है और मरता है, यहां तक कि अपनी शोकसभा तक में शामिल होता है। वह छटपटाकर कह उठता है।

'मरकर जीवित रहने की अनुभूति में मुझे लगा मैं दरअसल एक अधमरा प्राणी हूं। न | मरना चाहता हूं और न ही जीवित रहना चाहता हूं। यह संसार न सुन्दर है, न ही असुन्दर। यह जीवन न अर्थमय है, न ही अर्थहीन, जो कुछ जैसा है सब ठीक है। चेतन अर्द्धचेतन अवस्था में रहकर मेरे मन के भीतर बैठे दार्शनिक मित्र के साथ एक अनूठी रात बीत गई।"

यह वस्तुतः आम आदमी की दार्शनिकता है। वह जब कुछ न कर पाने की अवस्थिति में होता है तो विचारों का बुलबुला बनाने मिटाने लगाता है और ऐसे में उसका दार्शनिक हो उठना कतई अस्वाभाविक नहीं लगता। वह मरकर भी जिन्दा है और जिन्दा रहकर भी मरे हुओं जैसा है। यही तो है सामान्य मनुष्य की त्रासदी जिसे घनीभूत ढंग से जीते हुए गांगुलीजी ने क़लमबन्द किया है। एक ऐसे समय में जब साहित्य से पठनीयता का लोप होता जा रहा है, नितान्त अपठ्य, नीरस और उबाऊ गद्य लिखा जा रहा है, कहानी से कथारस ही गायब होता जा रहा है, गांगुलीजी अपनी कहानियों में विलक्षण कथारस एवं पठनीयता के साथ प्रस्तुत होते हैं। बांग्ला की समृद्ध विरासत के साथ, बिना बंगाली सरलीकरण के वह हिन्दी के कथा साहित्य में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं, यह बात और है कि कभी-कभी वह यथार्थ के सरलीकरण के शिकार अवश्य होते हैं, मगर ऐसी स्थिति में भी उनके उद्देश्य को 'डाउट' नहीं किया जा सकता। वह जटिल अनुभूतियों को सरल अभिव्यक्ति देते हैं। 'तीन कसमें' भी ऐसी ही एक कहानी है, वह अपने आदर्शवादी अन्त के बाद भी अपील करती है। गांगुलीजी शब्दों का जाल । नहीं रचते, कलम को कैमरे की तरह इस्तेमाल करते हैं। कथास्थिति रचकर स्वयं सहज भाव से निष्कर्ष या 'ट्रीटमेण्ट' की ओर जाते हैं। समाधान प्रस्तुत करना उनका लक्ष्य भी नहीं होता, फिर भी वह एक दिशा-संकेत तो कर ही देते हैं।

'तीन कसमें' शीर्षक कहानी में शुरू से लगभग अन्त तक एक तनाव के दर्शन होते हैं। कहानी वहां आकर खुल जाती है, जहां कसमों का सन्दर्भ आता है। मुझे लगता है साधारण जन कसमों से ही अपने को समय-समय पर ढांढस देता है, मजबूत करता है। हालांकि कसमें कभी कभी उसे कमज़ोर भी करती हैं। रचनाकार ने अपने न रहने के बाद की एक जिन्दा फैंटेसी 'तीन कसमें' में बनी है। वह सम्बन्धों में अपने न रहने की बेकली को देखकर आश्वस्त होता है, तो बेचैन भी हो उठता है। पत्नी की खुशी उसे परेशान करती है, तो उसे आरोपों प्रत्यारोपों से घिरा हुआ पाकर वह उद्वेलित आन्दोलित एवं उद्विग्न भी हो उठता है। अन्त में सपने का टूटना उसे जगते हुए परिवेश से जोड़ता है, यहीं आकर उसकी रचनात्मक बेचैनी का शयन होता है। मैं बड़े विश्वास से कह सकता हूं कि एक मंजे हुए कथाकार का रचनाशिल्प कहानी के एकदम अन्त में आकर मुखर हो उठा है, जहां आकर स्वप्न ने दुःस्वप्न की शक्ल अख्तियार कर ली है।

- यश मालवीय


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