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Monday, July 19, 2021

कहानी- सदमा


सुबह नाश्ता करने के बाद गुप्ताजी अपनी पत्नी से बोले-'मुझे अभी निकलना है। हिमांशु से मिलकर आता हूँ। दोपहर तक लौट आऊँगा।'

'--अभी जाने की क्या जरूरत? अगले महीने तो वह आयेगा ही।

'--अरे मैं गया और आया। शाम तक लौट आऊँगा। शादी की बात भी हो जायेगी और बेटे से मिलना भी। ढेर दिन हो गए हैं उसको गए हुए, देखने का मन कर रहा है। पता नहीं अगले महीने आ पाये न आ पाये। छुट्टी-उट्टी जल्दी मिल नहीं पाती । डॉक्टर है ना. कितनी जिम्मेदारी है उसके सिर पर ।"

--'इस बार वह जरूर आयेगा, बार-बार कहके गया है।'

--' कहता तो हर बार है मगर कहाँ आ पाता है....बचपन से कहा करता था बड़ा होकर डॉक्टर बनेगा, लोगों की सेवा करेगा....मनपसंद काम मिल गया है खूब मन लगा रहता है, जरा टाइम मिलता है तो मोटी-मोटी किताबों में डूब जाता है.... नई-नई खोज करता है. बड़ा ही होनहार बेटा है वह ख़ूब तरक्की करेगा....तुम्हारा भी देखने का मन कर रहा चलो ना तुम भी मेरे साथ....!'

--'मन तो कर रहा है लेकिन ढेर काम हैं, दूधवाला आयेगा, महरी भी आयेगी, आप हो आइए। खाना-वाना खाकर, आराम करके, धूप उतरने के बाद रवाना होइएगा।'

--'अच्छा! मैं चलता हूँ। मैं शाम तक लौटूंगा।'

एक झोले में दो-चार सामान रखकर गुप्ताजी रवाना हो गए।

शाम से रात हो गई और रात से सुबह किन्तु गुप्ताजी नहीं लौटे और न ही उनका फोन आया। मिसेज गुप्ता रात भर बेटे के अस्पताल का नंबर मिलाती रहीं और रातभर एनगेज टोन सुनकर साँसें भरती रहीं । भोर होते ही उन्होंने गुप्ताजी के परममित्र मित्राजी से संपर्क किया । मित्राजी ने भी लगभग एक घंटा फोन को ठोका-बजाया और आख़िरकार बस पर सवार हो गए।

मित्राजी को अस्पताल के भीतर प्रवेश करते हुए देख हिमांशु दौड़ता हुआ आया और पूछा--'अरे चाचाजी! आप कैसे ?

-- 'क्या करूँ तुम्हारी माँ रातभर फोन मिलाती रही, मैंने भी कोशिश की.. तुम्हारा फोन शायद आउट ऑफ ऑर्डर है।'
 
--'फोन'...नहीं ठीक तो है, ओहो रात को डेड ही रखना पड़ता है. आलतू-फालतू फोन आता रहता है लोग बहुत डिस्टर्ब करते हैं नींद चौपट हो जाती है, खैर! जल्दी बताइए क्या हुआ ?'

--'अरे हुआ-उहा कुछ नहीं तुम्हारी माँ का उतावलापन और क्या ? चलो अंदर गुप्ता उठा या अभी भी सो रहा है ?'

--'क्या?.. पापा? पापा यहाँ कहाँ?"

--'यहाँ नहीं हैं? कल सुबह चले थे...?'

हिमांशु और मित्राजी गुप्ताजी की खोज में निकल पड़े। इलाहाबाद बस अड्डे से पता चला कि उस दिन सुबह जो बस उस कस्बे के लिए रवाना हुई थी रास्ते में खराब हो गई थी। बस कंडक्टर से पता चला कि बस के कई यात्री अलग-अलग वाहनों से निकल गए थे किन्तु अधिकांश यात्री उसी बस से पहुंचे थे।

हिमांशु ने गुप्ताजी का हुलिया बताया मगर ड्राइवर व कंडक्टर ने कहा कि किसी भी यात्री की जानकारी देना संभव नहीं है क्योंकि लोग अपनी-अपनी मर्जी से चढ़ते-उतरते रहते हैं, किस-किस की कोई ख़बर  रखे।

हताश होकर हिमांशु घर लौटा। उसने चारो ओर सूचना भेजी। अखबारों में गुप्ताजी की तस्वीर के साथ विज्ञापन निकाला। सूचना देने वालों को पच्चीस हजार रुपया देने का एलान किया। घर, मोहल्ला, रिश्तेदार सभी शोकाकुल, हैरान, परेशान । एक महीना बीतने पर सभी ने मान लिया कि उनकी अपमृत्यु हो गई है किन्तु उम्मीद नहीं छोड़ी, मिसेज गुप्ता ने चूड़ियाँ नहीं तोड़ी। सिंदूर नहीं मिटाया। हर वक़ वह एक ही बात कहतीं 'वह कहके गये थे लौटेंगे, जरूर लौटेंगे, वह मुझे धोखा नहीं दे सकते ।' वह आँसुओं से मुँह धोती और बेटे को सुबह-शाम फोन पर कहती--'कुछ करो बेटा, हाथ पर हाथ धरे बैठे न रहो.... पता नहीं वह कहाँ हैं, कैसे होंगे।' कभी कहतीं 'अस्पतालों, नर्सिंग होमों में जाकर ख़बर क्यों नहीं लेते हो।' तीन माह बाद एक दिन जब हिमांशु घर होकर अपने अस्पताल लौटा तो उसके सहकर्मी डॉक्टर राय ने खबर दी- 'एक आदमी तुमसे मिलने आया था।'

--'कौन था वह ?'

--'पता नहीं खुद को जीप ड्राईवर कह रहा था, कह रहा था वह तुम्हारे पिता के बारे में जानता है।'

--"क्या? क्या कहा उसने? उसे जानकारी है? और क्या कहा ? कहाँ है मेरे पापा?’ हिमांशु बेचैन हो उठा।

'आदमी धोखेबाज लगा। मुझे लगा वह बेवकूफ़ बनाकर रुपया ऐंठने आया था। मैंने जब उससे सब कुछ साफ-साफ कहने को कहा तो वह मेरी आँखों में आँखे डालकर इस तरह देख रहा था जैसे कि वह मुझे कच्चा चबा जायेगा।'

'और तुम डर गए ? डर गए थे तो पुलिस को चुपचाप ख़बर कर देते.

तुम्हें हर हालमें उसे रोकना चाहिए था. इतना संगीन और नाजूक मामला है। यहाँ सबका सुख-चैन गुम है, मेरी माँ न जी पा रही है और न ही मर पा रही है और तुमने उसे छोड़ दिया ?' हिमांशु ने गुस्सा झाड़ा।

--''पच्चीस हजार न देकर पचास हजार या एक लाख देने का एलान कर दो तो हर घंटे कोई न कोई आता रहेगा। मगर सुनो अपना बवाल संभालने के लिए तुम स्वयं यहाँ हाजिर रहना। मुझे इस लफड़े में नहीं पड़ना है।' डाक्टर राय ने बेरुखी से कहा।

 हिमांशु का चेहरा लाल-पीला हो गया। उसने कहा-'हाँ-हाँ, मेरे पिता तुम्हारा क्या? तुम्हारे साथ अगर ऐसा हुआ होता तब तुम मेरा दर्द समझ पाते.... होपलेस!"

थोड़े दिनों के बाद वह ड्राइवर पुनः अस्पताल पहुँचा। उसे अंदर आते देख डॉक्टर राय फाटक पर पहुँचा और उसे चले जाने को कहा मगर ड्राइवर ने शोर मचाया- 'हिमांशु साहब! हिमांशु साहब।' पुकार सुनकर हिमांशु दौड़ता हुआ बाहर आया और उसे आते देख

डॉक्टर राय भीतर जाने लगा, जाते-जाते पीछे मुड़कर उसने कहा- अरे! पच्चीस हजार रुपये ले आओ मुफ़् में थोड़े न बोलेगा।'

ड्राइवर ने कहा- 'डॉक्टर साहब! एक पुराने अखबार पर अचानक मेरी नजर पड़ी और देखते ही चौंक उठा, आपके पिता की तस्वीर थीं, उस विज्ञापन को पढ़कर मैं यहाँ आया हूँ..जिस जगह बस खराब हो गई. थी उसी जगह मैंने आपके पिता को अपनी गाड़ी में बिठाया था.... गाड़ी के नीचे अचानक एक पत्थर आ गया था और गाड़ी एकबारगी उछल गयी थी। चूँकि आपके पिताजी लंबे कद के थे.....'
' 'क्या हुआ था? कहाँ हैं?' हिमांशु उत्तेजित हो उठा।

--‘कहने दीजिए मुझे, पूरी बात सुनकर आप खुद ही समझ जायेंगे... गाड़ी बेकाबू होते ही जीप की छत पर लोहे की छड़ से उनका सिर टकरा गया था,

 एक पैसिंजर चिल्ला उठा-"अरे! खून, खून बह रहा है सिर से, ड्राइवर गाड़ी रोको।” 

मैंने गाड़ी रोक दी, आपके पिताजी के मुख से और नाक से खून बह रहा था, उन्हें देखकर मेरा पसीना छूटने लगा था, मैंने गाड़ी स्टार्ट की दूर-दूर तक दवा की दुकान नज़र नहीं आई....बड़ी मुश्किल से एक गाँव के डॉक्टर की जानकारी मिली, ऊबड़-खाबड़, कच्ची सड़कें और खेतों के बीच से हम उसके घर पहुँचे। उन्होंने घर के भीतर खाट, तख्त डालकर नर्सिंग होम खोल रखा था, कई मरीज भीतर थे क्या पता वह सचमुच का डॉक्टर था या फिर कुछ भी नहीं...। उसके बखान से हिमांशु परेशान था, वह बार-बार 'फिर' 'फिर' रटता जा रहा था अब वह अधीर होकर बोला-'मतलब की बात करो। इस समय कहाँ हैं?"

--"इस समय कहाँ हैं मैं कह नहीं सकता, मुझे मालूम नहीं है, जरा धीरज धरिए पूरी घटना सुनने के बाद शायद आप खुद ही समझ जाएँगे।" .....

उस डॉक्टर ने पूछा- "इस बुडढे का रिश्तेदार कौन है ? " हमने कहा हममें से कोई नहीं। तब वह गुस्से से बोला-पाँच हजार लगेगा. ऑपरेशन करना पड़ेगा, रुपया कौन देगा?" 

हम सब एक दूसरे को देखने लगे....मेरी जेब से एक सौ साठ रुपया निकला, एक आदमी पाँच सौ दे रहा था, बाकी सब एक दूसरे का मुँह ताक रहे थे... इतने में आपके पिता बेहोश हो गए, उनके कानों से खून बहने लगा, आँखें एकदम लाल हो गईं। उस डॉक्टर ने कहा-'मामला गड़बड़ है, जान न पहचान लेकर चले आये हो, पुलिस को रिपोर्ट करो वर्ना अभी यह मर जायेगा तो बेवजह फँस जाओगे। ख़ामख़ाह परेशान हो, किसी अच्छे अस्पताल में ले जाना चाहिए था, यह सीरियस केस है, जाओ।"

 मैंने पूछा-" आसपास कहीं अस्पताल है? उसने इस अस्पताल का नाम और पता बताया।"

हिमांशु ने तपाक से कहा-'तो क्यों नहीं ले आये?'

ड्राइवर ने कहा-' यहीं तो ले आये थे..... "

हिमांशु हतप्रभ -"क्या? क्या बक रहे हो?"

ड्राइवर बोला-'जी, ठीक कह रहा हूँ। यहीं लाया था। आपके पिताजी को डॉक्टर राय ने गौर से देखा फिर सिर हिलाकर कहा था "नो चांस, थोड़ी देर का मेहमान है" उसने आपके यहाँ के लोगों से कहा-"मुर्दाघर में डाल दो और इन लोगों को अभी छोड़ना नहीं।" फिर वे लोग उन्हें....।'

--'क्या?' हिमांशु स्तब्ध, हतप्रभ उसका सिर चकराने लगा। वह गालों पर हाथ रखकर गहरी सोच में डूब गया।

ड्राइवर अब अत्यंत भावुक ढंग से बोलने लगा-'डॉक्टर साहब' जब आदमी मर जाता है तो उसे दूर से देखकर मैं समझ जाता हूँ, उसकी नाक टेढ़ी हो जाती है, आँखों की पलकें उलट जाती हैं, पुतलियाँ स्थिर हो जाती हैं और हाथ-पैर काठ मार जाते हैं....आपके पिताजी तब तक मरे नहीं थे, बेहोश लग रहे थे. कोमा में थे...मैंने डॉक्टर राय से कहा था वह अभी जिंदा हैं। मुझे मालूम है मरे नहीं हैं। मैंने उनसे कहा था मेरे छोटे भाई की हालत भी वैसी ही थी वह बच गया था। मोटर साइकिल चलाते चलाते वह भैंस से टकरा गया था, इलाहाबाद शहर के बिजलीघर के सामने की बात है। कई साल पहले की घटना है... आप जानते होंगे, अखबारों में खबर छपी थी, मेरा भाई बाइस दिन कोमा में था, खोपड़ी में छेद करके खून के थक्के की सफाई की गई थी. वह ठीक हो गया था..... '

डॉक्टरों ने पहले कहा था ऑपरेशन से लाभ नहीं होगा, वह मर जाएगा और अगर उसकी जान बच भी जाए तो वह जिंदगीभर अपंग बना रहेगा। हम लोग अड़ गए थे, हम लोगों ने कहा था "मरना होगा मर जायेगा मगर ऑपरेशन तो कीजिए।"

 ऑपरेशन सफल हो गया था, उन दिनों उस ब्रेन ऑपरेशन की अच्छी खासी चर्चा थी, आपने जरूर सुना होगा, मेरा भाई इस समय बिल्कुल ठीक है, नौकरी करता है. बाल-बच्चेदार है।"

हिमांशु अब काफी गंभीर मुद्रा में था. उसे जैसे सब कुछ समझ में आ गया था, उसने गंभीरता से कहा- आगे बताओ ना।

डॉइवर ने कहा-'डॉक्टर राय से मैंने कहा था "वह मरे नहीं हैं, आप इलाज करके बचाने की कोशिश तो कीजिए, यह आपकी ड्यूटी है, आपका धर्म है" 

मगर डॉक्टर ने हमें डाँटकर कहा-“तुम हमें ड्यूटी और धर्म सिखा रहे हो। कहाँ से ले आये हो ? कैसे चोट लगी? सारी बातों का हवाला देकर पंचनामा में दस्तख़त कर दो, हमारे कर्मचारी जैसा कहें वैसा ही करो वर्ना अभी पुलिस बुलाकर जेल भेज दूँगा, जब पुलिस की लाठी पडेगी तब दिमाग ठिकाने में आ जायेगा, सारी बकैती बंद हो जायेगी, यह एक्सिडेंट का केस नहीं है मर्डर है।" 

डाक्टर राय तेज कदमों से भीतर चले गये थे और आपके पिता को मुर्दाघर में डलवा दिया गया था। उस दिन जब मैं आपकी खोज में आया था तब डॉक्टर राय ने धमकी दी थी, आज भी धमकी दे रहे थे...हैरत की बात है आप ही के अस्पताल की बात है, और आपको मालूम नहीं है।'

हिमांशु बहुत पहले ही सब कुछ समय चुका था फिर भी वह अस्पताल पहुँचने तक की घटना को ड्राइवर से जानना चाहता था। उसे याद आ गया था कि उस दिन वह लंच रूम में बैठकर भारत-पाकिस्तान का क्रिकेट मैच देख रहा था। किसी ने आकर खबर की थी कि एक आदमी नाजुक हालत में आया हुआ है। डॉक्टर राय से गरमा-गरमी चल रही है। मगर उस वक्त मैच दिलचस्प मोड़ पर था, वह बाहर नहीं निकला था। उस दिन डॉक्टर राय लंच में देर से आया था। 

हिमांशु ने जब देर का कारण पूछा था तब उसने कहा था-"जाने कहाँ से लोग लाशें ढो-ढो कर पटक जाते हैं, कुछ कहो तो ज्ञान बघारने लगते हैं।"

 हिमांशु ने जब पूछा था कि वह आदमी कौन था तो उसने कहा था "पता नहीं कोई बुड्ढ़ा, भिखारी रहा होगा, जेब में सिर्फ पचास रुपया निकला।" 

फिर वे दोनों खाना खाने लगे थे, दिनभर दोनों ने मैच देखा था, शर्त भी लगी थी, मैच के बाद राय ने मिठाइयाँ मँगदायी थीं और दो दिन बाद जब मुर्दाघर के इंचार्ज ने कहा था कि उस लाश की किसी ने खोज-खबर नहीं ली और लाश सड़ कर बदबू फैला रही है तब डॉ० राय ने लाश को फेंक देने का आदेश दिया था। आदेश देते समय हिमांशु वहाँ उपस्थित था किन्तु उसने देखने की जहमत तक नहीं उठायी थी। उसने महसूस किया कि उसकी खुद की गफलत के कारण उसके पिता की मौत हुई है। राय के साथ साथ उसने खुद को क़सूरवार पाया।

हिमांशु का पसीना छूटने लगा, हाथ-पैर ढीले पड़ने लगे, वह पत्थर की मूरत सा बैठा रह गया। काफी देर तक खामोश रहने के बाद ड्राइवर ने कहा- डॉक्टर साहब' हमें इजाजत दीजिए.....नमस्ते!

हिमांशु ने कहा- 'घर का पता दे दो, मैं पच्चीस हजार रुपए का बैंक ड्राफ्ट भेज दूँगा।"

ड्राइवर ने कहा- 'डाक्टर साहब! मैं रुपए की लालच से नहीं, सिर्फ फर्ज अदा करने आया था।"

हिमांशु बोला- 'मैं तुम्हारा आभारी हूँ, तुम्हारे आने से यह तो पता चला कि अब मेरे पिताजी नहीं रहे वर्ना हम लोग जिंदगीभर आस लगाकर बैठे रहते, ढूँढ़ते रहते...फिर मैं वचनबद्ध हूँ, विज्ञापन में लिख भी दिया था। ड्राइवर ने हाथ जोड़कर कहा-'डॉक्टर साहब ! मैं फुटपाथ पर पला गरीब बाप का बेटा जरूर हूँ पर अपनी आत्मा को गिरवी नहीं रखा सकता... रुपए के वास्ते नहीं आया था...मुझे अफ़सोस है कि उन्हें मैं बचा नहीं सका था।"

ड्राइवर निकल गया, अदृश्य होने तक हिमांशु उसे देखता रहा। हिमांशु जब घर पहुँचा तब उसने सोचा माँ से सब कुछ साफ़-साफ़ कहकर माफ़ी माँग ले, वह बार-बार मन बनाता और माँ के निकट जाता किन्तु हर बार माँ के ललाट पर चमकती बिंदी और माँग के सिंदूर को देख सिहर उठता। उसे इतना सदमा पहुँचा था कि उसकी जुबान हमेशा के लिए बंद हो गयी थी।

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
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(कहानी संग्रह: सवाल तथा अन्य कहानियाँ से, प्रथम संस्करण: 2002)
* "अमृत प्रभात" दीपावली विशेषांक--1997
*'जगमग दीपज्योति ' 9/1997
* पत्रिका 'फनकार' सम्पादक कैलाश गुरु स्वामी सिकर मप्र 2/1997

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