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Thursday, July 15, 2021

कविता- बुढ़ापा

 

                    बुढ़ापा

बूढ़ा हो गया हूं मैं
अवकाश प्राप्त हुए पांच बरस हो गए हैं ,
शरीर का रक्त फीका हो गया है
दफ्तर की फाइलों में
बच्चों की तालीम में
इस्तेमाल हुए स्याही जैसी
और शरीर के मांस 
लग गये थे अधिकांश
मकान की दीवारों, खिड़कियों, दरवाजों
और असबाबों में ,
बदन में रह गई बस सूखी हुई हड्डियां,
दहेज वाला सूट ढीला हो गया
वजनदार लगते हैं पांवों के जूतें
अपने ही मकान के दरवाजें, खिड़कियां
भारी लगती हैं / उन्हें छूने की इच्छा तो होती
पर साहस न करता ,
दूर से ही उन्हें देखता ,
 राक्षस के मुंह लगते सारे दरवाज़े
वे मुझे निगल न लें ।
 जो भी थे मेरे अपने
हो गये वे औरों के अपने,
नहीं रहा मेरा अब उनसे कोई वास्ता ।
उधर मुंडेरा के गोदाम में
जम रही है धूल की परतें
प्राण से प्रिय उन फाइलों में ।
और दफ्तर के फाटक पर
मोटी मूंछों वाला
दुबला पतला अकडू चौकीदार
मुझसे मेरा परिचय पत्र मांगता है ।
मेरा एकलौता बेटा
खड़ा है मेरे आगे महल बनकर
दंडवत हूं उसके पीछे /आउटहाउस बनकर ।
कोई नहीं सह पाता इस बूढ़े का भार
स्वयं बूढ़ा ढो नहीं पाता अपना ही भार
उम्मीद तब भी नहीं छोड़ता
पोते को ज्ञानबर्धन कथा
नित्य मैं सुनाता ‌।

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
("भारत माँ कीगोद में" काव्य संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2022)

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"अमृत प्रभात " में प्रकाशित
31/3/1996

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