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Monday, July 19, 2021

कहानी- सवाल


बाईस दिन कोमा में रहने के बाद रामसुमेर को जब होश आया तो वह अपने सिर पर पट्टी और हाथ-पैरों पर प्लास्टर देखर अचंभित हुआ। उसने कुछ बोलना चाहा मगर उसके कण्ठ से ध्वनि नहीं निकली, वह बोलने में नाकामयाब रहा तो उसकी आँखें नम हो आयीं। उसने पत्नी को इशारे से पूछा कि वह अस्पताल में कैसे पहुँच गया ? क्या हुआ है उसे ? पत्नी ने बताया कि टेहरी टॉप से वापस लौटते समय गाड़ी खाईं में गिरते-गिरते बच गयी थी. गाड़ी सड़क से गिरकर लुढ़कते-लुढ़कते एक विराट् वृक्ष पर अटक गयी थी। एक अज्ञात व्यक्ति ने पुलिस को हादसे की सूचना दी थी। सेना की सहायता से सभी छहजनों को सुरक्षित निकाल लिया गया था, सभी की हालत गंभीर थी. सभी का इलाज चल रहा है।

रामसुमेर को उस दिन की बात याद आ गयी। उस दिन सोमवार था। उसकी तबीयत ठीक नहीं थी। उसने घर से अर्जी भेजी थी, मगर उसकी छुट्टी नामंजूर कर दी गयी थी। दफ्तर का एक चपरासी उसे घर से बुला ले गया था। दफ्तर पहुँचते ही उसने बड़े साहब से कहा था कि उसे आराम करने की सख्त जरुरत है, मगर साहब ने झिड़की देकर कहा था-- तुम्हारी तबीयत इतनी खराब नहीं है कि ड्यूटी करने से तुम मर जाओगे।" जब साहब ने उसे आदेश देकर कहा था कि वह ऑडिट पार्टी को टेहरी गढ़वाल घुमाने ले जाये, टॉप टैरिस घुमाके गेस्ट हाउस में ठहरे, और अगले दिन सूरज ढलने के पहले लौट आये । तब रामसुमेर ने कहा था जीप की हालत ठीक नहीं है, सर्विसिंग ओवरड्यू है, उस गाड़ी से पहाड़ की यात्रा करना उचित नहीं है । मगर साहब ने बेरुखी से कहा था-- " पानी सर से ऊपर हो रहा है, नौकरी भी पूरी तरह पक्की नहीं हुई है, अभी मुंह पर ना बोलते हो तो आगे क्या भरोसा ? क्या फ़ायदा फिर तुम्हारे रहने से ?" साहब की बातों से वह आतंकित हो गया था। ऑडिट पार्टी के चार तथा दफ्तर के एक क्लर्क को गाड़ी में बिठाकर रवाना हो गया था। चलते समय उसने साहब के चेहरे पर कुटिल मुस्कान देखी थी, शायद ऑडिट पार्टी का दो दिन बर्बाद करके वह खुश हुए थे।

मुश्किल से चार-पाँच किलोमीटर चलने के बाद उसने गाड़ी खड़ी कर दी थी। उसने क्लर्क से कहा था कि गाड़ी में कुछ प्रॉबलम है। ब्रेक वगैरा ठीक नहीं है, सभी लोग गाड़ी से उतरकर समीपस्थ चाय की न पर बैठे थे, रामसुमेर ने गाड़ी का कवर खोलकर कुछ ठीक किया और दफ़्तर के क्लर्क से कहा था-" गाड़ी की हालत ठीक नहीं है आगे जाना खतरे से खाली नहीं है। इस पर क्लर्क ने मुंह बिचका कर कहा था- याद है न बड़े साहब ने क्या कहा था ? अपनी भलाई चाहते हो तो चुपचाप चलते रहो" । रास्ते में उसने जगह-जगह गाड़ी रोकी थी , रास्ते भर गाड़ी चूं-चूं, चर- चर की आहत आवाज करती रही, कभी दौड़ती तो कभी घिसड़ती और आखिरकार वे लोग सही सलामत टॉप टेरिस पहुँच गए थे। टेहरी के टॉप पर दो घंटे बिताने के बाद गेस्ट हाउस के लिए रवाना हो गए थे। गाड़ी तेज रफ्तार से चलने लगी थी. सब लोग शोर मचा रहे थे- धीरे ! धीरे ! रामसुमेर! रामसुमेर !' गाड़ी नियंत्रण के बाहर हो गयी थी, और उसके बाद क्या घटा था उसे याद नहीं है। उसने अपने दिमाग पर जोर डाला मगर कुछ भी याद नहीं आया।

उसकी पत्नी ने बताया कि वह अपनी याद्दाश्त खो चुका है। कोमा की स्थिति में वह रह-रह कर दर्द से कराह उठता था, उसके हाथ पैर बाँध दिए जाते थे, प्रायः वह चीत्कार करत -“साला साहब लोगों को नहीं छोडूंगा, देख लूँगा..."। डॉक्टरों का कहना है कि वह पागल हो गया है। 'पागल' शब्द सुनते ही रामसुमेर ने एकबारगी पत्नी की कलाई अपनी मुट्ठी में जकड़ ली। पत्नी ने छुडाने का प्रयत्न किया, मगर रामसुमेर ने उसे अपने करीब खींच लिया और उसका आँचल हटाके मंगल-सूत्र को गौर से देखा फिर हठात् उसका ब्लाउज खींचा, ब्लाउज के दो बटन टूट गए, उसने आँखें फाड़कर उसके वक्षस्थल को कुछ पल देखा फिर उसे बिछौने पर चित कर दिया। उसकी पत्नी आर्तनाद कर उठी-बचाओ! बताओ !' अगल-बगल के कई लोग पास पहुँचे। नर्स व डाक्टर भी पहुँचे। रामसुमेर ने डाक्टर को कुछ कहना चाहा मगर काफ़ी कोशिश के बाद उसके मुख से निरा अर्थहीन शब्दनुमा स्वर निकला जो किसी के पल्ले नहीं पड़ा। उसे जबर्दस्ती लिटा दिया गया, हाथ-पैर बाँध दिए गए और उसको मेंटल शॉक दिया गया।

उस घटना के एक पखवाड़े बाद रामसुमेर को अस्पताल से मुक्त कर दिया गया। धीरे-धीरे वह खुद ही करवट बदलने लगा, उठकर बैठने लगा, अपना आहार अपने ही हाथों से लेने लगा, मगर उसकी प्रगति अत्यंत धीमी थी। देखते-देखते कई महीने बीत गए किन्तु दफ्तर के किसी ने खोज-खबर नहीं ली। उसके घर की हालत बद से बदतर होती गयी। घर का लोटा-कंबल तक बिक गया। पेट की ख़ातिर उसकी पत्नी देर रात तक सिलाई बुनाई का काम करती, किन्तु तब भी दो वक्त की खुराक नहीं जुटा पाती। मजबूरन उसने अपने दोनों मासूम बच्चों को एक ढाबे में लगा दिया, जहाँ से दोनों को एक जून का खाना और नकद पाँच रुपया मिलने लगा।

टेहरी में हुई दुर्घटना के पूरे दस महीने बाद एक दिन जब रामसुमेर के बच्चे काम पर निकल गए तब रामसुमेर ने अकस्मात् पत्नी को पकड़कर अपने पास खींचा। वह सहम गयी। उसने हाथ छुड़ाने की कोशिश की, रामसुमेर के मुख से साफ़-साफ़ निकला-' धनिया! तू हमार मेहरारू है ना ? तोहर माइका बाँगरमऊ में है ना ? तोहर दुईठो बेटवा हैं ना ? बोल हम ठीक कहित है ना ? दुईनों केहर हैं रे ? स्कूल गवा हैं का ? ' अपार खुशी से धनिया रो पड़ी। आह्लादित होकर रामसुमेर ने उसे अपने पास खींचा। ज्योंही उसकी निगाहें उसके बदन पर पड़ी, उसने पूछा "तोहार मंगल-सूत्र कहाँ है ? ओका काहे उतार दियस? ओका उतारे न चाही....।" धनिया फूट-फूटकर रोने लगी। रामसुमेर ने कहा--" काहे रोअत है रे ? मंगल-सूत्र पहिन ले, जा पहिन ले।" धनिया बोली-तोका ठीक करवाये खातिर ओका बेचै पड़ा, अब तू ठीक हो गया है, हमका सब कुछ मिल जाई । कौनो सामान घर मा नहीं है रे, बस हम चारठो जनावर हैं । ओहू सड़कछाप जनावर, जो मिल जात वही चबाए के पेटवा मा डाल लेत । तोहर कौनो छुट्टी- उट्टी नैना, दफ्तरवा से कुछो नाहीं मिला । दस महीना बहुतै तकलीफ़ झेलै हैं । लौंडन का ढावा में लगवाए पड़ा। तोहार दफ्तर से कौनो झाँके नहीं आवा ।"

धनिया की बातों से रामसुमेर का कलेजा दहल उठा, उसने मुट्ठियाँ भींच ली, अपना कपाल ठोंका, फिर सिर थामकर खटिया पर लेट गया । कुछ पल बाद उसने पूछा-- "इतनी सारी बातें हो गयी हैं ? इतनी दुर्दशा है ? कितना समय बीत गया ?" फिर उसके मुख से अनर्गल निकलता गया । उसकी हालत देख खिल उठी धनिया, फिर दुबक गई । काफी देर बाद धनिया ने उससे पूछा--"का रे तोका कुछ्छौ याद नैना ? डाक्टरवा ठीकै कहत रहा का तोहार भेजा खराब होई गवा है।" रामसुमेर की आँखें अंगार हो गयीं, दाँतों को किरकिराते हुए उसने सहसा धनिया को एक घूँसा मार दिया। धनिया की नाक से खून बहने लगा, उसका एक दाँत भी टूट गया। वह इतनी घबरायी कि अपनी सुध-बुध खो बैठी, दौड़कर झुग्गी से बाहर निकल गई और चीखने-चिल्लाने लगी। पास-पड़ोस के कई लोग इकट्ठे हो गए। पाँच-सात मिनट में वहाँ एक पुलिसमैन पहुँच गया। मोहल्लेवालों ने रामसुमेर को कमरे में बंद कर रखा था, पुलिस के पहुँचते ही उनसबों ने उसकी शिकायत करते हुए कहा कि रामसुमेर पागल है, दिन भर पगलैटी करता रहा, धनिया को यातनाएँ देता है और आज तो उसका प्राण ही ले लिया होता। पुलिस ने दरवाजा खोलकर रामसुमेर के हाथों में हथकड़ी पहना दी और उससे चलने को कहा। इस बीच कई औरतें धनिया को उपचार के लिए अपने साथ ले जा चुकी थीं। पुलिस और रामसुमेर के साथ-साथ मोहल्ले के चार-पाँच लोग चलने लगे। रास्ते भर वे लोग बतियाते रहे-“ अच्छा-खासा था, पागल हो गया... पागल नहीं है, बना है...शॉक खायेगा ठीक हो जायेगा”...मारने से भूत भागता है, ये साला तो जिंदा है'.... बीबी-बच्चे खटते हैं, साला हराम का खाता है उल्टा धौंस जमाता है ।" बड़ों के पीछे-पीछे कुछ बच्चे भी तालियाँ पीट कर दौड़ रहे थे और "पागल है, पागल है" चिल्ला रहे थे। और रास्ते भर रामसुमेर एक ही राग अलापता रहा-"मैं पागल नहीं हूँ तुम सब पागल हो।" कुछ क्षण के बाद वह जोर-जोर से बकने लगा-" अरे पागल वो हरामी साहेब है....भ्रष्टाचारी है.... अंगरेज तो चला गया....मगर भ्रष्टाचार और जालिम अफसरशाही.....

पुलिस ने उसे पहले थाने में रखा फिर थाने से मेंटल हॉस्पिटल भेज दिया। हॉस्पिटल में उसने भरसक कोशिश की, डाक्टरों को कन्विंस करने की कोशिश कि उसका दिमाग ठीक है, महज क्रोधवश पत्नी को मार दिया था। मगर उसकी पुरानी रिपोर्ट के आधार पर डॉक्टरों ने उसे भर्ती कर लिया और उसे दूसरा शॉक लगा दिया।

चार महीने बाद रामसुमेर को उसके अच्छे आचरण के मद्देनजर मुक्त कर दिया गया। रात को रामसुमेर घर पहुँचा। उसे देखते ही धनिया सहम गई, उसके माथे से पसीना चुहचुहाने लगा। वह टुकुर-टुकुर ताकने लगी और कमरे से बाहर जाने के लिए उद्यत हो गयी। रामसुमेर ने मुस्कराकर कहा--“मत डर पगली, हम ठीक हैं, बिल्कुल ठीक हैं। बोल तोहर छाती पे तिल है ना? तोको याद है ना, दारु पीकर हम तोका मारे रहे, दूसर दिन हम तोहर कसम खाये रहे-दारु न पीयब, तभै से हम दारु न पीये है ना ?' उल्लासित होकर धनिया बोली--" हाँ, हाँ रे, तो ठीकै कहत है! तोका सब याद है।" रामसुमेर ने उसे गले लगा लिया और उसका पूरा चेहरा चुम्बनों से भर दिया। 

अगले दिन सुबह-सुबह रामसुमेर ने हजामत कर अपना हुलिया ठीक किया फिर कार्यालय पहुँचा। बड़े बाबू ने उसे बताया कि उसकी नौकरी तो जा चुकी है। रामसुमेर हतप्रभ, स्तंभित-सा उसे देखता रहा। फिर इधर उधर एक-एक अनुभाग के भीतर घुसकर सबसे पूछता गया-"क्यों गयी मेरी नौकरी ? मेरा क़सूर क्या ?" एक अधिकारी ने उससे कहा-“जीप खड्ड में गिरते-गिरते रह गयी थी, खड्ड में गिर जाती तो सारे लोग मर जाते, वह तो ऊपरवाले का चमत्कार था जो बच गए, तुम्हें तुम्हारी लापरवाही के कारण बर्खास्त कर दिया गया है।" रामसुमेर ने चीत्कार किया-"यह झूठ है, सरासर झूठ है, मेरा कोई दोष नहीं था, गाड़ी खराब थी, मैंने साहब से कहा था, क्लर्क से भी कहा था, किसी ने बात नहीं मानी उल्टा हमें धमकी दी, जबर्दस्ती भेजा था....मेरे जीते जी तुम सबों ने हमारे परिवार को बर्बाद कर दिया है....आख़िर क्यों ? अगर मैं मर गया होता तो किसे सजा देते ?” अधिकारी के आदेश पर एक चौकीदार ने रामसुमेर को धक्का देते हुए फाटक के बाहर कर दिया। फाटक के बाहर फुटपाथ पर एक कोने रामसुमेर पलथी मारकर बैठ गया। उसकी आँखों के सामने उस दफ़्तर से जुड़ी ग्यारह वर्ष की तपस्या का एक-एक दिन तैरने लगा। ग्यारह वर्ष उसने कैजुअल लेबर की हैसियत से कड़ी मेहनत की थी. ड्यूटी पाने के लिए चपरासी तक की जीहुजूरी करनी पड़ी थी महीने में हद से हद पंद्रह ड्यूटी मिलती, मगर उसे तीसों दिन काम करना पड़ता था, रात-बिरात उसे जाना पड़ता था, हर तरह का काम करना पड़ता था. जब भी जगह बनती वह उम्मीद करता, मगर कोई न कोई उसकी उम्मीद पर पानी फेर देता। हर बार कोई बाहरी आदमी, किसी नेता या बड़ी हस्ती की सिफारिश लेकर टपक जाता फिर बड़े साहब के घर पर काम करने वाले लेबर चाहे उससे जूनियर क्यों न हो, बाजी मार लेते, ग्यारह साल एड़ी चोटी, खून-पसीना बहाने के बाद साहब ने नौकरी पक्की की थी। सब जानकर के भी उसे जोखिम में धकेल दिया था। उसे बिगड़ी पड़ी गाड़ी को पहाड़ पर ले जाने के लिए मजबूर किया था....। क्या इतना ख़राब भाग्य लेकर वह जन्मा है ? क्या यही इंसाफ है ? किसने बना दिया उसको और उसके परिवारजन को " चारठो जनावर, ओहू सड़कछाप जनावर ?' कौन जिम्मेदार है उसकी खोटी तकदीर के लिए ? रामसुमेर वहीं बैठे-बैठे बेशुमार सवालों में खो गया।

सूरज ढलने लगा। दफ्तर का फाटक खुला। एक-एक करके लोग निकलने लगे। जैसे ही फाटक से साहब निकले, रामसुमेर ने उन्हें धर दबोचा। उन्होंने जान छुड़ाने की चेष्टा की पर सफल नहीं हुए। रामसुमेर ने चिल्लाकर पूछा-“ आपके रहते मेरी नौकरी क्यों चली गयी ? मेरा क़सूर क्या है?" साहब ने जवाब दिया-"तुम लापरवाही से गाड़ी चला रहे थे।" राम सुमेर बोला--"यह झूठ है, गाड़ी खराब हालत में थी, मैंने मना किया था पहाड़ पर जाने के लिए....अगर मैं मर गया होता तो मेरी पत्नी को पेंशन मिलती, ढेर सारे रुपए मिलते, मुआवजा मिलता, पत्नी को नौकरी भी मिलती, ऊपरवाले ने मुझे बचा लिया तो इसमें मेरा क्या कसूर ?" आफिसर ने खिसियाकर जवाब दिया-“शराब पीकर गाड़ी चलाओगे, नौकरी नहीं जायेगी तो क्या तुम्हारी तरक्की होगी ?" रामसुमेर ने उसे दहाड़ते हुए कहा-"ये झूठ है, सरासर झूठ है, मैं दारु नहीं पीता, जाने कब का छोड़ दिया, बोलो सच-सच मुझे नौकरी से क्यों निकाला गया है ? मेरा क़सूर क्या है ? तुम्हारे रहते क्यों चली गयी मेरी नौकरी ? बोलो चुप क्यों हो ?" आफिसर चुप था रामसुमेर के सवाल का जवाब देते नहीं बना। तभी दफ्तर के एक रिटायर्ड आदमी ने कहा-" ये क्या बोलेगा साला ? कैसे बोलेगा ? तुम्हारी जगह उसी के साडू का लड़का तो काम कर रहा है...। बिक गया ईमान....बिकाऊ है इंसान " रामसुमेर स्तब्ध-सा कुछ देर खड़ा रहा। फिर उसने कदम बढ़ाया ; आहिस्ता-आहिस्ता उसका निष्प्राण सा देह आगे बढ़ने लगा, विषाद उसके पाँव-पाँव चलने लगा, साँझ ढलती गयी, अँधेरा गहन होने लगा, रामसुमेर भीड़ और अंधकार का अभिन्न अंग बन गया।

प्रिय पाठक ! अगर आप उत्तराखण्ड जाये तो ऋषिकेश और स्वर्गाश्रम के रास्ते में आपको एक फटा-चीथड़ा पहने, बेतरतीब ढंग से बढ़ी हुई दाढ़ी दुबला-पतला लंबा आदमी दिखाई पड़ेगा। वह आपका सामान ढोने आपके निकट पहुँचेगा, उसे अनदेखा करके आप आगे बढ़ना चाहेंगे, हो सकता है आपको उससे हमदर्दी हो जाय और आप अपना सामान उसे थमा दें, सामान ढोते-ढोते वह आप बीती सुनायेगा और कथा खत्म होते ही वह आपसे अपना सवाल पूछेगा जवाब पाने के लिए कुछ देर ठहरेगा-वही है मेरा रामसुमेर।

किसी पहाड़ पर सफ़र करते समय खाई की ओर जरा ध्यान से देखिएगा, किसी विराट वृक्ष पर रामसुमेर की गाड़ी लटकती हुई दिखाई ....उन वादियों में आपको उसका सवाल गूँजता हुआ सुनाई देगा-“ मेरा ... कसूर क्या....?...


© सुभाष चंद्र गाँगुली 
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(कहानी संग्रह: सवाल तथा अन्य कहानियाँ से, प्रथम संस्करण: 2002)
**"दस्तक " सम्पादक, राघव आलोक के 'शताब्दी अंक ' में 9/9/1998 को प्रकाशित
** " सुभाष की कहानी सवाल ने उनके अंतर्मन का अंतरंग का परिचित तो दिया ही पत्रिका में गहरा असर छोड़ा है।" लाल बहादुर वर्मा, दस्तक - 10 नवंबर 1999 अंक में।
** सुभाष चंद्र गांगुली की कहानी ' सवाल ' में मानवीय मूल्य, स्वार्थपरता, और दबाव में शून्य पर पहुंच जाते हैं और शेष रह जाता है परिस्थितिवश हमदर्दी का मोहताज भुक्तभोगी रामसुमेर और उसका टूटा बिखरा परिवार। अहिंदी भाषी होते हुए भी कहानी का  अति संवेदनशील और मार्मिक रूप प्रस्तुत किया है।

बृजमोहन
झांसी 

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