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Tuesday, July 20, 2021

कविता- जीवन के संध्याबेला



न जाने क्या कुछ करने का
अक्सर मन में ख्याल आया था,
बड़े बड़े काम बहुत सारे
करने को सोचा था,
धरती की माटी पर अपना नाम
लिख जाने को सोचा था,
न जाने क्यो कहां
सोच मेरा डूब कर रह गया था
भीड़ ही में कहीं 
खुली हवा मैं तलाश रहा था ,
छोटी सी दुनिया में ही
सिमट कर रह गया था,
अभिलाषाएं थी जो मन में
फंसी रही बस तन में,
दो और दो जोड़ते जोड़ते
बीत गए दिन दम तोड़ते तोड़ते ।
                  (2)
 कल तक छोटी लगने वाली दुनिया
आज लगने लगी अचानक बड़ी,
बादल अभी घिरे नहीं
बिन बादल बरसात स्पष्ट देख रहा हूं,
घड़ी घड़ी मैं देखता घड़ी
थोड़ी ही दूर है नाव खड़ी
कविता बनकर नाच रही जिन्दगी
हर मोड़ पर कविता देख रहा हूं,
निश्चिन्त निर्मुक्त तैयार
अलविदा बोलने वाला हूं,
खत्म हो रहा है सफर / मगर
' निर्भिक ' को मां की छाती से लिपटा
देख रहा हूं ।


सुभाष चन्द्र गांगुली
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2019

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