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Monday, July 19, 2021

कहानी- अनुकम्पा



दफ्तर से वापस जैसे ही मैंने अपनी गली में प्रवेश किया दुबेजी के घर के सामने भीड़ देख स्तंभित हुआ। स्कूटर बंद कर उसे ठेलते हुए घर तक पहुँचा और पाँच-सात लोगों के बीच खड़ा हो गया। पता चला दुबेजी की मौत हो गयी है। मेरे मुख से निकल पड़ा-'अरे! अभी सुबह वह अपने गार्डन में टहल रहे थे, मुझसे दुआ-सलाम हुआ था, ठीक-ठाक थे, अचानक कैसे चल बसे?"

एक ने पूछा- 'उनकी उम्र क्या थी ?' मैंने कहा- 'दुबेजी मेरी उम्र के थे, हट्टे-कट्टे, जिंदादिल, बीच में शुगर बढ़ गया था, अभी कल ही तो अस्पताल से ठीक होकर लौटे थे। इतनी जल्दी चले गये!'

नत्थूबाबू ने सहजता से कहा-'अरे ठीक है, दुबे के नाती-पोते हैं, सब कुछ निपटा कर गये हैं' मैं उत्तेजित तो उठा-'नत्थूबाबू! गाँव में शादी जल्दी होती है, दुबेजी की शादी भी जल्दी हुई थी, शादी जल्दी हुई तो जल्दी बाप बने, जल्दी बाप बने तो दादा-दादू सब कुछ जल्दी बन गये थे, वे मेरी उम्र के थे यानी उनचास साल, बेतुकी बात करते हुए आपको शर्म आनी चाहिए आखिर आप सत्तर के ऊपर हैं, दुबेजी आपके बेटे समान थे।'

• नत्थूबाबू का चेहरा तमतमा उठा। उन्होंने अपनी लुंगी घुटने तक उठाई और गला फाड़कर कहा-- आप मेरी मौत की कामना करते हैं? अरे गिद्ध के अभिशाप से कभी गाय मरी है क्या ', दुबे को मरना था मर गया, मैं क्या करूँ? मैंने मारा है क्या? ' चूँकि दुबेजी मेरी उम्र के थे और मैं अपनी मौत की कल्पना नहीं कर सकता था इस वजह से मेरी उत्तेजना बढ़ गयी और मैं बोल पड़ा दूसरों के जरा-मरण के बारे में यह जनाब दार्शनिक हो जाते हैं। मगर अपने बारे में कुछ भी बुरा नहीं सोच सकते हैं...उस दिन जब बाबरी ढाँचा गिरने के बाद दंगा हो रहा था तब यह जनाब बड़े जोश से कह रहे थे "हो जाए हो जाए इस पार या उस पार रोज-रोज का किच-किच, ठीक नहीं है और फिर जब सड़क पर पुलिस वाले बंदूक तानकर लोगों को खदेड़ रहे थे तब आप सड़क की ओर "बबुआ! बबुआ! साला सूअर किधर गया। कहते हुए दौड़े और बबुआ को अपने साथ लेकर ही घर लौटे थे....हमारी इच्छा से मौत नहीं आती है बात सही है मगर हम यह इच्छा तो रख सकते हैं न कि जो पहले इस दुनिया में आये वही पहले जाये । "

इससे पहले कि नत्थूबाबू कुछ और कह पाते हम सब का ध्यान दुबेजी के घर की ओर चला गया। दुबजी के दोनों बेटे झगड़ा करते करते घर के भीतर से बाहर निकल आये और पीछे-पीछे दुबेजी की सास। सास ने चीत्कार किया--अरे कमीनो ! अभी बाप की अर्थी औ नहीं उठी तू भाई-भाई झगड़ै ऽ लागे? काहे का झगड़ा बा रे!....चुप काहे होई ? तनिक हमहूँ तो सुनि प्रभु! बोल काहे बरे लड़त बा?'

'तू नहीं समझेगी, तू भीतर जा, जा।' बड़े बेटे राजेश ने दुतकारा।

नानी आग बबूला हो गयी हाँ, हाँ हम काहे समझी , हम तो रहिल अनपढ़, गँवा ! दुई ठो किताब का पढ़ लिएस छोट-बड़न का ज्ञान घुस गवा , सरवा तू हमार कदिर न कर, आपन बापौ का सनमान न कर ऊपरवालन का तो डर, इ लड़े--मिड़ै का समय बा का? " दोनों भाई चुप हो गये मगर नानी के भीतर जाते ही दोनों भाइयों में बहस शुरू हो गयी । छोटे भाई मुकेश ने कहा--'जब तक तू पापा की दी हुई रकम नहीं निकालता तब तक अर्थी नहीं उठेगी । कल रात को पापा ने तुझे तीन हजार रुपये दिये थे , पूरा धरा है तेरे पास, पापा का पर्स खाली है, अलमारी, दराज, तिजोरी सब कुछ टटोलने के बाद मात्र एक सौ तीस रुपये मिले हैं । क्या होगा इससे?" ' मुझे इंटरव्यू में जाना है, गाड़ी-भाड़ा, ठहरने का खर्च, कमीज-टाई सब इसी में होना है मैं एक रुपया भी नहीं दे सकता।'

'इंटरव्यू में अभी देरी है, तब तक पापा के दफ्तर से आज तक की तनख्वाह और कुछ रुपये मिल जाएंगे।'

'तो तभी अनिलजी का कर्जा चुका दिया जाता, क्या जरूरत थी उन्हें मना करने की ?'

'पापा की अंत्येष्टि उधार के रुपये से हरगिज नहीं होगी। उनकी आत्मा को शांति नहीं मिलेगी। 'माँ की अलमारी में कितने गहने हैं। वे कब काम आयेंगे?"

'वे बुरे दिनों में काम आ सकते हैं।'

'यह बुरा दिन नहीं है तो क्या है? '

' साला टुच्चा, बेईमान तू साला विषखोपड़े से भी खतरनाक है' । 'क्या? क्या कहा तूने? ' और राजेश ने छोटे भाई की गर्दन दबोच कर चार-पाँच हाथ जमा दिये।

' बेईमान ! हरामखोर ! अहसान फरामोश ! बाप की लाश पड़ी हुई है। और तुम्हें इंटरव्यू की पड़ी है। पिछले तीन सालों में बीसन इंटरव्यू दिया है कौन सा तीर मार लिया ?.... पापा ने मोटा डोनेसन दिया था तब जाकर एडमिशन हुआ था , इतना तेज रहा होता तो इंजीनियरिंग पास करने के साथ ही नौकरी मिल जाती.....अभी इंटरव्यू में देर है पैसा नहीं निकाल सकता .....मुकेश गला फाड़कर चिल्ला रहा था । मैंने समझाते हुए कहा 'अब चुप भी हो जाओ, धीरज से काम करो, चिल्लाने से क्या फायदा ? सारा मोहल्ला सुन रहा है। '

मुकेश की आवाज और बुलंद हो गयी-'सुन ले सारा मोहल्ला, सारी दुनिया सुन ले, दुनिया वाले पहचान लें ऐसी औलादों को, सारे बाप सबक ले लें....'

फिर राजेश ने शेर की तरह गरज कर मुकेश को दो घूँसे मारकर जमीन पर पटक दिया। तभी नानी रौद्र रूप में वहाँ प्रकट हुईं--' अरे हरामजादों तू लोगन तो कुकुर होय गइलि। हमनि बिटिया इत्ति कम उमर मा बेवा होय गइलि और तू सरवा लहास उठावे खातिर लड़त भिड़त बा।'

पुनः नाना ने दोनों भाईयों को अलग किया। अनिल पांडे ने नोटों की गड्डी राजेश की ओर बढ़ा दी और कहा ' बेटा रख लो, पापा का काम-काज शांति से कर दो, हमें जब सुविधा हो तब लौटा देना। तुम लोग खामखाह लड़ रहे हो। '

मुकेश चीख उठा--' नहीं !! उधार के पैसे से पापा की अंत्येष्ठि नहीं होगी। ' ठीक उसी समय पार्वती अपने हाथों में एक जोड़ा कंगन लेकर दाखिल हुई। दोनों कंगन राजेश के सामने फर्श पर रखकर बोली-'मेरे पति को शांति से पहुँचा दे। '

नानी ने दोनों कंगन फर्श से उठा लिया और बेटी से कहा-'बिटिया तोर माई अबहिन जीयत बा।'

•मगर पार्वती अब कुछ कठोर हो चुकी थी। उसने अपना घूँघट उठाया और माँ के हाथों से कंगन छीनकर जमीन पर पटकती हुई बोली--  ' ले राजेश उठा उठा देखता क्या है, अगर इससे काम न बने तो मेरे पास और गहने हैं अपना खून भी है। फिर रोती बिलखती वह घर के भीतर चली गयी।

यह पहला अवसर था जब पार्वती ने लोगों के सामने अपना घूँघट उठाया था। चौखट के बाहर किसी ने उसे बिना घूँघट नहीं देखा था।

पार्वती को देख अनिल पांडे की आँखें नम हो गयीं। उन्होंने आहिस्ता आहिस्ता दोनों कंगन जमीन से उठाया और नानी के हाथ कंगन देते हुए कहा-माँ आप दोनों खुद को संभाले, आपका दूसरा बेटा अभी जिंदा है....राजेश और मुकेश अभी बच्चे हैं, ना समझ हैं।'

मगर मामला शांत नहीं हुआ। भावना से उत्पन्न उस कलह ने मुकेश के मन में विद्वेष को जन्म दे दिया । उसके मन की ज्वाला उस दिन भड़क उठी जिस दिन राजेश नई कमीज पर नई टाई लटकाए हँसता खेलता चेहरा लेकर इंटरव्यू के बाद दिल्ली से लौटकर माँ से बोला- माँ! पापा के आशीर्वाद से इस बार मुझे सफलता मिल गयी....नौकरी मिल जाएगी. मगर तुम तो जानती हो बिना दान-दक्षिणा दिए आजकल कुछ नहीं मिलता...वे तीन लाख माँग रहे थे. मैंने दो लाख में मना लिया है, पिताजी के दफ्तर से तीन लाख के करीब मिलेंगे ही। '

पार्वती ने सिर हिलाकर अपनी सहमति जतायी। मुकेश ने अपना गुबार निकाला-'वाह! क्या खूब! बिना लिए-दिये काम नहीं होता, जब तक पापा रहे तूने उन्हें लूटा, अब उनके जाने के बाद भी तू उनके पैसों को लूटेगा?...तेरे चक्कर में मैं आगे नहीं बढ़ सका, दोनों को हायर एजुकेशन दिलाने की क्षमता पापा की नहीं थी इस कारण उन्होंने मुझे साइंस नहीं दिलाया, भूगोल, नागरिकशास्त्र, समाजशास्त्र सब फालतू विषय दिला. दिये, मैंने उनसे कहा था उन सबों में मेरी रुचि नहीं हैं इससे भविष्य नहीं बनता मगर वे माने नहीं, सिर्फ तेरे चक्कर में....अब तो मेरा ग्रेजुएशन भी नहीं हो पायेगा, मैं तुझे एक रुपया भी नहीं लेने दूँगा। राजेश चिल्लाया-तू क्यों बकैती मार रहा है? मैं माँ से बात कर रहा हूँ । तू छोटा है छोटे की तरह रह, हर बात पर टाँग मत अड़ाना । मुकेश ने गुस्सा झाड़ा-क्यों न बोलू ? पापा के रुपयों पर तेरे अकेले का अधिकार है क्या ? नौकरी जुटा नहीं सकता तो रिक्शा चला, ठेला चला, पैसा देकर एडमिशन, पैसा देकर नौकरी, उल्लू का पट्टा गुस्से से लाल होकर राजेश न लाठी थामी ही थी कि पार्वती चीख उठी-ख़बरदार! मैं अभी जिन्दा हूँ.. मुकेश तू आजकल ज्यादा बोलने लगा, जुबान पर लगाम दे, वह तेरा बड़ा भाई है, उसकी पढ़ाई के लिए जो खर्चा हुआ वह तेरे पापा ने किया है तू उससे क्यों खफ़ा है ? तेरे पापा रहते तो तुझे भी आगे पढ़ाते, लायक बनाते अपने पिता की आत्मा को शांति से रहने दे।'

पार्वती की डाँट से राजेश और मुकेश तो चुप हो गये मगर अब राजेश की बीबी चोंच चलाने लगी...
'माँ जी! आपही ने इस लड़के को सिर चढ़ा रखा है वर्ना क्या मजाल कि यह छोकरा इनके मुँह लगता....एक नंबर का बैलट, भेजा में कुछ है तो नहीं दिन भर किताब रटता रहता है। तब भी नंबर नहीं ला पाता और इंजीनियर भाई को गधा कहता है, कितनी जलन है, आप इसे समझा दीजिए ठीक से बात किया करें।'

मुकेश बोल पड़ा-- 'इनकी सुनिये ! खाए का ठिकाना नहीं नहाये के तड़के। क्या जरूरत थी बेरोजगार लड़के से शादी करने की? जाओ अपने डैडी से दो लाख रुपये माँग लाओ । बेरोजगार लड़के से कोई बेवकूफ़ ही आजकल अपनी बेटी का ब्याह करता है। जैसी करनी वैसी भरनी। जाओ घर से रुपये ले आओ।'

राजेश की बीबी बोली-'अभी मैं अपने भाइयों को बुला लाती हूँ, दिमाग ठिकाने में आ जाएगा, इसे सबक सिखाने की जरूरत है।'

पार्वती बोली- तुम लोगों ने अभी चुप नहीं किया तो मैं खुदकुशी कर लूँगी।' फिर वह फूट-फूट कर रोने लगी।

दो-चार दिन बात पता चला दुबेजी के दफ्तर में उनके परिवार के किसी एक को अनुकंपा के आधार पर नौकरी मिल सकती है। पार्वती ने कहा-'राजेश की जरूरत ज्यादा है, वह शादीशुदा है, राजेश कर ले।'  

मगर राजेश बोला-'मैं इंजीनियर हूँ, अपनी हैसियत के मुताबिक नौकरी करनी चाहिए, इसे मुकेश कर ले तुम्हें पेंशन मिलेगी, पापा के रुपये में से दो लाख मुझे दे दो, अभी भी समय है, मैं उनसे दस दिन की मुहलत माँग लूँगा। मुझे नौकरी मिल जाएगी, पापा का सपना पूरा हो जाएगा, उनकी आत्मा को शांति मिलेगी।

इस बार मुकेश ने एतराज नहीं किया। पार्वती ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। मुकेश ने पिता के कार्यालय में अर्जी डाल दी।

थोड़े दिनों के बाद एक नई समस्या खड़ी हो गयी। पैसों की भागदौड़ कर सब पैसा मिलने को हुआ तो पता चला दुबेजी को जो रुपये मिलने थे उसमें से हाउंस बिल्डिंग एडवांस, कोआपरेटिव लोन, स्कूटर एडवांस आदि काटने के बाद मात्र तीस-बत्तीस हजार रुपये ही मिलेंगे और इस खबर से राजेश को बेहद हताशा हुई और घर में बिना किसी से कुछ कहे उसने दुबेजी के कार्यालय में अनुकंपा के आधार पर नौकरी प्राप्त करने का दावा पेश कर दिया ।

हफ्ते भर बाद जब एक पत्र द्वारा पार्वती से स्पष्टीकरण माँगा गया कि राजेश या मुकेश किसके पक्ष में नौकरी पर विचार किया जाए तो पार्वती धर्म संकट में पड़ गयी । राजेश पर उसका भरोसा नहीं था मगर उसकी हताशा को वह समझ सकती थी। उसकी जरूरतों को नजरअंदाज नहीं कर सकती थी और दूसरी ओर मुकेश कम पढ़ा-लिखा है उसे नौकरी मिलने में असुविधा हो सकती थी । बहुत चिंतन-मंथन के बाद जब किसी एक के पक्ष में निर्णय लेने का साहस वह नहीं जुटा सकी, तब उसने चुप्पी साथ ली।

उधर दोनों भाई रोजाना पिता के कार्यालय में चक्कर लगाने लगे और छोटे-बड़े अधिकारियों को अपनी-अपनी जरूरत समझाने लगे और एक-दूसरे को परिवार के प्रति गैर-जिम्मेदार ठहराने लगे। दुबेजी के घर की बातें बतंगड़ बनकर सबके मुँह चढ़ गयी ।

एक रोज अनिल पांडे ने मुझसे मुलाकात की और दुबेजी के घर की जानकारी माँगी । मैंने उन्हें सारी बातें कहीं । सुनते ही उनका चेहरा उतर गया। थोड़ी देर चुप रहने के बाद उन्होंने कहा- ' मालूम उस दिन जब पार्वती ने घूँघट उठाया था तब उसे देख मैं दंग रह गया था। मैंने देखा वही शक्ल, सूरत, वही लावण्य, वही मासूमियत और कमनीयता आश्चर्य! उम्र के इस पड़ाव पर पार्वती पारो प्रतीत हो रही थी। मेरी आँखों के सामने मेरा बचपन नाचने लगा था।

जमशेदपुर में हम दोनों एक ही गली में अगल-बगल रहते थे। मैं, पारों और कई लड़के-लड़कियाँ एक साथ मिलकर सुरपिट्टी, कबड्डी, इक्कट-दुक्कट खेला करते थे। उस दिन मुझे अचानक एक अद्भुत घटना याद आ गयी। पारो और उसकी सहेली सीमा ने गुड्डा-गुड्डी की शादी रचायी थी। शादी में मैं मेहमान के रूप में आमंत्रित था। समारोह में पहुँच कर मैंने कहा था 'अरे पारो। यहाँ ससुर नहीं हैं ?'

जवाब में उसने कहा था-" अब ससुर कहाँ से ले आऊँ?" मैंने कहा था-"फ्रॉक पहनकर सास नहीं बनते, तुम दोनों साड़ियाँ पहन लो अभी मैं ससुर ढूँढ़ कर लाता हूँ ।"

फिर थोड़ी देर बाद मैं और मेरा मित्र अपने-अपने पिता की धोती लपेट कर अँगोछा चादर जैसा डाल पारो के घर पहुँचे । पारो और सीमा ने साड़ियाँ लपेट ली थीं । मैंने सीमा का हाथ अपनी मुट्ठी में ले लिया था । खेल के उस मनोरम दृश्य को देख पारो के माता-पिता हँसते-हँसते लोट-पोट हो गये थे । पारो बार-बार पूछती रही-"माँ! साड़ी गलत पहनी हूँ क्या? ठीक पहना दो ना "--पैंतीस साल का अंतराल दीर्घ अंतराल होता है। लगभग एक जीवन काल स्मृति-पटल से बाल्यकाल तो क्या युवावस्था की बातें भी लुप्त हो जाती हैं। उस दिन मुझे लगा पारो एक मीठा अतीत है।

पार्वती उसका वर्तमान पार्वती पारो नहीं बन सकती। अलबत्ता मन के आँगन में फुदक सकती है...पारो को असहाय स्थिति में देख मैं तार-तार हो गया था। मैं पारो को दुःखी नहीं देखना चाहता हूँ । मैं उसे हँसते मुस्कराते देखना चाहता हूँ ।

अनिल पांडे के आग्रह पर मैं उनके साथ दुबेजी के घर पहुँचा । घर पहुँच कर अनिल पांडे ने पार्वती की ओर एक कागज बढ़ाकर कहा--“यह नौकरी के लिए आवेदन-पत्र है, आपकी ओर से अनुकंपा के आधार पर आपको आपकी योग्यतानुसार नौकरी आराम से मिल जायेगी । पहला हक आपका है, आप अगर नौकरी क़बूल करती हैं तो समस्त झंझट-बखेड़ा दूर हो जायेगा... इस पर दस्तख़त कर दीजिए ।

'मैं ??' पार्वती मेरा मुँह ताकने लगी । अनिल पांडे ने कहा- जी! आप नौकरी करेंगी। राजेश को नौकरी ढूँढने दीजिए । वह पढ़ा-लिखा है, आज नहीं तो कल नौकरी ढूँढ ही लेगा । मुकेश को पढ़ने दीजिए । उसके मन का क्षोभ मिट जाएगा। आप नौकरी करके गृहस्थी संभालिये, सब कुछ जैसा पहले चल रहा था वैसा ही चलने दीजिए..... अनुकंपा के आधार पर नौकरी देने का उद्देश्य दिवंगत कर्मचारी परिवार को सुचारू रूप से चलते रहने देना है न कि इसकी वजह से परिवार में विघटन या बिखराव लाना, अनुकंपा का अर्थ इस संदर्भ में दया या दान नहीं है बल्कि मजबूती प्रदान करना है... तुम्हें शक्ति चाहिए. तु पारो बनकर दुनिया में नहीं जी पाओगी... तुमने घूँघट उठाकर फेंक दिया है । दुनिया देख ली है, जमाने के हिसाब से काम करो।"

'अनिल !!!' पार्वती के मुख से अनायास निकल पड़ा। 'हाँ पारो! मैं....अनिल ' ।

और पार्वती ने आवेदन-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिया ।

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
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' लेखा परीक्षा प्रकाश' 
जुलाई 1999 में प्रकाशित ।

(कहानी संग्रह: सवाल तथा अन्य कहानियाँ से, प्रथम संस्करण: 2002)

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