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Tuesday, July 20, 2021

कविता- कल का आदमी


एक नवजात शिशु
जिसने रोना भी न सीखा था 
कल तक ,
चीख चीखकर रो रहा था
अपने गर्भ  गृह में,
अकेला ......
एकदम अकेला
कंठ चीर कर रो रहा था । 
और उधर
घर के बाहर
सरकारी पहरेदार,
मूंछें ऐंठे ,लाठी लिए 
स्टूल पर बैठा ऊंघ रहा था । 
कल रात दंगाइयों ने
उसके पूरे परिवार को कूट डाला था
मगर उस नवजात शिशु पर रहम किया था । 
आखिर वह बच्चा
कल का आदमी जो था । 

सुभाष चन्द्र गांगुली
12/2001

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