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Friday, July 16, 2021

कहानी- काँसे की मूर्ति




इस कहानी का नाम पहले 'इंटरव्यू' रखा था क्योंकि मैंने समाजसेविका अंकिता सेन का इंटरव्यू लिया था और इंटरव्यू का पूरा ब्योरा मैंने कहानी में दिया है किन्तु बाद में मैंने शीर्षक बदलकर 'काँसे की मूर्ति' कर दिया क्योंकि इंटरव्यू के दौरान अंकिता ने एक 'काँसे की मूर्ति' की चर्चा की थी और उसी से मुझे कहानी लिखने का आइडिया मिला था।

कहानी की नायिका है अंकिता। नायिका प्रधान इस कहानी में मेरी भूमिका ऑबजर्बर की है। अत: मुझे नायक तो नहीं, एक पात्र के रूप में आप देख सकते हैं पर यह आवश्यक नहीं है कि मेरे द्वारा कहे गये शब्दों को आप मेरे विचार के रूप में देखें क्योंकि कहानी की माँग के अनुरूप मैंने शब्दों का चयन किया है।

अंकिता सेन शहर का चर्चित नाम है। छोटा कद, सुगठित देह, स्मार्ट, आकर्षक व्यक्तित्व। उम्र पैंतीस-चालीस। पेशा वकालत। शौक-समाजसेवा। ध्येय-मुखौटा पहने समाजसेवियों को बेनकाब करना तथा खुद को आदर्शवादी समाजसेवी के रूप में स्थापित करना।

किसी पार्टी या सामाजिक उत्सव में अगर अंकिता दिख जाये तो आप गौर करिए उसकी चाल में मस्ती तो है ही, किसी मर्द से कम अकड़ भी नहीं है। मगर आप उसे आँख फाड़कर मत देखिएगा, वह बुरा मान जाएगी, भौंहें चढ़ा लेगी और तत्काल आपको अपनी निगाहें दूसरी ओर घुमाकर भले मानुष होने का आभास देना पड़ेगा। आप चाहे पुरुष हों या नारी, इससे फ़र्क नहीं पड़ता। आप उसे देखिए मगर शराफ़त से, यानी जस्ट बाई द वे, आखिर वह बन ठन कर आयी ही है इसलिए कि लोग उसे देखें, अगर कोई उसे न देखे तो उसे फ्रस्टेशन होगा।

जब आप उसे एक-दो बार देख लेंगे तब वह अपने गालों पर मुस्कान उलीचकर दोनों हाथ जोड़कर बोलेगी-“सोशल वर्कर अंकिता सेन नाम तो सुना ही होगा आपने.......आपको कहीं देखा है मैंने, कहाँ मिले थे याद नहीं आ रहा है। "

आप भौंचक। मस्त भी हो सकते हैं आप। चर्चित नाम, खूबसूरत चेहरा, आपके मुख से अनायास निकल पड़ेगा-“जी हाँ, खूब सुना है। आपका नाम भला किसे नहीं मालूम ? आप तो मीडिया में छायी रहती हैं। "

अब उसका कैसेट चलता रहेगा। आप भाव-विभोर होकर उसे देखते-सुनते रहिएगा

और आपकी निगाहें उसके चेहरे से हलक पर, फिर चमचमाता नवलखा हार, फिर साड़ी से सरककर सैंडिल पर, फिर ऊपर-नीचे, नीचे-ऊपर होती रहेगीं और अंकिता गाथा आपके एक कान से होकर दूसरे कान से बाहर जाती रहेगी, और फिर आपको उसका सान्निध्य अच्छा लगने लगेगा।

उसकी कथा सुनते-सुनते आप वाह-वाह करते रहेंगे, शाबाशी देते रहेंगे, वह अपनी शोहरत पर बल-खाती रहेगी, इतराती-इठलाती रहेगी और जब तक उसे आप अपना कोई ख़ास अपना समझ बैठेंगे तब तक वह 'जस्ट ए मिनट' कहकर दूसरे, तीसरे, चौथे से मिलती हुई किसी भीड़ की केन्द्र बिन्दु बन जाएगी और इस तरह उसका जादू आपही पर नहीं कइयों पर चढ़ जाएगा। 

दो महीने पहले की बात है। 
मोबाइल की रिंग से मेरी नींद खुल गयी थी। "हैलो !” कहते ही शुरू हो गया था उसका बकबक–“सोशल वर्कर अंकिता सेन, नाम तो सुना ही होगा आपने...
- "जी हाँ, खूब सुना है।"
- "सितम्बर में मुझे 'लॉस एंजिलिस' में 'वूमैन ऑफ द इयर इण्टरनेशनल' अवार्ड मिला था, आपको मालूम ही होगा, लगभग सभी अख़बारों में ख़बर छपी थी, आपके न्यूज पेपर में भी कवरेज था मगर सबसे कम ....... ख़ैर! मैं जो कहना चाह रही  थी......"

- "अरे बाबा कुछ कहेंगी भी, सुबह-सुबह नींद ख़राब कर दी, कल सोते-सोते रात हो गयी थी। "

- "कितनी भी रात सोए हों इस वक़्त आठ बज रहा है, बीमार आदमी के सिवा कोई बिस्तर पर थोड़े न पड़ा रहता है.. .....
कम ऑन! आपने मुझसे सम्पर्क क्यों नहीं किया ? इतना बड़ा सम्मान लेकर स्वदेश लौटी, दिल्ली में जाने-माने पत्रकारों ने मेरा इंटरव्यू लिया, बल्कि प्रेस कांफेंस हुआ. यहाँ रहते हुए भी आपने मुझसे सम्पर्क क्यों नहीं किया ? मैंने कई बार ई-मेल करके रिक्वेस्ट किया, कईयों से कहलवाया .भी....... क्या आप मुझे इस लायक नहीं समझते ?”

अब उससे मैं कैसे कहता कि मैडम ठीक कह रही हैं। बला टालने के लिए मैंने कहा था “सॉरी मैडम मेरे पास पहले से ही लम्बी लिस्ट है, सभी वी० आई० पी० हैं, पब्लिक डिमाण्ड पर कई साहित्यकारों को भी कवर करना है और मेरी सीमा यह है कि एक महीने में एक ही इंटरव्यू छपता है। "

-"मिस्टर निहार रंजन! मैं लोकल लेबल की सोशल वर्कर नहीं हूँ, मुझे यूँ ही अवार्ड नहीं मिला है, आपने रेनु मित्रा को छापा था. क्या वह मुझसे ज्यादा इम्पार्टेण्ट है ?...किसी दिन मेरे ग़रीबखाने में तशरीफ़ लाइए तो मैं दिखाऊँ समाजसेवा करते हुए मैंने क्या कुछ हासिल किया है, देख-सुन लेंगे तो आप खुद ही समझ जाइएगा रेनु मित्रा का कद बड़ा है या मेरा।"

-"ओ० के० किसी दिन समय निकालकर मिलता हूँ, बाई-बाई।" खाना खाकर ज्यों ही मैं बिस्तर पर निढाल हुआ एकबारगी मन ने कहा अंकिता को निराश नहीं करना चाहिए आख़िर वह एक हस्ती तो है ही। मैंने अंकिता का मोबाइल नम्बर मिलाया

-"निहार रंजन स्पीकिंग, कल शाम छह बजे मिलता हूँ एनी प्रॉबलम ?" - 

"नो प्रॉबलम सर! मोस्ट वेलकम ! थैंक यू ! इंतज़ार करूंगी।"

अगले दिन शाम को मैं अंकिता के घर पहुँचा। आठ-नौ फीट ऊँची बाउण्ड्री वॉल। एक बहुत बड़ा साइन बोर्ड दीवार के बीचों-बीच जैसा अमूमन दुकानों में रहता है। मोटे मोटे अक्षरों में लिखा था-'अंकिता सेन/समाजसेविका-एडवोकेट / (इण्टरनेशनल अवार्ड प्राप्त)। दायीं ओर लोहे का विशाल फाटक। काले रंग के उस फाटक पर सफेद पेण्ट

से बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था 'कुत्तों से सावधान' । मैं कॉल बेल बजाने जा रहा था कि फाटक खुल गया।

-"आर यू मिस्टर निहार रंजन ? आई थिंक मेरा अनुमान सही है।" अंकिता ने

- "यस प्लीज!"

-"कितनी देर से खड़े हैं ?"

- “पाँच-सात मिनट हुए होंगे। मुझे जिनसे मिलना था वह घर नहीं थे सो मैं टाइम से पहले आ गया।"

- "यहीं तो कॉल बेल है, पुश कर दिये होते.. 

डरता हूँ।" 'कुत्तों से सावधान' पढ़कर मैं टेंशन में आ गया था, मैं कुत्तों से बहुत

-"आइए! आइए! कुछ नहीं होगा, दे आर डिसिप्लिण्ड डॉग्ज. .......वैसे मेरे कुत्ते हैं बड़े खतरनाक एक बार 'जर्मन शेफर्ड' ने एक लड़के को बुरी तरह काट लिया था। काफ़ी दिनों तक वह परेशान था। पता नहीं क्यों इस देश के लोग खासतौर से बच्चे विदेशी कुत्तों को देखकर छेड़खानी करने लगते हैं। लड़के के माँ-बाप झगड़ने चले आये थे, बड़ा हो-हल्ला किया, रोया-गाया, पाँच सौ रुपया देकर बड़ी मुश्किल से जान छुड़ाया था। इसके पहले छोटे-छोटे अक्षरों में इंगलिश में लिखा हुआ था, उस बखेड़े के बाद इस ढंग से लिखवाना पड़ा। अब कम से कम हरजाना तो नहीं देना पड़ेगा।”

-"मगर मैडम जो बच्चे कुत्तों को छेड़ते हैं वे अधिकतर निरक्षर होते हैं। " 

"सो ह्राट ? मैं क्या करूँ ? खुद खड़ी रहूँ दिन भर ?
 
प्लीज गेट इन, प्लीज !" 

पोर्टिको पारकर जैसे ही मैं भीतर दाख़िल हुआ मेरे सिर से कुछ टकराया और 'झनन झनन-झन, झन-झन' म्यूजिकल साउण्ड गूँज उठी और साथ ही कुत्ते भी भौंके। मैंने पलटकर देखना चाहा कि मेरे सिर से क्या टकराया कि अंकिता बोल पड़ी-“विंड चाइम्स।"

– "विंड चाइम्स ? वह क्या ?" - "अगर कमरे के भीतर आते समय किसी के सिर से टकराकर इसकी साउण्ड निकले तो शुभ माना जाता है।”

 - "और साथ में कुत्तों का भौंकना भी ?"

-“अच्छा मजाक कर लेते हैं आप। फेंगशुई जानते हैं ? फेंगशुई किताब में सफलता के दस हजार नुस्खे पाएँगे आप।"

- "जानता हूँ पर मानता नहीं हूँ।"

–“फेंगशुई आधुनिक कनसेप्ट है। बड़े-बड़े दिग्गज मान गये हैं। कई मल्टीनेशनल्स ने पूरब की ओर मुँह करके काम करने की व्यवस्था कर दी तो लोगों की कार्यक्षमता दुगनी हो गयी है। लेकिन आप क्यों नहीं मानते हैं ?"

 - "वहम है, वहम इस पचड़े में आप जितना पड़ेंगे उलझते जायँगे। आत्मविश्वा डगमगाते-डगमगाते शून्य हो जाता है। इंसान अन्धविश्वासी, भीरू बन जाता है। इसका कोई अन्त नहीं है। आधुनिक कनसेप्ट लेकर आप प्राचीन युग मेंचले जाइएगा।"

–“छोड़िए यह बहस नहीं विश्वास की बात है।”

-“मगर आपके शुभ संकेत देनेवाली घण्टी से मेरा सिर दुखने लगा
है। "

- "ह्वाट ? "

- "मेरे सिर पर एक फुंसी है।" सुनकर वह जोर से हँस पड़ी।

- "प्लीज आप बैठिए, अभी आती हूँ।" मैं सोफे पर बैठ गया। बहुत बड़ा ड्राइंग रूम। दीवार से दीवार तक शानदार सुन्दर कालीन, दो बड़े-बड़े सोफे, दीवारों के पास छोटे-छोटे स्टूलों पर धातुओं से बनी मूर्तियाँ कुछ देवी-देवताओं की और कुछ दिवंगत नेताओं की, बड़े से छोटे आकार के एक दर्जन शंख, और जाने क्या कुछ। दीवार अलमारी से धूल अटी ढेर सारी पुस्तकें। मकड़ों की जाल और उन जालों के बीच मकड़ों के अण्डे खास अन्दाज़ में चमक रहे थे। खड़े खड़े तन्मय होकर एक पेंटिंग देख रहा था कि यकायक कोमल स्पर्श से मेरा ध्यान भंग हुआ। अंकिता सेन कब भीतर आयी थी पता नहीं चल पाया था। उसे देख मेरी आँखें चौंधिया गयीं। थोड़ी देर पहले मैक्सी पहनी हुई सामान्य दिखनेवाली अंकिता अब असामान्य लग रही थी। फिरोजी रंग की सिन्थेटिक साड़ी और उसी रंग का स्लिवलेस ब्लाउज उस पर खूब फ़ब रहा था।

 -“देर तो नहीं हुई ?" अंकिता ने कहा।

- "कुछ टाइम और लगाती तो भी चलता। तस्वीरों का लुत्फ़ ले रहा था। "

 - "सुन्दर है ना यह सब ? इस पेंटिंग को चार सौ डॉलर में कैलिफोर्निया में लिया था। "

- "वाह! और इसे जिसमें अलग-अलग रंगों के धब्बे हैं जिसे देखते ही आदमी सहम जाता है यह कहाँ की है ?"

-"इटली से ले आयी थी। कीमत याद नहीं है। वैसे यह भी महँगी है।”

- "काफ़ी महँगी-महँगी चीजें हैं यहाँ हरेक चीज इम्पोर्टेड, आकर्षक। "

 -“अंकिता सेन के सिवा ।” उसके चेहरे पर शरारतपूर्ण मुस्कान लहरा गयी।

- "अरे! यह क्या कहा आपने ?”

 -“देखिए ना यहाँ आने के लिए आप कितनी आनाकानी कर रहे थे।"

-"छोड़िए भी।” कॉल बेल बजने लगी।

"एक्सक्यूज मी" कहकर अंकिता कमरे से बाहर निकल गयी फिर थोड़ी देर में ड्राइंग रूम के पास आकर खड़ी हो गयी। कॉल बेल की आवाज़ तब भी जारी थी। मैंने देखा अंकिता के सामने दो लड़कियाँ खड़ी हैं। अंकिता ने मेरी ओर देखा फिर दोनों लड़कियों से कहा- “बताओ क्या चाहिये ? क्यों आयी हो ?" 

- "मेरा नाम पूजा है। ये मेरी बहन मोना। मैं कक्षा सात में हूँ, यह छह में है। अगले महीने छमाही का इम्तहान है, हमारे पास कुछ किताबें हैं कुछ नहीं हैं। सौ रुपये में हम दोनों का हो जाएगा।” 

-“तो ? मैं क्या करूँ ?"

- "आप दिला दीजिए ना !" -"बाप क्या करता है ?"

-“रिक्शा चलाता है।"

- "फिर क्यों चली आयी हो भीख माँगने ?”

- "भीख नहीं मदद माँग रही हूँ। बाबू को टी० बी० हो गया है। चार महीने से घर बैठे हैं। बाबू रोजाना बीस रुपया माँ को देते रहे।"

- "क्या मात्र बीस रुपया देता रहा ? कितना कमाता रहा ?"

- "कितना कमाते रहे मालूम नहीं। बीस देते रहे। दूसरे का रिक्शा रहा उसे भी देते रहे। माँ चार घर बर्तन माँजती है। बाबू कहते हैं तुम लोग भी बर्तन माँजो, पैसा कमाओ, माँ चाहती है हम पढ़-लिखकर नौकरी करें। माँ किताब नहीं दिला पा रही है। माँ की मालकिन ने कहा आप बड़ी दयालु हैं, पैसेवाली हैं, आप गरीबों की सेवा करती हैं। "

 -"कौन है, तेरी माँ की मालकिन ? खुद क्यों नहीं दे दिया ?" -"जहाँ दुर्गा पूजा होती है वहीं जो एक लाल-लाल बड़ा-सा बंगला है वहीं रहती है। "

- "रेनु मित्रा ? वह गोल, मोटी, नाटी औरत ?” -"जी गोल-गोल-सी, गोरी-सी, छोटे-छोटे सुन्दर मेमसाहब जैसा बाल, मेमसाहब
खूब अच्छ-सी है, सुन्दर-सी।"

 – “खाक सुन्दर ख़ुद क्यों नहीं दे दिया ? समाजसेविका बनती है हूँ:!  ठीक है, कल सुबह ग्यारह बजे आ जाना। तुम्हारे साथ तुम्हारे स्कूल चलूँगी, प्रिसिंपल से कहकर फीस माफ़ करवा दूंगी।"

- "फीस माफ़ है। बस आप किताब दिलवा दीजिए।"

- "वजीफ़ा मिलता है ?"

- "पिछले साल जाड़े में मिला था। इस साल अभी तक नहीं मिला है। "

- “नहीं मिला तो मिल जाएगा।"

- "वजीफ़ा मिलने पर मम्मी, बाबू के लिए रजाई खरीदेगी। पिछले साल वजीफ़ा के पैसे से हम बहनों के लिए रजाई और स्वेटर आया था।" - "वजीफा क्या रजाई खरीदने के लिए मिलता है ?"

- "मेम साहब! दो साल पहले जब बहुत ठण्ड पड़ी थी ना तब ठण्ड से हमारा भाई मर गया था। एक ही भाई था... हम चलते हैं, नमस्ते।" 

दोनों लड़कियाँ जाने लगीं तो मैं सोफे से उठकर बोला 'रुको' फिर जेब से पर्स निकालकर बोला-“बोलो, कितना चाहिए ?” अंकिता ने तपाक से कहा-“अरे! अरे!! यह आप क्या कर रहे हैं? आप बैठिए।

मैं आती हूँ।" फिर भीतर जाकर अपने हाथ में सौ का एक नोट लहराती हुई वह लौटी और कर्कश स्वर में बोली- “लो, किताब खरीदकर हमें दिखाना और सुनो! अपनी माँ से कहना उस नकचढ़ी, फर्ज़ी समाजसेवी रेनु मित्रा से कह दे अंकिता मेमसाहब से रुपया मिल गया है। अब जाओ।"

-"जी अच्छा। नमस्ते मेमसाहब। नमस्ते। " दोनों लड़कियों को विदा करने के बाद अंकिता मेरे सामने आकर बैठ गयी। थोड़ी देर ख़ामोश रहने के बाद वह बोली

-“देखा आपने रेनु मित्रा का कैरेक्टर! सौ रुपया क्या होता है। मैं तो रोजाना सौ-दो सौ बाँटती रहती हूँ। ये जेनयूइन केस था, पढ़-लिखकर आगे बढ़ना चाहते हैं, जीवन सुधारना चाहते हैं.......मगर क्या है कि उस चुड़ैल रेनु का नाम सुनकर दिमाग खराब हो गया था। जहाँ देखिए माला पहने बैठी रहती है, हँसकर मुस्कराकर बोल लिया, नमस्ते कर लिया, प्राइज डिस्ट्रिब्यूट कर दिया, बाढ़ पीढ़ितों को मोमबत्ती-माचिस-पावरोटी बाँटकर जय-जयकार करवा लिया। हो गयी समाजसेवा। अरे बाबा तुम बड़े व्यापारी की बीबी हो, मोमबत्ती-दियासलाइयाँ बाँट दी तो कौन बड़ा काम कर दिया ? तुम्हारा बैंक कितना खाली हो गया ? इन बच्चों को सौ रुपया देने से तुम्हारा कम हो जाता क्या ? कम नहीं होता जी, बात यह है कि किसे पता चल पाता ? ये सब ख़बरें छपती तो नहीं है। "

थोड़ी देर चुपचाप इधर-उधर देखने के बाद एक मोटी किताब मेरी तरफ बढ़ाकर अंकिता बोली- “मेरी ओर से एक छोटा-सा तोहफ़ा।"

- "इसकी क्या ज़रूरत है!” कहते हुए मैंने किताब उठाया। अमिताभ बच्चन पर लिखी किताब। गीत गाया जया बच्चन ने। मैंने पन्ना पलटा, कीमत देखकर कहा- "इसकी कीमत छब्बीस सौ है ? इतनी महँगी किताब !”

-"महँगी हो क्यों न ? अमिताभ बच्चन क्या सस्ते "

- "यानी आपके कहने के मुताबिक अगर गाँधी, बुद्ध, नानक पर लिखी किताबें सस्ती बिकेँ तो.. ....!"

-“मैं तो यूँ ही मजाक कर रही थी। देखिए कभी न कभी पेपरबैक में आ जाएगी। महँगी किताबें लाइब्रेरियों के लिए होती हैं, भले ही दीमक चाटे प्रकाशन तो धनी बन जाते हैं।"

-“इसे आप रखिए मैं क्या करूँगा ? आपने ख़ामख़ाह इतनी महँगी किताब मेरे लिए खरीदी। इंटरव्यू लेने आया हूँ गिफ्ट-शिफ्ट का अर्थ कुछ और निकलता है।” -“सॉरी मिस्टर निहार रंजन। मेरा आशय कतई खुश करने का नहीं था। एक सम्मान समारोह में मुझे यह किताब मिली थी, मैंने सोचा आप पत्रकार हैं शायद आपके काम

-"और इस किताब के भीतर जो एक हजार रुपए का एक नोट है वह भी आपको सम्मान में मिला था ?"

-“ओफ! मेरी यह बुरी आदत जाती नहीं है, खुद बड़ी परेशान रहती हूँ, इधर उधर रखकर भूल जाती हूँ।"

-"आपके आचरण से और उत्तम विचार से मैं खुश हुई हूँ। मैं भी अपने मिशन में ईमानदार हूँ। रेनु मित्रा जैसी नहीं हूँ कि सिर्फ़ अपना उल्लू सीधा करूँ, अपनी ढफली बजाऊँ, नाम हो, यश हो और काम एक धेले का नहीं... ये बच्चे जो अभी-अभी किताब के पैसे पाकर हँसते-मुस्कुराते चले गये वे क्या रेनु जैसी समाजसेवी से कुछ हासिल कर सकते हैं ? नेताओं की भी एक जैसी कहानी है। बिना कुछ किये नाम-यश-धन सब कुछ बटोरना चाहते हैं। उन पाखण्डियों को बेनकाब करना मेरा मुख्य उद्देश्य है। -“मगर आप तो कह रही थीं समाज सेवा आपका मिशन है, ये पंगा लेनेवाली
बात यानी बेनकाब करने का ध्येय कहाँ से आपके दिमाग में आया ? गुस्ताखी माफ़ करें मुझे तो लग रहा है आप जिन लोगों की निन्दा कर रही हैं उनमें और आपमें कोई फर्क नहीं है, सिर्फ़ कहने का अंदाज़ अलग है यानी कथनी में फ़र्क है। "

- "जी नहीं करनी भी है। मेरी स्टाइल अलग है। मैं जो कुछ करती हूँ अपने बूते करती हूँ किसी की मुहताज़ नहीं रहती हूँ।”

-"मसलन ?"

- "एक बार इस मुहल्ले में एक बूढ़े का मकान एक पॉलिटिकल पार्टी ने कब्जा कर लिया था, बाकायदा एक बड़ा-सा साइन बोर्ड टाँगकर आफिस भी खोल लिया था, सभी हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। मैंने उस बूढ़े का मकान बचा लिया था। उसी घटना के बाद मैं लाइम लाइट में आयी। लोगों ने मेरा लोहा मान लिया।" 

- "क्या किस्सा था ? "

-"किस्सा ? किस्सा नहीं जी हकीकत। आपके अखबार में भी ख़बर छपी थी। मैंने हाउस ग्रैबिंग की ख़बर अपने चाचा को दे दी और एक्शन लेने के लिए कहा। उन्होंने क्विक एक्शन लिया। मेरे रियल अंकल हैं डी० एम० साहब।”  

-"डी• एम० साहब ने कारवाई की, मकान खाली करवाया तो इसमें आपका क्या कमाल ?"

-"मेरे ही कारण अंकल ने इण्ट्रेस्ट लिया था वर्ना रोज़ाना जाने कितने केसेस होते रहते हैं लोग नाक रगड़ते रह जाते हैं। " 

- "डी० एम० साहब का तबादला हो जाएगा तब आप क्या करेंगी ?"

-"क्यों ? उन्हें फोन कर दूँगी, वे जहाँ भी रहें इससे क्या फ़र्क पड़ता है। रहेगा तो उन्हीं के कैडर का कोई ना ? अंकल जी काफ़ी सीनियर हैं। काफ़ी होल्ड है उनका।। आफिशियल और पॉलिटिकल दोनों फील्ड में।"

-"जब आपके अंकल रिटायर हो जायँगे तब आप क्या करेंगी ?"

- "आपको मालूम होना चाहिये कि ब्यूरोक्रैट्स रिटायरमेण्ट के बाद और ऊँचे ओहदे पर बैठ जाते हैं। मरते दम तक वे राज करते हैं। वैसे मिस्टर फॉर योर काइण्ड इनफॉरमेशन मैं अपने अंकल के बूते काम नहीं करती, बड़ी-बड़ी हस्तियों से मेरे खुद का परिचय है। "

सहसा कुत्तों की आवाज़ से मैं सिहर उठा। पलक झपकते ही दो कुत्ते अन्दर घुस आये। एक अंकिता के घुटनों पर लपलपाता, दूसरा मेरे चारों ओर परिक्रमा करता। अपनी जगह से उठकर मैं पीछे खिसकने लगा तो अंकिता बोली-“कुछ नहीं करेगा, सूँघकर चला जाएगा, हिलेंगे-डुलेंगे तो वह परेशान करेगा।”


- " मगर ये विदेशी कुत्ते हम हिन्दुस्तानियों को देखकर बौराते क्यों हैं? अपने देश के कुत्ते हमें कभी नहीं सूँघते और ना ही उनसे डर लगता है। "

“नो, नो माइ डॉग्ज आर रियली डिसिप्लिण्ड। नया आदमी देखकर क़रीब आ जाता है, आप उसे जरा सा पुचकारिए देखिए वह दुम हिलाएगा।”

- "मैडम ! मैं सचमुच कुत्तों से बहुत डरता हूँ। जब मैं हाई स्कूल में था तो मेरे सामने एक कुत्ते ने मेरे मित्र को काटा था। उसके पेट में इक्कीस सूइयाँ लगी थीं तब भी उसे हाईड्रोफोबिया हो गया था। मेरा दोस्त पागल हो गया था। कुत्ते जैसा भौंकने लगा था। जिस दिन वह मरा था घण्टों मैंने उसे भौंकते सुना थे। मेरे सामने जब कभी कोई खूँखार कुत्ता आता है आँखों के सामने वह दृश्य आ जाता है मेरे हाथ-पैर फूलने लगते हैं। "

- “ओ० के०, टोनी ! टोटू!” अंकिता ने आवाज़ लगायी और दस-बारह वर्ष के दो बच्चे तत्काल हाजिर हो गये। अंकिता ने हुक्म दिया-“जा इन शेरों को टहला ला। टहलने का टाइम हो गया है। समय का ख़्याल रखा करो, भौंकना क्यों पड़ता है ?"

दोनों बच्चे कुत्तों को लेकर बाहर निकल गये। फिर थोड़ी ही देर बाद एक-एक हाथ में एक-एक चेन थामकर कुत्तों को लेकर घर से बाहर निकल गये।

-"आपके कुत्ते बड़े खूँखार लगते हैं।”

– “हो क्यों ना ? दे आर नॉट इण्डियन जर्मन शेफर्ड, हंटर और बाकी एल्सेशियन।”

 - "बाई द वे इन पर कितने खर्च होते होंगे ?”

- "जितना हाथी पालने में बल्कि उससे भी ज़्यादा।"

-"फिर भी ?"

- "भोजन पर लगभग एक हजार प्रति माह । हरेक की नेल कटिंग पाँच सौ महीने में दो बार, हेयर ड्रेसिंग पन्द्रह सौ, इम्पोर्टेड साबुन दो-सवा सौ एक-एक के। इन शॉर्ट समझिए ह्यूज एक्सपेण्डीचर चारों पर होता है। खर्चा छोड़िए केयर कितना लेना पड़ता है। ये इतने सेंसिटिव हैं कि इनके चक्कर मैं कहीं जा नहीं सकती हूँ।"

- "मगर आप तो अक्सर बाहर जाती रहती हैं उस दौरान क्या ये बच्चे देखभाल करते हैं ?"

-" 'डॉग केयर होम' में रख जाती हूँ। एक हजार रुपया पर डे पर डॉग। वहाँ ट्रेण्ड लोग रहते हैं। वे इन पेट्स की आदतों से वाकिफ़ हैं। "

"वाकई बहुत कीमती शौक है।”

-"शौक ? ये हैं कितने काम के समझिए कि ये मेरे अंगरक्षक हैं। मगर इतना क्यों पूछ रहे हैं? इससे इंटरव्यू का क्या सम्बन्ध ..आपकी बीबी भी पालना चाहती है ?"

"नहीं, उसकी रक्षा के लिए मैं पर्याप्त हूँ। मैं अपना परिवार ठीक से पाल नहीं सकता हूँ, कुत्ता कहाँ से पालूँ ? हाँ, मेरे घर के सामने एक इण्डियन डॉग है, मेरी पत्नी उसे बचा-खुचा, जूठा दे देती है और वह कुत्ता रात-भर मेरे घर के सामने पहरा देकर उस खुराक का अहसान चुका देता है।

..और रही बात इस प्रसंग का इंटरव्यू से सम्बन्ध का तो मैं समझता हूँ यह महत्त्वपूर्ण प्रसंग हो सकता है........अच्छा यह बताइए  टोनी और टोटू दो बच्चे क्या करते हैं यहाँ ?"

- "कुत्तों को टहलाते हैं और शौच करवाते हैं।”

-"क्या ? शौच करवाने बाहर ले जाते हैं ? देशी कुत्तों की तरह ये भी सड़क पर शौच करते हैं ?"

- "तो क्या मेरे घर के टॉयलेट में करेगा ?"

- "आपके टॉयलेट में क्यों? जब आप इनको फॉरेन स्टाइल में पाल रही हैं, इम्पोर्टेड साबुन तक यूज कर रही हैं तो आपके घर पर इनके लिए स्पेशल स्टेनलेस स्टील के टायलेट भी होने चाहिए।"

-"स्टेनलेस स्टील टॉयलेट ?"

- "क्यों नहीं ? मालूम है, आस्ट्रिया की राजधानी विएना में लगभग एक लाख कुत्ते हैं, जो वहाँ के लिए देशी कुत्ते हैं, उन कुत्तों के शौच के द्वारा शहर में रोज़ाना क़रीब चालीस टन गन्दगी फैलती है। सरकार ने शहर के विभिन्न इलाकों में स्टेनलेस स्टील के टॉयलेट बनाने के लिए अट्ठारह हजार पाउण्ड स्वीकृत किया है। जब विदेशों में उनके अपने देशी कुत्तों के लिए टॉयलेट बनते हैं तो क्या आप विदेशी कुत्तों के लिए एक टॉयलेट नहीं बनवा सकतीं जिसके वे हकदार हैं? और फिर सड़क भी गन्दी नहीं होती।”

- "यह इण्डिया है मिस्टर निहार रंजन! यहाँ का इंसान खुले में पाखाना करता है, महिलाएँ भी सड़कों पर बैठती हैं, मेरे चार कुत्तों की शौच से यह देश गन्दा हो जाएगा क्या ?"

-"आप बेवज़ह नाराज़ हो रही हैं। आपके डॉग्ज डिसिप्लिण्ड हैं, उनकी लाइफ स्टाइल हाई-फाई है, इस देश के इंसान के रहन-सहन से उनकी तुलना नहीं की जा सकती है.. ..पर हाँ आपकी बातों से एक बात मेरे दिमाग में आयी, वह यह है कि समाजसेवी की हैसियत से आप इन महिलाओं की समस्या क्यों नहीं टेक अप करती ?" 

- "मैंने क्या देश की महिलाओं के निजी मामले का ठेका ले रखा है ?"

- "जब सड़क पर बैठना उनकी मजबूरी होती है तो मामला निजी नहीं रह जाता, पब्लिक का होता है, समाजसेवी होने के नाते आप अपने अंकल के प्रभाव का इस्तेमाल कर कम-से-कम अपने शहर की महिलाओं के लिए यह छोटा-सा काम करवा सकती हैं।"

"यह सोशल वर्कर का काम नहीं है। आप कनफ्यूज्ड हैं। जब कोई महिला अपनी समस्या लेकर मेरे पास आती है चाहे वह सास-बहू का झगड़ा हो या पति द्वारा तलाक दिये जाने की बात हो या फिर देवर या जेठ द्वारा ज़मीन-जायदाद लेकर विधवा को सताए जाने का मामला हो या फिर दहेज या बलात्कार का ही मामला क्यों न हो वकील की हैसियत से, और समाजसेवी की हैसियत से भी केस को टेक अप करती हूँ उन्हें इंसाफ़ दिलवाती हूँ।"

-"और इस तरह वकालत का पेशा भी अच्छा चलता है।”

- "आप भी अजीब है, मैं केस न लहूँ तो दूसरा वकील लड़ेगा, वह तो सिर्फ़ रुपए से मतलब रखेगा।"

-"हाँ और एक बात, ये टोनी-टोटू को आप कहाँ से पा गयीं ?"

 - "पा गयी ? क्या मतलब ?. .. दोनों को अनाथालय से ले आयी हूँ।"

-"क्या देती हैं आप इन्हें ?"

- "फर्स्ट क्लास का भोजन देती हूँ। चाय-साय, मिठाई-सिठाई तो है ही, ड्रेसेस भी देती हूँ और प्रति माह पाँच-पाँच सौ तनख़्वाह कम है ? बच्चों का भला हो रहा है।"

'आप तो बाल शोषण का विरोध करती हैं अक्सर पेपर में आपका बयान आता रहता है और आप ही के घर पर बाल शोषण हो रहा है।"

- “सॉरी! आपका कनसेप्ट क्लीयर नहीं है। मैं अनाथ बच्चों का भला करती हूँ। बच्चों को रोजगार न मिले तो इस देश की एक चौथाई आबादी भुखमरी से मर जाएगी।" - "इससे तो बेहतर होता आप किसी अनाथालय के दो बच्चों की सम्पूर्ण जिम्मेदारी ले लेतीं। देखिए, आस्ट्रेलिया के क्रिकेट कप्तान स्टीव वॉ ने सोशल वर्कर का लेबल नहीं चिपका रखा है और न ही उन्हें सोशल वर्कर की हैसियत से अवार्ड-सवार्ड पाने की ललक है। मगर कोलकाता के एक अनाथालय के कई बच्चों की जिम्मेदारी वे ले चुके हैं।"

-"मिस्टर निहार रंजन! हरेक का अपना-अपना तरीका होता है। स्टीव वॉ का नाम है, यश है, प्रचुर धन है।"

 -धन ? आपके पति बहुत बड़े उद्योगपति हैं, अनाथालय के दस-बीस बच्चों का दायित्व आप आराम से ले सकती हैं।"

-"मैं सोशल वर्कर हूँ मिस्टर, अनाथों का नाथ नहीं...... आप मुझे अनावश्यक अपदस्थ कर रहे हैं, ये सब प्रश्न आपने रेनु मित्रा से क्यों नहीं पूछा था ?" 

- "जरूरी नहीं समझा था इसलिए......वैसे मैंने अभी इंटरव्यू लेना शुरू नहीं किया। यह तो फॉर्मल चैट्स हैं। "

- "थैंक गॉड! यू आर रियली वेरी इनट्रेस्टिंग बैठिए। ठण्डा या गरम क्या चलेगा ?”

- "हॉट एण्ड कोल्ड दोनों।"

-"वाऊ! यू आर रियली वेरी-वेरी इण्ट्रेस्टिंग!" अंकिता भीतर चली गयी। कुत्तों की आवाज़ सुनायी दी। मैंने खिड़की से देखा दोनों बच्चे कुत्तों के साथ बाहर खड़े हैं। फाटक खुला हुआ था। बाहर निकलकर मैंने उन दोनों में से एक से पूछा

-"कहाँ के हो ?"

- "माण्डा का। जहाँ का राजा वी० पी० सिंह है। "

-"माँ-बाप हैं ? "

- "दुइनो हैं। "

- "बाबू क्या करता है ?"

- "मजूरी।"

- "कितने भाई-बहन हो ?" - "हम दो, एक और छोटा भाई फिर एक बहिन। ”

- "तुम टोनी हो या टोटू ?".

- "हमार नाम किशन कुमार, एकर नाम छगन कुमार । टोनी-टोटू मेमसाहब का कुत्तन का नाम है। हम टोनी और जाजि को देखित है और इ टोटू और टामी को। एही से मेमसाहब हमका टोनी ओका टोटू कहके गोहरात हैं। "

-"कुत्तों के नाम से पुकारने में तुम्हें बुरा नहीं लगता ?"

–“का करी बाबूजी! इ पापी पेट ख़ातिर सब सहै पड़त है।” -"कितनी तनख़्वाह मिलती है ?"

-“दुई-दुई सौ । बाबू आयके लै जात हैं।”

-"और क्या-क्या मिलता है ?" - "रोटी-दाल, , बासी कुशि, जूठन, बेटवन का उतरन। बस ।”

-"बेटवन ? बच्चे कहाँ हैं ?"

- "साहब दिल्ली मा हैं, धन्धा है। दुइनों लड़के वहीं से हॉस्टल मा रहत हैं। "

 -"क्या-क्या काम करते हो ?"

-"झाडू-बुहार, धोती-बिलाउज, चड्डी-ओड़ढी धोना, बर्तन माँजना-सजाना, चौका-बर्तन, रसोई सजाना, फुटकर सामान लाना, कुत्तन का खियाना, पाखाना करवाना, छिछड़ा लाना, मेमसाहब का पैर-वैर मीजना और बहुत कुछ... मगर बाबू जी ई बतावे आप ई सब हमसे काहे पूछत हैं ?" 

- "मेरी एक दुकान है। दुकान में ज्यादा काम नहीं है। हम तुम दोनों को चार चार सौ देंगे, खाना भी दो टाइम। करोगे ?"

“चार-चार सौ ? काहे ना करब ? मगर बाबू जी हमसे कौनो गन्दा काम तो न करैहें ?"

- "नहीं, नहीं। जनरल स्टोर की दुकान। एक दिन चुपचाप ले जाएँगे। मेमसाहब से कुछ मत कहना।" 

"ना कहब। बाबू आप कित्ते भले हैं। "

अचानक एक कुत्ता जंजीर छुड़ाकर भागा और टोनी यानी किशन कुमार उसके पीछे दौड़ा। मैं भीतर आकर सोफे पर बैठ गया। म्यूजियमनुमा ड्राइंगरूम को निहारने लगा। दूर एक कोने रखे एक्वेरियम पर मेरी नज़र पड़ी। उठकर एक्वेरियम के पास पहुँचा। अजीब किस्म की रंग-बिरंगी ढेर सारी मछलियाँ अवाक् होकर देख रहा था कि ट्रे रखने की आवाज़ हुई। मेरे निकट आकर अंकिता बोली

-“फ्लावर हॉर्न फिश है। दो दर्जन थे, एक मर गयी। क्वालालम्पुर की है। एक-एक इस समय इक्कीस डॉलर की है। इन्हें घर पर रखने से तक्दीर खिलती है, तरक्की होती है, धन आता है। इनका मुँह इंसान के मुँह से मिलता है, इस कारण से ये लकी फिश हैं। सौभाग्य का प्रतीक हैं। "

“मैंने कहीं पढ़ा था हर इंसान का चेहरा किसी-न-किसी जानवर से मिलता है। यानी कि आपके तर्क के मुताबिक अगर किसी बंगाली का मुँह मछली के मुँह जैसा हो तो सौभाग्य का प्रतीक माना जाएगा या फिर घोड़े का मुँह जैसा होगा तो शान समझा जाएगा ?"

- "यू आर इण्ट्रेस्टिंग बट फनी। पता नहीं पूरी दुनिया एक तरफ़ और आप एक तरफ़। वे जो इन मान्यताओं पर भरोसा रखते हैं, विश्वास करते हैं वे बेवकूफ़ हैं क्या ?" 

–“विश्वास नहीं, वे अन्धविश्वासी होते हैं। अन्धविश्वासी होना बेवकूफ़ी ही दर्शाती है। चाहे वह इंसान कितना भी पढ़ा-लिखा हो।" 

-"जहाँ विश्वास की बात आती है वहाँ तर्क नहीं चलता...आइए कॉफी ठण्डी हो रही है । "

मैं कॉफी सुड़कने लगा। तश्तरी में साल्टेड काजू चिप्स, स्पेशल बिस्कुट, काजू की बर्फी और कराची हलवा ।

अंकिता खिड़की के पास गयी, बाहर झाँके और किवाड़ की चिटकनी बोल्ट किया और फिर दरवाजे की चिटकनी लगाकर पर्दा खींच दिया। मैं सकते में आ गया पर चुपचाप देखता रहा। उसने आलमारी खोलकर एक अलबम निकाला फिर मेरे बगल में बैठ गयी। अलबम के पन्नों को पलटती हुई वह एक-एक तस्वीर का वर्णन करती गयी

"यह है 'बाल-श्रम सामाजिक अपराध नहीं बल्कि भुखमरी से बचना' वाद-विवाद प्रतियोगिता पुरस्कार समारोह.....यह है मेधावी छात्रों को प्रशस्ति पत्र देने का समारोह.. ..यह है 'जागो जागो नारी' अभियान का दृश्य मेरे नेतृत्व में.... इसे गौर से देखिए अमेरिका से लौटकर 'वूमैन ऑफ दि इयर' अवार्ड पाने की खुशी में मैंने जो कॉकटेल पार्टी दी थी, जिसमें जाने-माने पत्रकार लोग थे उसकी तस्वीर।”

-"मगर रेनु मित्रा कह रही थी कि आपने जिस अवार्ड का इतना प्रचार करवाया, ढिंढोरा पीटा वह फ़र्जी है यानी कि आपकी बहन जो लॉस एंजिलिस में एक लेडीज़ क्लब चलाती है उसी क्लब के जरिए आपने सम्मान-पत्र हासिल किया जिसकी कोई अहमियत नहीं है। मान्यता-ओन्यता कुछ नहीं है। बकवास है। "

- "रेनु की बेटी न्यू जर्सी में रहती है तो इसका मतलब यह तो नहीं कि अमेरिका की ठेकेदारी उसी के पास है ? जलती है मुझसे, बहुत जलन है मुटकी को.....रातोंरात मेरा नाम हो गया है। यह उसे रास नहीं आ रहा है.. ..उसे मालूम होना चाहिए किसी-न-किसी संस्था के बैनर से ही अवार्ड्स मिलते हैं। अगर मेरी बहन उस संस्था की सचिव है तो इसका अर्थ तो नहीं कि मैं डिजर्व नहीं करती ? रेनु भी अपनी बेटी के जरिए अवार्ड पाकर दिखाए तो जानूँ ? फ़र्जी है! हूँ:... और आपने मान ली उसकी बात ?"

- "नहीं, मैंने कहाँ मानी। मान लेता तो इंटरव्यू क्यों लेने आता? मैंने सोचा हकीकत क्या है आपसे भी जान लूँ.. .छोड़िए रेनु-सेनु की बात, मुझे उससे क्या लेना-देना, आप अलबम दिखाइए, अच्छा लग रहा था।”

अंकिता का लाल हो उठा चेहरा फिर से स्वाभाविक हो गया। एक फोटो में ख़ुद की तस्वीर पर उँगली रखकर उसने कहा- “ज़रा इसे ध्यान से देखिए।"

-“सुन्दर फोटो है, बैकग्राउण्ड सुन्दर, ये बच्चे भी.....

- "बस ? "

- "नहीं, आप भी। "

चूँकि वह काफी नाराज़ हो चुकी थी, मैंने उसे खुश करना चाहा और वाकई वह गद्गद् हो गयी। अपनी जगह से उठकर और एक अलबम लेकर मुझसे सटकर बैठ गयी। जब तक मैं थोड़ा-सा खिसकता तब तक उसने उस भारी अलबम को मेरी जाँघों पर रख दिया और खुद चिपक-सी गयी। उसकी जाँघ के स्पर्श से मुझे अपनी जाँघ पर सुरसुराहट महसूस हुई। मैं कुछ नर्वस-सा हो गया।

मैं एक-एक पन्ना जल्दी-जल्दी पलटना चाहता था मगर वह सटाक से उँगली रखकर कुछ-न-कुछ बखान करती और समय लगाती। उसने अपना अलबम कमेण्ट्री फिर से चालू की-“ये हैं टोक्यो की महिलाएँ, ये दोनों मेरी साड़ी पहनी हुई हैं। वहाँ की महिलाओं को भारतीय महिलाओं की साड़ी पहनना अच्छा लगता था.. . यह है रोम का टॉवर........यह सुन्दर मनोरम दृश्य है स्वीट्जरलैण्ड का प्रकृति की सुन्दरता देखिए।" 

-"ओ गॉड! आप कहाँ-कहाँ हो आयी ? ढेरों उपलब्धियाँ हैं। रेनु मित्रा के पास तो कुछ भी नहीं है दिखाने के लिए और न ही कहने के लिए कुछ

 - "यही तो मैं कह रही थी, इसलिए न बार-बार बुला रही थीं।”

- "किस सिलसिले में जाना होता है विदेशों में ?"

- " लम्बा विषय है, कहाँ तक गिनाऊँ ? नाना प्रकार के कॉनफ्रेंस, सेमिनार, वर्ल्ड पोएट्स कॉनफ्रेंस के लिए थोड़े दिन पहले लन्दन गयी थी। "

 - "पोएट्स ? यानी आप कवयित्री भी हैं? वाह! और किस-किस कारण से जाती हैं विदेश ?"

- "बाल शोषण, महिला उत्पीड़न से मुक्ति, ह्यूमन राइट्स, वूमैन राइट्स, एनिमल राइट्स, नेचुरल जस्टिस आदि-आदि। हाँ, दो वर्ष पहले शान्ति सन्देश लेकर गयी थी जापान, रोम | "

–“शान्ति सन्देश ? शान्ति सन्देश लेकर जापान, रोम ? क्यों ?"

-"अपना देश तो शान्ति प्रिय है लेकिन अपनी शान्ति औरों पर निर्भर करती है। इसलिए औरों को शान्ति का महत्त्व समझाना आवश्यक है।"

 – “हिन्दुस्तान में आपने कोई उल्लेखनीय काम नहीं किया है, ऐसा क्यों ?"

- "किसने कहा ? जो कुछ किया और कर रही हूँ वह किस देश के लिए है आप ही बताइए।"

- "जुगाड़ करके प्रभाव का इस्तेमाल करके घूम आयी। मौज-मस्ती की। इससे किसका लाभ हुआ ? खुद का या देश का ?”

-“यह सवाल तो आप उन लोगों से पूछिए जो जुगाडू होते हैं। मैं जुगाडुओं में से नहीं हूँ आप मेरे पेपर्स पढ़िए, समझिए, मुझे जानिए तभी मेरे बारे में सही आयडिया फॉर्म कर पाएँगे। "

-"क्या आपके विचारों से और पेपर्स व कविताओं से समाज में कोई सुधार आया ? "

- "पता नहीं। आपका यह प्रश्न भी विचित्र-सा है। अगर विचारों से समाज का सुधार हो जाता तो बुद्धा, गान्धी, कबीर, बाबा साहब के बाद किसी की ज़रूरत नहीं पड़ती, मदर टेरेसा की भी नहीं।"

- "यह नाम आपने अच्छा लिया है। मदर टेरेसा सही मायने में सोशल वर्कर थी। "

 - "काम करने का सबका अपना-अपना तरीक़ा होता है। जिसमें जितनी क़ाबिलियत होगी, उसी के अनुसार काम करेगा। मदर टेरेसा में योग्यता होती तो वह भी पेपर्स तैयार करतीं, भाषण देतीं। वह जो काम करती थीं, एक नर्स भी वही करती है। विदेशी मूल की थीं 'नोबल प्राइज' मार ले गयीं। मेरी सेवाएँ उनसे कम नहीं हैं।"

- "वाह क्या खूब क्या खूब! आप एकदम ओरिजिनल हैं।" 

-"छोड़िए भी, कुछ तस्वीरें और हैं। देख लीजिए।"

एक तस्वीर पर उँगली रखकर उसने कहा- “यह पाँच वर्ष पहले की अंकिता है, अब तो मैं ढलान पर हूँ।” शरारत भरी नज़रों से उसने मुझे देखा।

 मैंने कहा-“कुछ लोगों के चेहरे फोटोजेनिक होते हैं, वैसे अभी भी आप वैसी ही हैं।"

अलबम के दो-चार पन्ने पलटकर उसने एक तस्वीर पर उँगली रख दी और फिर थोड़ी-सी तिरछी हो गयी।

उसके एक वक्ष के स्पर्श से मेरे रोंगटे खड़े हो गये। मैंने सिर घुमाकर उसे देखा। फिर खुद को उसके स्पर्श से बचाने के लिए तनिक झुका। मगर वह भी तनिक झुककर स्पर्श को बरकरार रखती हुई बोली- "देखिए इस तस्वीर को ! कितना सुन्दर दृश्य! यह है वेनिस, जलमग्न शहर, बल्कि यूँ कहिए कि पूरा का पूरा शहर जलाशय के ऊपर है, बेजोड़ शहर है यह, एकदम अनोखा....... और अब इसे देखिए, ध्यान से देखिए!"

- "देख रहा हूँ।"

- "क्या देख रहे हैं ?"

- "मूर्ति।"

- "मूर्ति ? बस ? और कुछ नहीं दिख रहा है ?"

- "और उसकी बगल में और एक मूर्ति।"

“और एक मूर्ति ? धत् !"

- "मूर्ति जैसी आपकी तस्वीर, निष्प्राण, निर्जीव, पाषाण।"

- "मजाक छोड़िए। ध्यान से देखिए, समझिए। " 

- "देख रहा हूँ समझ रहा हूँ।"

- "आर यू श्योर ?"

-"कुछ-कुछ, कुछ-कुछ।"

- "कुछ नहीं समझते हैं आप, कुछ नहीं। एकदम अबोध हैं।"

"आप ही समझाइए।"

वह कुछ और झुकी। उसकी देह की भार मैं अपनी पीठ पर महसूस करने लगा। मुझे लगा मेरा जिस्म उसकी गिरफ्त में जा चुका है। चाहते हुए भी मैं हिल नहीं पा रहा था। मेरे दिल की धुकधुकी बढ़ गयी, नसें फरफराने लगीं। उसने कहा

-“देखिए! इसे गौर से देखिए। इसका दायाँ स्तन काँसे का है और बायाँ स्तन सोने का।"

-"सच !!...... ऐसा क्यों ?" -"नहीं! पूरी मूर्ति काँसे की है। इस औरत के बाएँ स्तन पर हाथ रखकर पर्यटक फोटो खिंचवाते हैं। वर्षों से रगड़ खाते-खाते काँसे का स्तन सोने का बल्कि सोने जैसा चमकने लगा है। "

- "अद्भुत !!"

-"अद्भुत ? आप भी ? आम आदमी और आप जैसे बुद्धजीवी में क्या फ़र्क ?"

- "फ़र्क क्यों हो ? मैं भी हाड़-माँस का हूँ।"

पल दो पल के लिए अंकिता ने खुद को अलग कर लिया फिर इतनी क़रीब आ गयी कि मेरी दायीं जाँघ से उसकी जाँघ चिपक गयी। मेरी बनियाइन गीली होती गयी। भीतर मैं पसीने से तर था। मैं द्वन्द्व में था। मैं ख़ुद को अलग करना चाहता था और नहीं भी। मुझे अपने पुरुषत्व का अहसास हो रहा था।

अंकिता ने कहा - "इस तरह का फोटो खिंचवाना वहाँ के लोगों के लिए तमाशा है। बेहूदापन है। लोगों की घिनौनी मानसिकता दर्शाती है। मालूम है यह किसकी मूर्ति है ?.......यह है मशहूर प्रेमिका जूलिएट की मूर्ति.. ..मैंने अपने एक लेख में इस ढंग से फोटो खिंचवाने का विरोध कड़े शब्दों में किया था। मेरे विचार से इस ओछी हरकत से नारी जात का अपमान होता है। आज जब नारी स्वाभिमानी, स्वावलम्बी तथा पुरुष से किसी मामले में कम नहीं है, बड़ी हैरत की बात है कि पुरुष जात भी महाभारत युग जैसा उसे भोग की वस्तु समझता है.. ...मेरा वह लेख अमेरिका की एक पत्रिका में प्रकाशित हुआ था, उस लेख को लोगों ने बहुत सराहा है।"

- "यही तो विडम्बना है अंकिता जी, नारी भली-भाँति जानती है कि वह भोग की वस्तु है और उस सोच से वह सुखानुभूति पाती है ऊर्जा मिलती है उसे। हाँ, लालची तथा बलात्कारी पुरुष से वह घृणा करती है.. .रही बात इस मूर्ति में पुरुष के हाथ रखने की तो मेरा मानना है कि रोमियो के बगैर यह मूर्ति अधूरी है, अपूर्ण है, पुरुष का हाथ उसे पूर्णता प्रदान करता है, वही प्रकृति है, सृष्टि है। यही सत्य है, शिव है और सुन्दर भी। उसे सौन्दर्य बोध से देखिए । यही जीवन है । "

- "पुरुष तो पुरुष बेशर्म महिलाएँ भी उसी पर हाथ रखकर बत्तीसी निकालकर फोटो खिंचवाती है, देखिए इस तस्वीर की यह बेहया महिला स्तन पर हाथ रखकर कैसी भावुक भंगिमा में है, क्या इसे भी आप जायज ठहराएँगे ?"

-"बिलकुल! इसमें असत्य क्या है? क्या लेस्बिनियज्म कोरी कल्पना है? उस चित्र को आप कला की दृष्टि से भी देख सकती हैं।"

 -"आप खुद को प्रगतिशील कहते हैं मगर आप भी रुढ़िवादी सोच से बाहर निकल नहीं पाए हैं। मैंने भी फोटो खिंचवायी है, मैंने कोई हरकत नहीं की।

- " मैं क्षुब्ध और त्रस्त था। अंकिता के प्रति एक अजीब-सा आक्रोश दिल और दिमाग को प्रताड़ित कर रहा था। 

मैंने तिलमिलाकर कहा-"जूलिएट की बगल में औरों से भिन्न आपकी तस्वीर बेजान और निष्क्रिय है। जूलिएट से लिपटी यह औरत प्रसन्नचित्त, उन्मुक्त मस्त है। दिल खोलकर हँसता हुआ उसका चेहरा बेहद आकर्षक, मनभावन है। आप में सौन्दर्यबोध नहीं है।"

अंकिता ने गुस्से का इज़हार करते हुए एक हाथ का फासला बनाया। उसकी आँखें बिल्ली जैसी चमक रही थीं, साँसों की ध्वनि पूरे कमरे में गूँज रही थी। मुझे लगा वह मुझ पर झपटनेवाली है। मैं काफ़ी घबड़ाया हुआ था। इधर-उधर देखकर भाग निकलने का उपाय सोच रहा था। अचानक बादल गरजने की आवाज़ हुई। कुत्ते भौंकने लगे।

मैंने कहा- “मेघों का गर्जन हो रहा है। बिजली कड़क रही है। धीमी-धीमी बारिश भी होने लगी है, मूसलाधार बारिश हो सकती है........ आपके डिसिप्लिण्ड डॉग्ज इनडिसिप्लिण्ड हो रहे हैं, कुत्तों को खराब मौसम का अहसास हो जाता है...... अरे! बिजली भी गुल? मुझे चलना चाहिए....... आपके कुत्ते लगता है इसी कमरे का दरवाज़े थपथपा रहे हैं.......'

- "घबराइए नहीं। मेरे सिगनल के बिना वे घर आये मेहमानों पर नहीं झपटते हैं, मेरा सिगनल पाकर बच्चे उन्हें खोल देते हैं और मैं तब सिगनल देती हूँ जब कोई मेरे साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती......

- "काइण्डली आप उन्हें चुप करा आइए, देख आइए ना वे बन्धे हैं या नहीं....... अंकिता प्लीज! मैंने पहले ही कहा था मैं कुत्तों से डरता हूँ, मेरा वह दोस्त आँखों के सामने आ जाता है और मैं ढीला पड़ जाता हूँ..  ...... अंकिता प्लीज! मेरा शरीर ठण्डा होता जा रहा है।"

मेरे गर्म होठों पर एक खामोश, दीर्घ चुम्बन धरकर वह दरवाज़ा खोलकर “टोनी!" "टोटू!" चीखती हुई भीतर गयी और मैं अत्यन्त ख़ामोशी किन्तु तेज रफ्तार से दरवाजा खोलकर बाहर निकल आया।

अंकिता चीख उठी-“निहार ! मिस्टर निहार रंजन! अब डर नहीं है, कम ऑन, कुत्तों को भीतर के कमरे में कैद कर दिया है, बच्चे भी नहीं हैं, इनवर्टर का स्विच ऑफ था, ऑन कर दिया, कम ऑन........'

लोहे का विशाल फाटक खोल बाहर निकलते हुए मैंने कहा- 'तुमसे तो बेहतर है वह काँसे की मूर्ति जो बिना कुछ लिए अगाध सुख देती है, उसके क़रीब जाने से खोने के लिए कुछ भी नहीं है, पाने के लिये सब कुछ है। वह काँसे की मूर्ति सजीव है, सक्रिय है, प्रेम है, जीवन है और उसके उलट तुम सिर्फ.....!

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
( "कहानी की तलाश" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2006)
__________________________
* " जनसत्ता सबरग " 2/11/2003 में
* Written in 2002 revised and finalized in July 2003.
* हिंदी संस्थान, लखनऊ की त्रैमासिक
पत्रिका ' साहित्य भारती'
 जनवरी-मार्च 2022 में प्रकाशित।
* शेखर जोशी जी की महत्त्वपूर्ण टिप्पणी :-
" श्री सुभाषचन्द्र गांगुली की मातृभाषा बांग्ला है लेकिन उन्होंने अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए हिन्दी भाषा को चुना है। उनके सरोकार समाज के हर तबके की चिन्ताओ से जुड़े है।इन कहानियों में जहां एक ओर भद्र समाज के अंकिता सेन, रेनू मित्रा और सुमिता अपनी, विलासिता, प्रदर्शन प्रियता और छद्म आचरण से पाठक के मन में विरक्ति पैदा करती है हैं, वहीं मध्य वर्ग और निम्नवर्ग और निम्नमध्यवर्ग से बीसियों पात्र हैं जो अपनी दयनीय स्थिति, बेचारगी, असहनीय उत्पीड़न और मरणात्मक जीवनसाथियों के बावजूद अपनी जिजीविषा और संघर्षशीलता के बूते पर अपने वजूद को कायम रखने का प्रयत्न करते हैं। "

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