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Thursday, July 22, 2021

कहानी- हीरक जयंती



अपने कॉलेज के तीन दिवसीय ' हीरक जयंती ' समारोह के एन्ट्री कार्ड पाने से नेहा वंचित रह गयी थी । वज़ह यह थी कि नेहा ने डांस करने से इन्कार कर दिया था । करती भी क्या, डांस करना उसके लिए नामुमकिन जो था । अभी तीन महीने पहले ही कॉलेज के प्रथम तल पर स्थित भौतिक शास्त्र प्रयोगशाला में क्लास करके लौटते समय बिना बाउंड्रीवाल वाली छत से सीधे मैदान पर आ गिरी थी । जाने क्या-कुछ हो सकता था मगर ख़ुदा का लाख लाख शुक्र है कि उसका एक  ही पैर टूटा था ।

नेहा के पिता ने जब मैनेजर से शिक़ायत की कि नेहा के हादसे के लिए कॉलेज मैनेजमेंट जिम्मेदार है तो मैनेजर ने बेरुखी से कहा था '' इतनी बड़ी बिल्डिंग क्या एक दिन में बन जाती है ? बाउंड्रीवाल नहीं है तो क्या फ़र्क पड़ता है ? नेहा कोई दूध पीती बच्ची नहीं है, और भी लड़कियाँ हैं, सब आँखें खोलकर चलती हैं, आपकी लाडली डांस करती चलती है, हाथ-पैर तो टूटेगा ही....समझ में नहीं आता है तो ले जाइये अपनी बेटी को यहाँ से, डाल दीजिए किसी देहाती स्कूल में, यहाँ की डिसिप्लिन की जानकारी आपको होनी चाहिए थी ।'

मैनेजर की बदसलूकी से क्षुब्ध होकर नेहा के पिता ने कॉलेज मैनेजमेंट के ख़िलाफ़ कानूनी कार्यवाही करने का मन बना लिया था मगर नेहा ने ही पिता को कुछ भी करने नहीं दिया था, उसने कहा था कि ख़बर के तूल पकड़ने से कॉलेज की बड़ी बदनामी होगी ।

एन्ट्री कार्ड पाने के लिए नेहा ने बड़ी कोशिश की । शायद चिरौरी, बिनती भी कर लेती और सचमुच अगर सिर फोड़ने से कोई बात बनती तो वह भी कर बैठती किन्तु उसे उसके पापा की याद आ गयी । जिस कदर उनका अपमान हुआ था उसे वह भूल नहीं सकी थी । यह पहला अवसर नहीं था जब उनका अपमान हुआ था । अभी दो वर्ष पहले जब विज्ञान भवन के लिए डोनेशन लिया जा रहा था ड्यू डेट पर डोनेशन न दे पाने के कारण नेहा की ख़ुद की छीछालेदर तो हुई ही थी उसके पापा को भी कालेज में बुलवाकर सभी टीचर्स के सामने जलील किया गया था उ। अजीब ऊहापोह और कशमकश में नेहा फँस गई । उसकी मन की पीड़ा उस समय और बढ़ गई जब उसने सुना कि कॉलेज कप्तान ने उसके लिए कार्ड माँगते हुए कहा था कि नेहा का पैर सचमुच अभी डांस करने लायक नहीं हुआ है, तो कार्ड तो दूर उलटा उसके माथे पर यह इलज़ाम मढ़ दिया गया ' पैर-वैर सब ठीक है, कॉलेज को बदनाम करने का नायाब तरीका अपनाया है इस लड़की ने !' 
हमदर्दी के बजाए ऐसे ओछे बयान से नेहा इतनी मर्माहत हुई कि इलज़ाम के विरोध में कुछ भी कहने का मन नहीं चाहा । आँखों के आँसू उसने खुद ही पी लिया । जब उसकी सहेलियों ने उसे समझाया कि उसे प्रतिवाद करना चाहिए था तो उसने कहा- ' तुममें से है किसी में साहस जो मेरा साथ दे ?' सहेलियाँ चुप थी ।

दरअसल एन्ट्री कार्ड न देने के लिए कॉलेज को बहाना चाहिए था । कुछ ख़ास लड़कियों के लिए ही बहाना ढूँढ़ना आवश्यक था, बाकी लड़कियाँ तो चूँ नहीं बोल सकती । क्या मजाल कि किसी सिस्टर के सामने कोई कुछ कहे । सिस्टर तो नहीं जैसे कोई डरावनी देवी  या धरती पर राज करने वाली पटरानी । भले ही नेहा सीनियर स्टुडेंट व 'ग्रीन हाउस' की कप्तान रही हो उसे भी नतमस्तक रहना पड़ता ।

कॉलेज तो नहीं जैसे वैदिक काल का कोई आश्रम। उनके काम-काज के तौर-तरीके भी पौराणिक हैं । उनका एरिया उनका अपना है, वहाँ किसी की दख़़लांदजी नहीं चल पाती है । उसी व्यवस्था के तहत नब्बे प्रतिशत सीटें आरक्षित रखी गयी थीं । बिरादरी के कुछेक मठाधीशों को इन्वाइट करना है फिर उन्हीं के मार्फ़त जो कोई कार्ड माँगने आये उन्हें देना है । मंत्री-संत्री और उनके साथ चलने वाले जत्थे के लिए सीट रिजर्व । अख़बारों के सम्पादकों, संवाददाताओं, पत्रकारों, फोटोग्राफर्स के लिए सीट रिजर्व बड़े-बड़े अधिकारियों को सपरिवार ससम्मान बुलाना कॉलेज के हित में है । शहर के बड़े-बड़े व्यापारियों को भी बाइज्ज़त बिठाना है । आखिर 'स्मारिका' में विज्ञापन के नाम उनसे काफ़ी धन जो ऐंठा गया है । टीचर्स के  ज्ञाति-कुटुम्ब तो रहेंगे ही, कॉलेज के केयर टेकर, बाबू , बड़े बाबू, चपरासी, आया, गिने-चुने प्राक्तन टीचर्स व स्टुडेंट्स भी रहेंगे । अब जो शेष बचे हैं उसी में घनचक्कर है । जो हजार बच्चों में मात्र दो सौ का चयन करना है । कॉलेज कप्तान, उपकप्तान, अलग-अलग हाउस के कप्तान, प्रोग्राम में हिस्सा लेने वाले बच्चों के अभिभावकजन आदि को नज़रअंदाज़ करना मुश्किल है । अब कॉलेज अपनी सफ़ाई में कुछ भी कहे, हक़ीक़त तो यही है । कॉलेज को नेहा के सेन्टिमेंट से क्या लेना देना ?

मगर नेहा को भी इससे क्या मतलब कि उसके कॉलेज में कौन आ रहा है और कौन नहीं आ रहा है, किसे किस मकसद से बुलाया जा रहा है और किसे किस कैल्कूलेशन के तहत बाहर रखा जा रहा है । वह जानती है तो सिर्फ़ यही कि उसके कॉलेज में 'हीरक जयंती' है जहाँ उसे हर हाल में मौजूद रहना है । यह वही कॉलेज है जहाँ वह चौदह वर्ष पहले प्रेप में भरती हुई थी, और क्लास में दूध की बोतल ठूंस कर उसे सुला दिया जाता था । उसे याद है कि जब वह के.जी. में थी एक दिन डर के मारे टीचर से नहीं कह सकी थी कि उसे टॉयलेट जाना है और जब उसकी चड्ढी गीली हो गई थी तो उसे दिनभर दरवाज़े के बाहर रहना  पड़ा था, उसे याद है कि जब वह क्लास नाइन्थ में थी तब बास्केटबॉल में डिस्ट्रिक्ट चैम्पियन बनी थी और कॉलेज ने ख़ूब वाहवाही लूटी थी।

पिछले चौदह वर्ष में नेहा ने यही जाना है कि 'दुनिया' का मतलब है उसका कॉलेज । तमाम खट्टी-मीठी यादों के साथ उसका कॉलेज ही उसका सब कुछ है । जब वह घर पर रहती है वह कॉलेज को याद करती, कॉलेज का काम करती, साथियों की बातें और टीचर्स की बातें याद कर मन ही मन मुस्कराती रहती है । जब वह घर से बाहर जाती तो कॉलेज उसके साथ-साथ चलता । कॉलेज ही उसका दिल और कॉलेज ही उसका दिमाग है। कॉलेज उसके दिमाग में इस कदर पैठ जमा चुका है कि जब वह गहरी नींद में रहती है तो कॉलेज के खेल का मैदान, कॉलेज का ख़ूबसूरत बागान, म्यूजिक रूम, स्टेडियम का बड़ा हॉल, क्वीन विक्टोरिया की मैली होती श्वेत आदमकद मूर्ति और राजकुमारी डायना के पोर्ट्रेट उसके सपने में होते। कॉलेज की ईंट-ईंट से उका अटूट सम्बन्ध है । कॉलेज में घुसने के लिए उसे किसी की इजाज़त की ज़रूरत नहीं है । एन्ट्री कार्ड की ऐसी-तैसी । अगर गैर इजाज़त कॉलेज उसके सपने में आ सकता है तो उसे भी सम्पूर्ण अधिकार है कॉलेज में जाने का । घर में माँ ने अच्छे-अच्छे पकवान तैयार किए, औरों ने खाया उँगलियाँ चाटीं, सराहा मगर उसके अपने बच्चे चखने से भी रह गए तो ख़ाक अच्छा खाना पका! कौन-सा धर्म है यह ? नेहा प्रोग्राम अटेंड करने का मन बना लेती है।

पहले दिन का प्रोग्राम अटेंड करने के लिए नेहा घर से निकली। कॉलेज के फाटक तक पहुँचते-पहुँचते लगभग आधा घंटा लग गया और फिर वही हुआ जा होना था। उसे फाटक से ही खदेड़ दिया गया। मुँह लटकाये वह घर लौट गयी। उसके माता-पिता ने उसे तसल्ली दी मगर उसका कोई असर नहीं हुआ और वह अगले दिन फिर पहुँच गई । उस दिन ख़ास भीड़ नहीं थी । वज़ह यह थी कि उम्मीद के विपरीत पहले दिन का कार्यक्रम फ्लॉप गया था । फाटक से एक-एक करके लोग भीतर प्रवेश करते रहे । नेहा ने तीन-तीन बार भीतर जाने की कोशिश की और तीनों बार उसे डाँट सुननी पड़ी । चौथी बार जब वह दुखी होकर वापस जाने लगी तब एक टीचर ने कहा कि वह वहीं खड़ी रहे, जगह खाली रहने पर भीतर जाने दिया जायेगा । फिर लगभग पौन घंटे की प्रतीक्षा के बाद उसे अनुमति मिली । 

अंदर और बाहर की साज-सज्जा, हॉल के भीतर और बाहर की कड़ी सुरक्षा व्यवस्था, विशिष्ट अतिथियों के लिए विशेष किस्म की कुर्सियाँ, मेहमान नवाजी में प्रोग्राम से ज़्यादा दिलचस्पी, और प्रोग्राम के पहले पौन घंटे की लंबी-चौड़ी फेहरिस्त कि कॉलेज में क्या-क्या सुविधाएँ हैं, आगे क्या-कुछ करने का इरादा है, कॉलेज के टीचर्स कितने काबिल हैं, कितने विद्यार्थी डॉक्टर, इंजीनियर और आई. ए. एस. बने हैं तथा यहाँ के अनुशासन की चर्चा फॉरेन मैगजीन तक में होती है तथा अंत में यह बयान कि विद्यार्थियों को स्कूल के माहौल के बजाय घर-परिवार जैसा वातावरण मुहैया करवाया जाता है । यह सुनकर नेहा स्तंभित हो गयी थी । भाषण के बाद तालियों की गड़गड़ाहट थमती ही न थी । एक अकेली नेहा भाव-विह्वल होकर पत्थर की मूरत बन गई थी।

तीसरे दिन सुबह-सुबह नेहा के घर फोन घनघनाया, नेहा ने चोंगा उठाया। उधर से उसकी सहेली, कॉलेज के रेड हाउस की कप्तान ''अभी-अभी कॉलेज आ जाओ, आज डांस का प्रोग्राम हैं, लड़कियाँ आ रही हैं, दो बजे तक प्रैक्टिस चलेगी फिर मेक-अप शुरू होगा, म्यूजिक टीचर ने कहा है तुम्हारी मौजूदगी जरूरी है।''

नेहा ने उत्तर दिया- '' हूँ: जरूरी है । मुझे तो दरकिनार कर दिया गया है । मैं अफ़सोस कर रही हूँ कल क्यों चली गई थी । मुझे नहीं जाना चाहिए था। कल मैं जैसे ही हॉल के अंदर जा रही थी प्रिंसिपल ने मुझे इस कदर घूर के देखा जैसे मैं कोई क्रिमिनल हूँ । अब और बर्दाश्त नहीं कर सकती, म्यूजिक टीचर से कह देना उन्हें और प्रिंसिपल को उनका कॉलेज मुबारक।'

सहेली ने जोशीली आवाज़ में कहा--''कम-ऑन यार ! थूक दो अपने गुस्से को। यह कॉलेज है और रहेगा... यह तुम्हारा कॉलेज है और आगे भी कहती रहोगी कि तुम इस कॉलेज की स्टुडेंट थी। वही हाल सिस्टर लोगों का है, वही लोग क्या पर्मानेंट हैं ? जाने कितनी टीचर्स आयीं और चली गयीं। जो होना था हो गया अब तो तुम्हें याद किया जा रहा है...अरे अब छोड़ो भी ! थूक दो अपना गुस्सा आज इज़्ज़त का सवाल है, मंत्रीजी आयेंगे, नगर प्रमुख आयेंगे, टी. वी. पर हमारे कॉलेज की लड़कियों को दिखाया जायेगा, वी शुड बी दि बेस्ट !''
-'ओ. के. अभी खाना-वाना खाकर आती हूँ'' नेहा बोली।
-''ओ नो यार! अभी आ जाओ, सारी लड़कियाँ सुबह-सुबह आ रही हैं, घर लौटते-लौटते रात दस' बज जायेंगे, सभी लड़कियों के लिए पूड़ी सब्जी की व्यवस्था है, मैं भी दो बिस्किट खाकर निकली हूँ।'' सहेली ने कहा।
-''ओ. के. देन कमिंग, तुम नहीं मानोगी, अभी आ रही हूँ ।" नेहा ने फोन रख दिया ।

 ‌‌‌‌‌‌‌‌      ठीक नौ बजे नेहा कॉलेज पहुँच गई । उसने कई राउंड प्रैक्टिस करवायी, मेक-अप भी शुरू हो गया । मगर कहाँ पूड़ी ? कहाँ सब्जी ? कोई झाँकने तक नहीं आया । लगभग साढ़े चार बजे बाहर का नज़ारा देखने के लिए नेहा बॉलकनी पर आकर खड़ी हो गई । उसकी निगाहें फाटक से थोड़ी दूर खड़ी उसकी सहेली अमृता पर गई। अमृता ने हाथ हिलाकर इशारे से समझाया कि उसे घुसने नहीं दिया जा रहा है।

अमृता को भीतर लाने की मंशा से नेहा वहाँ से चलने लगी । चलते समय उसने देखा ढेर सारे बच्चे एक कमरे के भीतर कैद हैं और एक बूढ़ी आया उन पर निगरानी रखे हुए है । उसी आया से पता चला कि प्रोग्राम में बच्चों का प्रवेश वर्जित है । जो माता-पिता प्रोग्राम में बच्चों को ले आये हैं वे प्रोग्राम के बाद अपने-अपने बच्चों को ले जायेंगे ।                नेहा ने अपनी एक सहेली से कहा--''धिक्कार है माता-पिताओं को अपने सुख और मौज-मस्ती की ख़ातिर ये लोग कौन-सा बीज बो रहे हैं ? जब यहीं बच्चे बड़े होंगे तब वे सहज-सरल ढंग से औरों को वंचित करने लगेंगे । मन के अचेतन धरातल पर आज की घटना पैठ जमा रही है और आगे चलकर यही बच्चे बाप बनकर माता-पिताओं की सारी उम्मीद पर पानी फेर देंगे । फिर उसने बूढ़ी आया को तरेर कर देखा और ''माई फुट'' कहके दनदनाती अपनी सहेली अमृता को लेने पहुँच गई ।

फाटक के बाहर निकल जाने के बाद नेहा जब दुबारा प्रवेश करने लगी तो कई हाथ उसकी ओर बढ़ने लगे । एन्ट्री कार्ड रहता तब न किसी का हाथ सुशोभित करती । अपनी सफ़ई में उसने सुबह से बीती सारी बातें सुनायी पर किसी को फुर्सत हो तब न उसकी सुने, सबकी निगाहें तो सजे-धजे, हँसते-मुस्कराते शरीर और अदा के साथ कार्ड बढ़ाते चेहरों पर थीं । नेहा ने जो कहा वह सिर्फ़ अमृता ने सुना और अब अमृता उसकी वकालत करने लगी तो वे दोनों ऐसे धकिया दिये गए जैसे मंदिर में प्रसाद माँगते बच्चे धकिया दिए जाते हैं । क्रोध और घृणा से नेहा का चेहरा तमतमा उठा । 
बाउंड्रीवाल के पास खड़ी होकर नेहा ने अमृता से कहा '' लगता है इस कॉलेज को मल्टिनैशनल्स ने खरीद लिया है । एजुकेशन का प्राइवेटाइजेशन और व्यवसायीकरण बंद होना चाहिए । यह कॉलेज धन्नासेठों की तिजोरी में है, हमारे सेन्टिमेंट से इन्हें क्या लेना ? इस 'हीरक जयंती' से कॉलेज के कई लोग रईस बन जायेंगे।''
अमृता ने कहा- ''मेरी नानी कह रही थी इस साल इस कॉलेज की 'हीरक जयंत' है ही नहीं, अभी दो साल बाकी हैं।''
-''धत् ! ऐसा क्यों होगा?'' नेहा ने आश्चर्य व्यक्त किया।
'-'सच एकदम सच....नानी जी कह रही थी जिस साल यह कॉलेज खुला था उसी साल नानी यहाँ भर्ती हुई थी । कई वर्ष तक यहाँ सिर्फ़ प्राइमरी सेक्शन था।''
-''फिर क्यों इस साल समारोह मनाया जा रहा है? जल्दी क्या थी?” 'इसलिए कि एजुकेशन मिनिस्टर मैनेजर के रिश्तेदार हैं। उनके रहते-रहते हो जाए तो मजे का ग्रांट मिल जायेगा । दो साल बाद मंत्री पद पर कौन रहेगा किसे पता, यहाँ तो आये दिन सरकारें बदलती रहती हैं।''
-'अच्छा!!... हाँ, ये लोग सिर्फ़ नोट पहचानते हैं।''

भूखी-प्यासी सुबह से कॉलेज का बोझ ढोती नेहा ने अपना आपा खो दिया-''धत् तेरी ऐसी-तैसी । ये यांत्रिक-टकसाली लोग वैसे नहीं मानेंगे, इनके साथ तो गुंडई की जरूरत है, अधिकार माँगने की नहीं, छीनने की चीज होती है । क्या कर लेंगे ये ? चलो अमृता !" कह कर नेहा जबरीयन भीतर घुसकर दौड़ने लगी और उसे दौड़ते देख जाने कितने कंठ चीख उठे,उठें, जाने कितने कदम उसकी ओर बढ़ गए और अंततः सौ गज की दूरी पर कई लोगों ने उसे दबोच लिया । कॉलेज की प्रिंसिपल भी वहाँ पहुँच गई । नेहा ने अपनी बातों को दुहराया मगर प्रिंसिपल ने कहा--''झूठी है यह लड़की, मक्कार है, डांस करने के लिए टाँगें दुखती हैं, दौड़ने के लिए प्रोग्राम देखने के लिए टाँगें सही हैं, टाँग पकड़ कर बाहर कर दो इसे, थ्रो हर आउट।''

नेहा चीख उठी-''बहुत हो चुका अब रहने भी दीजिए, खुद ही चली जाती हूँ...इतना बड़ा मैदान है यहाँ प्रोग्राम करवाते तो सारे लोग आ सकते थे, कॉलेज गर्ल्स नहीं हैं और कॉलेज की 'हीरक जयंती मनायी जा रही है....शेम! शेम! शेम!'

प्रिंसिपल ने चीखा-''आई से थ्रो हर आउट'  तुरंत एक टीचर ने उसकी कलाई पकड़ कर खींचना चाहा मगर नेहा ने एक झटका देकर कहा- डोन्ट टच मि...थू! थू !'' फिर पीछे पलट कर बाहर निकल गई।
प्रिंसिपल ने कहा-''आई विल सी हर।''

           सुबकती हुई नेहा फाटक के बाहर खड़ी हो गई। दूर से अपने कॉलेज की इमारतों को देखने लगी। ईंट के रंग की ताजा पोताई, दीए जैसी लौ फेंकती हजारों बत्तियाँ उसे आग सी प्रतीत होने लगीं। उसे लगा कि सारी इमारतें आग की चपेट में हैं। सब कुछ जल कर भस्म हो जायेगा और अब वह कभी नहीं जा पायेगी वहाँ, कौन चल सकता है। अंगारों के ऊपर से? नेहा के मन की आग, क्या-कुछ कर डालने के लिए बेताब हो उठी। 

बाहर मंत्री के आगमन की तैयारी पूरी हो चुकी थी। बहुत दूर सारे. वाहनों को रोक लिया गया था। कॉलेज के कर्ता-धर्ता-विधाता सभी सड़क पर विराजमान थे, दूर से लाल-नीली बत्तियाँ दिखने लगीं, सिंई सिंई की आवाज कानों को चीरने लगी, बड़े-बूढ़ों के हाथ-पैर हिलने -डुलने लगे, और ज्योंही मंत्री महोदय की गाड़ी फाटक के पास आकर रुकने को थी, सारे अवरोध तोड़कर निमिष भर में मोटरकार के सामने दोनों हाथ ऊपर उठाकर नेहा खड़ी हो गई, मोटरकारें रुक गईं। एकबारगी ब्रेक लगने की आवाज़ से लगा कि भयंकर हादसा हो गया है। सारे लोग स्तब्ध-हतप्रभ हो गए। गाड़ी से उतरकर मंत्री महोदय ने नेहा की पीठ पर हाथ रखा और कहा-''अपनी प्रॉबलाम बताओ।'' 
नेहा बोली- "आप अगर फिल्मों में दिखाये जाने वाले मंत्री जैसे न हों तो मैं अपनी बात कहूँगी।'' मंत्री जी हँस पड़े और बोले-''मैं तुम्हारी बातों को अवश्य सुनूँगा।''

नेहा और अमृता दोनों को मंत्री जी अपने साथ भीतर ले गए। कमेटी रूम में एकान्त में अपने सचिव की उपस्थिति में उन्होंने उनकी बातें सुनीं, प्रोग्राम शुरू होने में तनिक विलम्ब हुआ। नेहा और अमृता दोनों हॉल में बैठीं। प्रोग्राम की शुरुआत पिछली शाम की तरह हुई। वही बड़े बड़े अल्फ़ाज़, वही बढ़ा-चढ़ा कर कॉलेज की प्रगति के लिए मंत्रीजी से विशेष अनुदान का विनम्र निवेदन और फिर मंत्री जी को आमंत्रित किया गया।

गुरु-गंभीर मुद्रा में मंत्री जी भाषण देने खड़े हुए। तो बैठी नेहा की आँखों में उत्सुकता फैल गई। मन में आशाएँ हिलोरें लेने लगीं। अमृता भी उसकी उत्सुकताओं और आशाओं में शामिल -सी हो गयी थी। दोनों की आँखें मंत्रीजी पर आकर टिक गयी थीं, आख़र मंत्रीजी न्याय दिलवाने में क्या पहल करते हैं।

मंत्री जी के भाषण में जितनी ही देर हो रही थी, नेहा की परेशानी उतनी ही बढ़ती जा रही थी। खैर, इंतज़ार की घड़ी ख़त्म हुई और मंत्री जी का भाषण शुरू हुआ। पहले तो 'हीरक जयंती समारोह में बतौर मुख्य अतिथि आमंत्रित किये जाने के प्रति कॉलेज प्रबंधन और विशेष तौर पर प्रिंसिपल के प्रति आभार ज्ञापन करते रहे मंत्री जी, फिर मौन भाव से तालियों की गरमाहट सहेजते रहे काफ़ी देर तक ।

इधर नेहा दम साधे बैठी रही। शायद आगे वह....। वह सोच रही थी कि मंत्री जी की आवाज़ फिर गूँज उठी.... मुझे प्रसन्नता है कि यह कॉलेज और इस कॉलेज के प्रिंसिपल और सारे स्टाफ इतने वर्षों से सफलतापूर्वक हमारी नन्ही-मुन्नी लड़कियों को शिक्षित, सुसंस्कृत बनाकर न केवल उनका भविष्य संवारने में लगे हैं बल्कि मैं तो कहूँ देश का भविष्य बनाने में जुटे हैं।

मंच से तालियाँ उठीं तो सारे माहौल में पसरती चली गयीं, इस बीच में नेहा के प्रतिवाद में कहे शब्द दबते-कुचलते चले गये। उस शोर में कुछ भी सुना नहीं जा सकता। सुन सकी थी तो सिर्फ़ अमृता और पास की कुछ लड़कियाँ ।

        तालियाँ जब थमीं तो फिर से खामोशी पसर गई। कॉलेज मैनेजमेंट के लोग और ख़ासकर प्रिंसिपल उत्साह से काफ़ी भर उठी थीं। वह अपनी पीठ मानो खुद थपथपा रही थीं । नेहा उतनी ही उत्तेजना से भरी जा रही थी। मंत्री जी का कहा एक-एक शब्द काँटों की तरह चुभ रहा था। कुछ ही देर पहले मंत्रीजी के द्वारा दिये गये आश्वासन भरे शब्द याद आ रहे थे और सभी कोरे शब्द से प्रतीत हो रहे थे। मंत्रीजी के दोहरे चरित्र का उसे पल-पल एहसास हो रहा था।

इसी बीच मंत्री जी ने फिर से कहना शुरू किया-"यहाँ आने पर उन दोनों लड़कियों की कुछ बातें मैंने सुनी। बड़ी प्यारी बच्चियाँ हैं, फूल-सी कोमल! मैं समझता हूँ प्रिंसिपल खुद अपने स्तर से उन्हें समझा-बुझा लेंगी... इनमें....' 

''नहीं सर, नहीं.... " एक तेज आवाज़ मंत्री जी की आवाज़ से टकरायी । सभी स्तब्ध रह ग ये। मंत्री जी से आगे कुछ कहते नहीं बना उन्होंने दूर तक नजरें दौड़ायीं। यह शायद नेहा की आवाज़ थी। हाँ, यह नेहा ही थी जो काफ़ी उत्तेजना से भरी तेज कदमों से मंच की ओर भागी चली आ रही थी।

-सुभाष चंद्र गागुली
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**(कहानी संग्रह: सवाल तथा अन्य कहानियाँ से, प्रथम संस्करण: 2002)
** दस्तक - राघव आलोक , सम्पादक , जमशेदपुर नवम्बर 1999 में प्रकाशित ।
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* कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियां देखें:---------
" गांगुली की कहानियों में एक बहुत बड़ा गुण है-- छोटी-सी बात को अपनी संवेदना, चिन्तन, शिल्प के माध्यम से बहुत बड़ी बात कहकर पाठक की भावनाओं को झकझोर देना । कुछ ऐसी ही परिस्थितियां '  हीरक जयंती ' में देखने को मिलती है । बड़े बड़े शिक्षा संस्थानों में मैनेजमेंट की दादागिरी, उसके साथ- साथ  मंत्रियों का दुम हिलाना और एक बच्ची की,शिक्षासंस्थान जिसका वह छात्रा है, निष्ठा तथा भावनात्मक आकर्षण, इस कहानी में अत्यंत सुंदर ढंग से उभरकर आए हैं। "
कृष्णेश्वर डींगर 
अध्यक्ष, वैचारिकी ( ' तटस्थ ' जनवरी- मार्च 2004 में प्रकाशित समीक्षा से )

** " ' हीरक जयंती ' में शिक्षालयो में पनपते भाई भतीजावाद और अनियमितता को आधार बनाया गया है । .......(हीरक जयंती) अपने कथ्य के साथ स्पष्ट प्रभाव छोड़ती है ।"
--- कथाकार कृष्ण मनु 
सम्पादक, स्वातिपथ 
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