Search This Blog

Saturday, July 24, 2021

कहानी- झील



चचेरी बहन की शादी में मैं इलाहाबाद से कलकत्ता पहुँचा। शादी वाले घर में बहुत से मेहमान आये हुए थे। काफी चहल-पहल थी। एक लड़की घर मेहमानों की आवभगत में लगी थी। प्रथम दृष्टि में ही वह जिज्ञासु बना गयी। फिर तो मैंने कभी पानी के बहाने तो कभी चाय के बहाने उससे ही उसके बारे में और अधिक जानना चाहा। उन्हीं क्षणों में थोड़ी देर के लिए हम दोनों में बातचीत भी हुई-"क्या नाम है आपका?"

'अनुराधा"

"वाह! कितना सुंदर नाम है।"

"नाम में क्या धरा है। वैसे आपकी तारीफ़? मेरा मतलब क्या करते हैं आप?

"पिताश्री के भोजनालय में खाता हूँ।"

"क्या क्वालिफिकेशन है आपकी ?”

"पढ़ा-लिखा हूँ। नौकरी की तलाश में हूँ। कमबख़्त बेरोजगारी की प्रॉब्लम ने जीना दूभर कर रखा है। इस मामले में सरकार गंभीर नहीं ।"

"सरकार को क्यों दोष दे रहे हैं? आप क्या सरकार के दामाद हैं?....आजकल के लड़के आरामप्रिय, सुस्त हैं, मेहनत नहीं करते, बात बात पर सरकार को कोसते हैं।"

"आप ही कोई तरक़ीब सुझाइए।"

"तरक़ीब सुझाने की नहीं होती... मेरे घर के सामने तापस दा रहते हैं, अपाहिज हैं, किन्तु बेकार नहीं हैं। किसी के भरोसे नहीं हैं....जाने-माने साहित्यकार हैं।"

'अपाहिज हैं!!...उनकी कई कहानियाँ मैंने पढ़ी हैं। बहुत अच्छा लिखते हैं। मगर वे अपाहिज हैं मुझे पता न था!....क्या उनसे आप मिलवा सकती हैं !!"

"ठीक है, कोशिश करूँगी ।"

शादी हो गयी! बहन की विदाई हो गयी। पिछली रात अनुराधा की माँ अपने पति के साथ घर लौट गयी। अनुराधा जब अटैची लेकर अपने घर जाने लगी तो मैं उसके पीछे हो लिया। थोड़ी दूरी के बाद उसके क़रीब जाकर बोला-" तापस दा से नहीं मिलाओगी?" उसने मुझे घूरकर देखा।

मैं निडर होकर बोला-"कोई गलती हो गयी क्या? मुझे भी कविता, कहानी लिखने का शौक है।"

उसने पैर आगे बढ़ा दिए। मैं भी आगे बढ़ा और कान के पास जाकर बोला-" सुनिए मैडम ! मैं इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में लेक्चरर हूँ अभी एडहॉक हूँ, अँगरेजी पढ़ाता हूँ दो-दो साहित्य से एम. ए. हूँ. रिसर्च कमप्लीट होने को है। "

अनुराधा ने कहा-"क्या?...तो पहले झूठ क्यों बोल रहे थे?" मैंने कहा-"सच बोलने की जरूरत कहाँ थी? कोई गवाही तो नहीं दे रहा था कि जो कुछ कहता सच कहता, सच के सिवा कुछ न कहता।"

'चलिए', कहकर अनुराधा खिलखिलाकर हँस दी।

टैक्सी में अगल-बगल बैठकर हम दोनों रवाना हुए। रास्ते में ढेर सारी बातें हुईं। अनुराधा के घर के मोड़ पर गाड़ी रुकी। अपने घर के पास पहुँचकर वह बोली-“यही है तापस दा का घर, मिल लीजिए.... हाँ, मेरा हवाला न दीजिएगा। थोड़ी देर बाद चले आइएगा... तब तक आपकी चर्चा माँ से करती हूँ।"

"मेरी चर्चा ?"

"क्यों नहीं? आपसे मिलकर मेरे माता-पिता प्रसन्न होंगे... जल्दी आइएगा, मैं राह देखूँगी।"

" 'अच्छा।"

....आई विल वेट फॉर यू।"

तापस दा के घर की सिकड़ी हिलायी। अवाज़ आयी-"आसछी, आसछी।" (आ रही हूँ) दरवाजा खुलते ही मैंने अपने समक्ष पचास वर्षीया महिला को पाया। सिर के बाल पुरुष कट किन्तु बेतरतीब ढंग से कटे हुए थे। मटमैली-सी धोती पहनी हुई थी। चेहरे पर इतनी सिलवटें जैसे दुनिया का सारा बोझ अकेली ढो रही हो। अपनी बनारस यात्रा के दौरान मैंने ऐसी सैकड़ों विधवाओं को देखा था। झुंड-के-झुंड घाट पर नहाने जाती थीं। फिर वे मंदिर में प्रवचन सुनतीं। वे उसे काशीवास कहतीं। काशीवास को बंगाली विधवाओं के लिए कालापानी माना जाता था। बंगाली समाज में कमोबेश आज भी विधवाओं की स्थिति वैसी ही है जैसी पचास वर्ष पहले थी। भले ही उन्हें कालापानी में न भेजा जाता तो। समाज में रहते हुए भी समाज से निष्कासित रहती हैं। उसे इतने सारे सुखों से वंचित कर दिया जाता है, इतनी सारी पाबंदी उस पर लगा दी जाती हैं कि वह खुद को अभिशप्त समझने को विवश हो जाती है। अंदर-बाहर से इतना भीतरघात होता है कि वह खुद को अस्पृश्य, अछूत समझने लगती है। जो नारी मेरे सम्मुख खड़ी थी वह भी एकदम वैसी ही थी।

उन्होंने पूछा-"काके चाई? तापस के ?" (किससे मिलना चाहते हो? तापस से?)

"जी हाँ।" 

"भेतोरे एसो।" (अंदर आओ) कहकर वह दीवार से चिपककर खड़ी हो गयीं। दो फिट चौड़ी गली। मैं अंदर जाने लगा तो वह गौर करने लगी कि कहीं छू न जाऊँ। अगर उन्हें मैं छू लेता तो उन्हें अपने कपड़े बदलने पड़ते।

मैं भीतर पहुँचा। छोटा-सा कमरा । किताबों से लदी दो काठ की अलमारियाँ । काग़ज़ कापी, अखबार बिखरे हुए। मसनद पर टेक लगाए तख़त पर बैठे हुए मिले तापस दा । तनदुरुस्त, खूबसूरत, घुँघराले बाल, गोरा बदन, किन्तु बायाँ पैर और बायें हाथ की अंगुलियाँ मुड़ी हुई उम्र छब्बीस-सत्ताइस वर्ष । कुल मिलाकर तापस दा का व्यक्तित्व आकर्षक। अपना परिचय देकर मैं बैठ गया। बातचीत शुरू हुई।

पता चला तापस दा को बचपन में पोलियो हो गया था। उसी के कारण वह आंशिक रूप से अपंग हो गये थे। बाल्यावस्था में उनके पिता चल बसे थे। पिता की मृत्यु के बाद भुखमरी की स्थिति आ गयी थी। उनकी माँ पढ़ी-लिखी नहीं थीं। रात-रात जागकर सिलाई-कढ़ाई करती थी। तापस दा ने कहा-"जब आर्थिक संकट आता है रिश्ते टूटने लगते हैं। सभी मुँह फेर लेते हैं। चाचा, मामा, ताऊ सभी इस पोजिशन में थे कि अपने-अपने तालाब से एक-एक लोटा भी पानी निकाल देते तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता, किन्तु किसी ने इस अभागिन की ख़बर तक नहीं ली; उलटा सभी ने कहा, दुरात्मा है, पति को खा गयी है। इसकी छाया से भी अनिष्ट होगा....। जब हमारे दिन फिर गये हैं वही लोग आत्मीयता की दुहाई देकर अधिकार जताते हैं। अपने बेटे-बेटियों की शादी में हमसे कुछ पाने की उम्मीद रखते हैं.... अभी पिछले हफ्ते रईस चाचा का ख़त आया था, उन्होंने ऑर्डर किया था कि 'विशाल समाचार के मालिक को मैं ख़त लिख दूँ। मेरे लिखने से उनका बेटा सब-एडिटर बन जाएगा.... बड़े-बड़े शब्दों में उन्होंने मेरी माँ की तारीफ़ की थी। "

विषय बदलते हुए मैंने पूछा-" आपकी कितनी कहानियाँ प्रकाशित हुई हैं?" अपनी जगह से उठकर दो किताबें अलमारी से निकालकर मेरी ओर बढ़ा दीं। मैंने देखा दोनों ही बड़े प्रकाशकों ने छापी थीं। तापस दा की माँ आकर बोली-“की रे खाबार खाबीना? देरी होच्छे"

(क्या हुआ, खाना नहीं खाओगे? देर हो रही है)

"आनो" (ले आओ) तापस दा ने कहा। तुमि खाबे?" (तुम खाओगे?) उन्होंने मुझसे पूछा।

"नहीं, भूख नहीं है। शादी से आया हूँ। चलता हूँ।" मैंने कहा।

उन्होंने कहा-"ना ना तुमि अतिथि, खाली मुखे चोले गेले गृहस्थीर अकल्याण होबे" (नहीं नहीं तुम अतिथि हो, बिना खाये चले जाने से गृहस्थी का अकल्याण होगा)। माँ तापस दा के लिए खाना ले आयीं। कुछ देर बाद मेरे लिए हलुआ ले आयीं।

मेरा पेट खाली था। मैंने गपागप हलुआ खा लिया। आचमन करने के बाद तापस दा खाना खाने में व्यस्त हो गये। खाना खाते समय तापस दा ने मुझसे कोई बात नहीं की। उसी बीच मैंने उनकी चार छोटी-छोटी कहानियाँ पढ़ डालीं। मैंने महसूस किया कि उनकी हर कहानी में एक लड़की या औरत है जिसका नाम बाबली है। उससे पहले जो कहानियाँ मैंने पढ़ी थी उसमें भी बाबली थी। कौतूहलवश मैंने पूछा-"बाबली नाम से आपका लगाव क्यों हैं?"

"वह मेरी प्रेयसी है।" उनके मुख से अनायास निकल पड़ा। "सच!” चकित होकर मैंने कहा।

बाबली के बारे में मेरी जानने की इच्छा बढ़ गयी। मैंने तापस दा से उसके बारे में और अधिक जानने के मकसद से पूछा, "मैं बाबली के विषय में विस्तार से जानना चाहता हूँ। यदि आप बताना चाहें तो...।"

"अरे छोड़ो मैंने यों ही कहा था।"

"घबराइए नहीं मैं जासूस नहीं हूँ। कहानीकार अवश्य हूँ, किन्तु फिलहाल आपको लेकर कहानी गढ़ने की इच्छा नहीं है। वैसे मैं कहानियाँ गढ़ता नहीं हूँ।"

"सुनो! बाबली उसका घर का नाम है। उसका शुभ नाम है अनुराधा ।"

"अनुराधा!... अनुराधा नाम है उसका!!”

"क्या हुआ? चौंके क्यों ? पहचानते हो क्या?"

"नहीं! सुंदर नाम है । इत्तफ़ाक से मेरी कजिन का नाम अनुराधा है इलाहाबाद में रहती है...आपकी अनुराधा यानी बाबली क्या करती है?"

"बी. ए. फाइनल में है। बचपन से अब तक उसे जैसा देखा है, हू ब-हू वैसा उतारा है.... अधिक उम्रवाली बाबली मेरी कल्पना है, जैसा मैं चाहता हूँ....वह दिन में दो-चार बार आती है, मेरे कामों में हाथ बँटाती है...प्रतिदिन सूरज ढलते ही हाजिर हो जाती है, एक-डेढ़ घंटा बैठती है, मेरा लिखा पढ़ती है, कमेंट करती है, बहस करती है, मेरे पत्र तैयार करती है....वही मेरी प्रेरणा का स्रोत है.... हम दोनों का पूर्वजन्म में प्यार का संबंध रहा होगा....बी. ए. पास करने के बाद हमारी शादी होगी।"

"उसके माता-पिता राजी होंगे?"

"उन लोगों को मालूम है कि वह मेरे बगैर रह नहीं सकती। मेरी माँ उसे समझती हैं।"

"शादी की बात आप लोगों में साफ़-साफ़ हो गयी है ?"

"साफ़-साफ़ क्या? साफ़-साफ़ से क्या मतलब है?" वह तिलमिला उठे-"प्रेम समझते हो? किसी से प्रेम हुआ है कभी? प्रेम हुआ होता तो ऐसी बातें न करते। प्रेम एतबार की नींव पर खड़ा रहता है। उसकी जड़ें पाताल तक पहुँचती हैं... ऐसा अपाहिज नहीं हूँ कि पति धर्म का निर्वाह न कर सकूँ। मेरी इनकम भी कम नहीं है...तुम्हें शायद पता नहीं है कि मैं इस शहर की सबसे लोकप्रिय पत्रिका का संपादक हूँ।" 

"अच्छा, अब अनुमति दीजिए। देर हो रही है। आपकी बाबली आती होगी।"

"बाबली से नहीं मिलोगे?"

'नहीं। अगली बार जब जाऊँगा भाभी के हाथका खाना खाऊँगा।" मुझे काफी देर हो गयी थी। मैं लौट आया।

अनेक व्यस्तताओं के कारण लंबे समय बाद ही फिर कलकत्ता जाना हुआ। कालीघाट पहुँचते ही बहन की शादी, अनुराधा, तापस दा हरेक का ख़याल आ गया। तापस दा से मिलने बेहाला पहुँचा। तापस दा के मकान का नक्शा बदल चुका था। किसी और की नेमप्लेट टँगी हुई थी। अनुराधा के घर पर उसी की नेमप्लेट टँगी हुई थी। मैंने सोचा उसी से तापस दा का पता मिल जाएगा। मैंने घंटी बजायी। एक औरत ने दरवाजा खोला। आश्चर्य चकित होकर कुछ देर तक उसे देखता ही रह गया। वही शक्ल, वही सूरत, किन्तु चेहरे पर जर्द उदासी और माथे पर मंद विषाद की रेखाएँ देख मैं विस्मित हुआ।

"तुम अनुराधा हो!” मैंने पूछा।

"जी।"

"भीतर नहीं बुलाओगी?'

"मैंने आपको पहचाना नहीं।"

"लेकिन मैंने पहचान लिया है। चलो भीतर। ढेर-सी बातें करनी हैं। और बिना उसके उत्तर की प्रतीक्षा किये मैंने भीतर प्रवेश कर लिया।"

"अरे, अरे, आप कहाँ जा रहे हैं?"

"घबराओ नहीं मैं एक शरीफ़ आदमी हूँ। परिचित भी हूँ। आओ, अंदर आओ... इलाहाबाद से आया हूँ, कथाकार हूँ।"

"समझी नहीं।" हम दोनों बैठक में बैठ गये!

"कालीघाट में मेरी बहन की शादी में परिचय हुआ था, नेपाल भट्टाचार्य स्ट्रीट पर सुभाशिष बाबू के घर... तुम्हारे साथ तापस दा से मिलने आया था।"

'ओ हो!....इतने बरसों के बाद! मैं राह देखती रह गयी थी। आएँगे कहकर आप नहीं आये थे।"

"तापस दा से मिलने आया था। तुमको यहाँ पाने की उम्मीद नहीं थी। तापस दा कहाँ चले गये हैं?"

'उसका खिल उठा चेहरा मुरझा गया। आँखें नम हो गयीं। दबी चुबान से बोली-" अब वह नहीं रहे।"

"नहीं रहे? क्या मतलब?"

"लगता है, आप बाँग्ला नहीं पढ़ते।"

"नहीं। एक दशक हो गया है। हिन्दी से जुड़ गया हूँ। लगता है, तुम भी हिन्दी नहीं पढ़ती यदि पढ़ती तो अभी कहती, अरे! आपका तो बड़ा नाम हैं। इन दिनों आप छाये हुए हैं। क्या लिखते हैं इत्यादि...”

"तापस दा कब गुजर गये? क्या हुआ था उन्हें?''

"पागल हो गये थे।"

"पागल!" ?*

"तुमने शादी नहीं की?'

"की थी। डिवोर्स हो गया था।"

"क्यों?"

'आपके तापस दा के कारण।"

"क्यों? उन्होंने ऐसा क्या किया था?"

'आपसे मुलाकात होने के बाद मेरे पैरेन्ट्स सोच ही रहे थे कि आपके घर रिश्ता लेकर जाएँगे कि एक से मेरा परिचय हो गया था।"

"मुझसे बेहतर कैंडिडेट रहा होगा।"

"खाक बेहतर..बदमिजाजी, शंकालु, पाजी था. बुरा आदमी था।" "क्या उससे तुम्हारा प्रेम हो गया था ?"

"नहीं, मेरा परिचय हुआ था। मेरी एक सहेली का बड़ा भाई था। माँ को मैंने उसके बारे में कहा था...मेरी शादी उसी से तय कर दी गयी।"

"क्या करता था?"

"डॉक्टरी...डॉक्टर है....माँ-बाप का इकलौता।"

"डिवोर्स के लिए तापस दा कैसे जिम्मेदार हो गये?'

"मेरी शादी में वे नहीं आये थे....अगले दिन जब विदाई हो रही थी, घर से निकली तो देखा वह अपने घर के द्वार पर बैठे हैं ....गाड़ी पर चढ़ने लगी तो वह मेरे समीप आकर बोले-रिक्त आमि निःस्व आमि, देबार किछु नेइ /आछे शुछु भालो वासा दिए गेलाम ताई" (रिक्त हूँ, निःस्व हूँ मैं/कुछ भी तो नहीं है/ है तो सिर्फ़ प्यार है/वही देता हूँ मैं) फिर फूट फूटकर रोने लगे....बड़ी भयानक, विकट स्थिति, जैसे वज्रपात हुआ हो, प्रलय का संकेत था। मेरे हाथ-पैर थरथराने लगे....मेरी माँ, बुआ, चाची सब लोग रोते-रोते हठात् चुप हो गये, चारों ओर नीरवता छा गयी। तापस दा का रुदन आसमान से टकराने लगा...मेरे पिता और चाचा दोनों ने मिलकर उनको हटाया....मेरी सुहागरात अद्भुत ढंग से बीती। पति का उग्र रूप झेल नहीं पायी। सारी रात वह मुझसे पूछते रहे तापस दा के साथ मेरा क्या संबंध है...कठघरे में मुजरिम की तरह खड़ी थी मैं। कुछ नहीं, कुछ नहीं कहती रही, वह मेरे पीछे पड़ गया। मैं रोजाना तनाव में रहती। उत्पीड़न झेलती... एक माह भी नहीं बीता था कि खबर मिली तापस दा ने आत्महत्या कर ली है....खुद को सँभाल नहीं पायी, बिलख बिलखकर रोने लगी...मुझे रोते देख उसका शक और पक्का हो गया और अंततः...

"तापस दा कुछ लिख गये थे?"

"तमाम कापी और किताबों में मेरा नाम लिख गये थे...एक कागज पर लिखा था- "माँ माफ़ करना तुम्हारा हतभाग्य, संतान तुम्हें छोड़कर जा रहा है। ईश्वर से दुआएँ माँगना अगले जन्म में मैं तुम्हारा बेटा बनूँ, किन्तु अपाहिज न बनूँ।"

"फिर क्या हुआ?"

"पति की मार सह नहीं पायी। तलाक हो गया।"

"तापस दा से शादी क्यों नहीं की थी?"

"क्या?.... विकलांग से?"

"ऐसे विकलांग नहीं थे कि पति धर्म का निर्वाह न कर पाते।"

'औरत को कुछ और भी चाहिए.....चढ़ पाते मेरे साथ पहाड़ों पर? दौड़ पाते सागर के तट पर?"

"हरेक जगह जा पाते तुम्हारे साथ वाहन से जाते, हवाई जहाज से जाते, उड़न खटोले से जाते... प्यार क्यों किया था? क्यों प्यार किया था विकलांग से?"

"मैंने प्यार नहीं किया था।"

"तुम झूठ बोल रही हो, उनसे तुम्हारा प्यार था।"

"नहीं, मैने प्यार नहीं किया था। उनसे मेरा प्यार... मैंने सोचा था प्यार और शादी अलग-अलग चीजें होती हैं...मैंने सोचा था प्यार सागर की लहर होती है, आँखों से ओझल हो जाऊँगी वे भूल जाएँगे, मैं भी भूल जाऊँगी...मगर मेरे लिए तो प्यार झील का पानी सिद्ध हुआ...इतनी काई जम चुकी है...इतनी काई जम चुकी है कि मौत से ही मुक्ति मिलेगी।"

'अच्छा अब चलूँ... फिर मुलाकात होगी।" **

"बैठिए न और दो मिनट, अच्छा लग रहा है। लग रहा है, मेरा भी कोई अपना है जिससे अपनी बात कह सकती हूँ।"

मैं बैठ गया। " आती हूँ" कहकर अनुराधा भीतर गयी। थोड़ी देर बाद चाय लेकर आयी। अलमारी से दो किताब निकालकर देते हुए मुझसे कहा- आप पढ़ने में रुचि रखते हैं, पढ़िएगा। "झील" बी. ए. के पाठ्यक्रम में लगी है। इसे पुरस्कार भी मिला है...एक मिनट।" कहकर उसने साष्टांग प्रणाम किया और उठते हुए कहा-" फिर आइएगा।"

जिज्ञासावश मैंने चलते-चलते 'झील' किताब का जिल्द खोला। खोलते ही दंग रह गया। किताब लिखी हुई थी तापस बनर्जी की और प्रकाशक का नाम था "अनुराधा प्रकाशन"।


-सुभाष चंद्र गागुली
(कहानी संग्रह: सवाल तथा अन्य कहानियाँ से, प्रथम संस्करण: 2002)
______________________
27/10/1998--- ' इन्द्रप्रस्थ भारती ' जनवरी-- मार्च 2000 में  प्रकाशित ।
* ' लेखा परीक्षा प्रकाश' जुलाई 1999 में ।
* 'गंगा यमुना ' इलाहाबाद  पाक्षिक में जून 1999 में प्रकाशित ।
* 'जनप्रिय ज्योति ' मुरादाबाद,उ प्र अंक जून 1999 में प्रकाशित ।

No comments:

Post a Comment