Search This Blog

Sunday, July 18, 2021

कहानी- दूध का डिब्बा

मुझे इलाहाबाद से देहरादून जाना था। संगम एक्सप्रेस शाम पाँच बजे छूटी। स्लीपर कोच में भी जनरल डिम्बे जैसी ठसाठस भीड़। जैसे-तैसे अंदर घुसकर एक कोने खड़ा हो गया फिर गाड़ी चलने के बाद अपनी जगह देखकर साहस जुटाकर एक से कहा--''भाई साहब! मेरा रिजर्वेशन है, यही बर्थ है, दो महीने पहले करवाया था. जगह खाली कर दीजिए ना।''

उसने हाजिर जवाब दिया-''दो घंटे बाद खाली होगी, यहाँ रोज-रोज का आना-जाना है हम सब एम. एस. टी. वाले हैं, रोज-रोज क्या खड़े खड़े जायेंगे ? एक दिन झेल नहीं सकते हैं ?''

उस लड़के के अगल-बगल बैठे सभी लड़कों ने मुझे कटाक्ष दृष्टि से देखा । आगे चुप रहने में ही मैंने अपनी भलाई समझी ।

फतेहपुर में मुझे अपनी बर्थ मिल गयी । मेरे सामने बैठे दंपत्ति से मेरा परिचय हुआ । सतीश कानपुर का है, इलाहाबाद में एक बैंक में नौकरी करता है, ख़ुद को फक्र से कनपुरिया कहता है । उसके साथ थी उसकी पत्नी रीमा और रीमा की गोद में चार-पाँच माह की कन्या बिट्टू। अपनी शादी के बाद पहली मर्तबा रीमा अपने मायके जा रही थी। इलाहाबाद की हीरा हलवाई की मिठाई व लोकनाथ के हरि नमकीन के डिब्बे उसके बगल में रखे दोनों एक दूसरे के शहर को 'गंदा' बोलने लगे और मीठी-मीठी बहस में हुए थे । उसे वह मायके ले जा रही थी । बातों ही बातों में वे उलझ गए। मैं बीच में टपका--'' मुझे तो अपना शहर सबसे प्यारा लगता है, देखिए ना आप दो आइटम साथ ले जा रही हैं, लोकनाथ का मार्केट कितना अच्छा है । नीम पेड़ के नीचे सब कुछ मिल जाता है । " सतीश हँस कर बोला-'इलाहाबाद! किसी से मत कहिएगा, इलाहाबाद एक बड़ा गाँव है, क्या है वहाँ ? बस संगम के लिए मशहूर है, मार्केट देखना हो तो कानपुर में देखिए, गुमटी नंबर पाँच हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा मार्केट है। क्या नहीं है वहाँ ? पूरी दुनिया में मशहूर है।''

रीमा ने तपाक से कहा--''छी! ऐसा मार्केट कि दम अटकने लगता है, धक्का-मुक्की गंदगी, इससे अच्छा अपना मेरठ है।" इसी तरह इधर उधर की बातें करते-करते हम अपनी-अपनी जगह लेट गए।

रात के करीब बारह बजे का समय था। गाड़ी टुंडला से रवाना होकर थोड़ी देर बाद एक वीरान सी जगह रुक गई । थोड़ी देर बाद और एक गाड़ी आकर बगल में खड़ी हो गई । फिर थोड़ी थोड़ी देर में एक-एक गाड़ी आकर अगल-बगल रुकती गईं । देखते-देखते खलबली मच गई। चारों तरफ़ कोहराम मच गया । गाड़ी क्यों रुकी इस पर तरह-तरह के कयास लगाए गए । ड्राइवर, गार्ड, टीटी किसी को सही जानकारी नहीं थी । पूरी रात अनिद्रा, अशांति और काल्पनिक भय में बीती ।

अगले दिन सुबह-सुबह पता चला कि पिछली शाम आगे भयानक दुर्घटना घटी थी । एक गाड़ी दूसरी गाड़ी से टकरा गई थी । भारी नुकसान हुआ था । रेलवे पुलिस, दमकल तथा अन्य लोग क्लीनिंग ऑपरेशन में जुटे हुए थे । पता चला संगम एक्सप्रेस दूसरे रास्ते से मेरठ पहुँचेगी, देर रात गाड़ी रवाना होगी । अनेक लोग अपना-अपना सामान लेकर टूंडला की ओर पैदल चल दिए। हम लोग गाड़ी पर ही सवार थे।

मई की दोपहर, झुलसाती धूप, आग उगलती हवा, सिर के ऊपर लोहे की छत की तपन, आसपास विश्रामालय तो क्या छावनी तक नहीं, खाने-पीने के लिए कोई खोमचेवाला नहीं, पेयजल की व्यवस्था दूर-दूर तक नहीं, और गाड़ियों की टोटियों से भी एक बूँद पानी नहीं टपकता । उफ ! क्या त्रासदी ! चारों ओर त्राहि-त्राहि, हाय-तोबा, बड़े-बड़े धन्नासेठ नोटों की गड्डियाँ और ट्रेवलर चेक लेकर अत्यंत विवशता से गरीबी की नग्नता को देख रहे थे। सारे लोग मटमैले आकाश की ओर बार-बार देखते और ऊपर वाले से विनती करते । बड़ी विकट स्थिति ! संकट कितना खौफ़नाक हो सकता है यह मुझे मालूम न था अलबत्ता अख़बारों में कई बार कहानीनुमा समाचार पढ़ा था।

हम सब भूख और प्यास से तड़प रहे थे। सतीश का ध्यान मिठाई और नमकीन पर था। उसने कई बार हाथ बढ़ाया लेकिन जो सामान रीमा मायके ले जा रही थी उसमें से एक टुकड़ा भी निकालने के लिए तैयार नहीं थी। वह बार-बार मिठाई का डिब्बा खोलकर देखती कि मिठाइयाँ महक तो नहीं गई। उधर बिट्टू ने आफ़त मचा रखी थी, चीखती चिल्लाती, हाथ-पैर पटकती फिर रोते-रोते थक कर बेहाल हो जाती।

सूरज अब ढलान पर था। पाँच-साढ़े पाँच बजा रहा होगा। बिट्टू बुरी तरह भूख से छटपटा रही थी। उसे संभालना मुश्किल हो रहा था। अगल-बगल के डिब्बों से औरतें थोड़ी-थोड़ी देर पर रीमा के पास आतीं, उसके कानों में फुसफुसातीं फिर वापस लौट जातीं। सतीश ने बहुत देर तक बिट्टू को बाहर टहलाया मगर बिना आहार वह चुप कैसे होती। बेचारी रीमा भी क्या करती ! आधी डिबिया दूध साथ लेकर चली थी, वह जाने कब का ख़त्म हो गया था । ट्रेन ड्राइवर ने सतीश को इंजन का गरम पानी निकालकर दिया था, उसी में शेष दूध, डिब्बा खुरच-खुरच कर घोलकर पिलाया था, अब तो कोई उपाय न था । रीमा का अपना दूध खत्म हो चुका था, भूखी-प्यासी जो थी, बिट्टू के लिए आँसू के सिवा कुछ न था । रीमा की आँखों से अविरल बहते आँसू मुझसे नहीं देखे जा रहे थे । बिट्टू को कुछ हो जाने की कल्पना से मेरे हाथ-पैर ढीले पड़ने लगे। 

मैंने सतीश से कहा--''चलिए यहाँ से निकल चलें, सीधे, दायें-बायें, उत्तर-दक्षिण पूरब-पश्चिम घूमते-टहलते कोई उपाय अवश्य निकल आयेगा। कहीं न कहीं लोग रहते होंगे, कोई गाँव, दुकान, झुग्गी-झोपड़ी अवश्य मिलेगा। गाँव के लोग सीधे-सादे भोले-भाले होते हैं ।''

''हमें तो लग रहा है चारों ओर जंगल है, बड़े-बड़े घने पेड़-पौधे दिख रहे हैं, कहाँ जायेंगे खामख्वाह इस मुसीबत से गहरी मुसीबत में फँसने ?''

''सुना है हिंदुस्तान के जंगलों में भी लोग रहते हैं, वे लोग सीधे-साधे भोले-भाले होते हैं।''

''नहीं, नहीं मैं नहीं जाऊँगा, जोखिम उठाना ठीक नहीं है, ज़बरदस्ती आ बैल मुझे मार! जंगल में रहने वाले लोग जंगली होते हैं, वे लोग सभ्य लोगों को देखकर दूर से तीर चला देते हैं।"

''धत् ! आप बेवज़ह डर रहे हैं, हम कोई जानवर हैं क्या ? और न ही वे जानवर हैं चलिए तो सही, देर करेंगे तो बिट्टू को कुछ भी हो सकता है.... चलिए, सोचते क्या हैं ? मर्द होकर नामर्द की तरह बातें करते हैं ! मैं हूँ ना. बिट्टू को भी साथ ले लीजिए ।"

मैंने रीमा से कहा--"आप यहीं बैठे रहिए अगर हमारे आने से पहले ट्रेन चलने लगती है तो आप चेन खींच दीजिएगा । वैसे आप परेशान न होइएगा । हम लोग जल्दी लौट आयेंगे, कम से कम पानी तो होना ही चाहिए । पानी लेकर ही आयेंगे, हो सका तो दूध का डिब्बा भी ले आयें ।" रीमा की आँखें डबडबा आयीं लेकिन सुकून पूरे चेहरे पर छा गया।

बिट्टू को अपने साथ लेकर हम रवाना हुए. साथ में पानी का डिब्बा, दूध की बोतल और एक बैग ले लिया । हम आगे बढ़ते गए, हमारे चारों ओर सन्नाटा पसरा हुआ था, कहीं कोई पशु-पक्षी भी नहीं खुला मैदान, उबड़-खाबड़ जमीन, कहीं गड्ढ़े कहीं मिट्टी का टीला । दूर, बहुत दूर आम के ढेर सारे वृक्ष । एक-डेढ़ किलोमीटर चलने के बाद हमें खेत मिला । जगह-जगह मेड़ बने हुए हम पगडंडी से चल रहे हैं संभल, संभलकर, थोड़ी दूर के बाद कूड़ा-करकट, गोबर का । बड़ा कठिन था मार्ग हमारे लिए फिर भी उत्साहित होकर मैंने कहा--  "थैंक गॉड! यहाँ आसपास ही कहीं आबादी होगी अभी कोई न कोई दिख जायेगा ।" सतीश ने नाक सिकोड़कर कहा-- ''हे राम! कैसे जीते हैं इस देश के लोग ? देश को आजाद हुए इतने वर्ष बीत गए फिर भी यह हाल !"

मैंने कहा-''सो तो है मगर अपना देश है भी तो है कितना बड़ा । छत्तीस करोड़ आबादी एक अरब तक पहुँच भी तो गई है । इसी रफ्तार से अगर आबादी बढ़ती रही तो आपको हमेशा यही सब दिखाई देता रहेगा ।"

अचानक हमें कुछ झुग्गी-झोपड़ियाँ दिखाई पड़ीं । तेज चलकर हम कुछ दूरी पर रुक गए । एक झोपड़ी के बाहर कई बच्चे उछल-कूद रहे थे। हमें देख वे सकपका गए।  एक बच्चा दौड़कर भीतर गया और भीतर से उसके माता-पिता बाहर निकल आए । वे सभी हमें आश्चर्य चकित होकर देखने लगे । मैंने देखा कुल सात बच्चे थे । एक वर्ष से दस वर्ष तक के । सभी के तन लगभग खुले, दो एकदम नंग-धड़ंग । आदमी ने एक लुंगी बाँध रखी थी और औरत मैली धोती में लिपटी हुई थी । धूल मिट्टी से सभी के बाल भूरे-भूरे बदन मैले-कुचैले और आँखें मेढ़क जैसी उभरी हुईं।
कंकाल सा शरीर देख मुझे गिरीडीह और इथियोपिया के बच्चों की याद आयी जहाँ भुखमरी से प्रतिदिन एक बच्चा दम तोड़ देता है। मुझे इंगलिश राइटर ई० एम० फॉस्टर का लेख 'थ्री चीयर्स फॉर डिमाक्रेसी' याद आया । फॉस्टर ने सन् 1945 की अपनी भारत यात्रा के सम्बन्ध में लिखा था कि इंसान को न तो इतना ग़रीब होना चाहिए और न ही कुपोषण के कारण इतना मैला और गंदा रहना चाहिए कि सोते समय उनके ऊपर चूहे दौड़ें जैसा कि उन्होंने मुम्बई के एक लेबर कैंप में दोपहर की गर्मी में सोते हुए आदमी को देखा था। 'गरीबी हटाओ' से सम्बन्धित तमाम योजनाएँ मेरे मस्तिष्क में कुलबुलाने लगीं । बढ़ती उम्र के कारण मैं कुछ ज्यादा ही भावुक हो उठा।

ज्योंही मैं आगे बढ़ा सतीश ने मुझे टोका-''आप क्या उन कंगालों से मदद माँगेगे ?''  ''उपाय भी क्या है?... फ़िलहाल वे हमसे बेहतर हैं।"

''जात-पात जाने बगैर ? सकल-सूरत से वे...."

''हर गरीब देखने में एक जैसा होता है, आदमी जब पैसेवाला होता है उस पर सुख की चर्बी चढ़ती है, चर्बी चढ़ती है तो उसके चेहरे से नूर टपकता है, बस यही अंतर है उनमें और आप में, इस समय उन लोगों से ज़्यादा ग़रीब हम हैं ।"

''मैं मरना पसंद करूँगा मगर जात-पात जाने बगैर"

''भूख और प्यास की जात नहीं होती। सच पूछिए तो मनुष्य का भी जात और धर्म एक होता है।"

''मैंने कहा न मैं मरना पसंद करूंगा।''

''और बिटू ?... कहीं ऐसा न हो कि आपके झूठे दंभ के लिए बिट्टू....जिंदगीभर सिर फोड़ते रह जाइएगा. रीमा को मुँह दिखाने लायक नहीं रह जाइएगा ।"

बिट्टू फूट-फूट कर रोने लगी । सतीश उसे शांत नहीं कर पा रहा था । झोपड़ी के पास खड़े आदमी और औरत हमारे पास आकर खड़े हो गए । कुछ अकुलाहट के साथ पूछा--''आपलोग कौन हैं ? यहाँ कैसे पहुँचे ? आप लोग क्या?....''

''नहीं, हमलोग...' इसके पहले कि हम कुछ बोल पाते औरत ने कहा-- "अरे इ बिटिया तो भूखी है, हिचकी मारत है, दै हमका, पानी पियाय देई ।"

''उसे भूख लगी है । थोड़ा सा दूध हो तो.. "मैंने बिनती की।

''लावैं कहते हुए हाथ बढ़ाकर उसने बिट्टू को गोद में ले लिया ।" दौड़ती हुई घर के भीतर घुस गई।

मैंने उन लोगों को अपनी मुसीबत की कहानी सुनाई । कहानी सुनकर वे विचलित हो उठे । औरत ने बिट्टू को अपनी गोद में लिटाकर, उसकी बोतल में जरा सा दूध और पानी भर कर देर तक हिलाने के बाद पिला दिया. फिर उस औरत ने हमें गुड़ और पानी दिया ।

उनसे जानकारी मिली कि आगे बस्ती है, एकाध घरों में छोटी-मोटी दुकानें भी हैं ।

उन्हें धन्यवाद देकर हम वहाँ से चल दिए । चलते समय हमने उनके

बच्चों के हाथ में कुछ-कुछ पैसे दिए ।

सूरज अब पूरी तरह डूब चुका था । बहुत दूर चाँद का एक टुकड़ा अपना आकार बढ़ाने में मगन था । मगर सूरज की तपिश अभी भी कानों में और डगों में महसूस हो रही थी । अभी भी पर्याप्त उजास था । हम बस्ती की खोज में कदम बढ़ाते गए, हमें दूध का डिब्बा लेना ही था, गाड़ी का क्या भरोसा ?

मुझसे चला नहीं जा रहा था। सतीश भी थका हुआ था, गिड़गिड़ा रहा था। फिर भी हम चलते गए । अचानक देखा बाँयें ओर कुछ दूरी पर एक. कुँए के पास दो-चार औरतें पानी भर रही हैं और कुँए से थोड़ी दूर एक कतार में कई झुग्गी-झोपड़ियाँ हैं,. कुछ खपरैल के और कुछ फूस के । और उसके ठीक पीछे खजूर और ताड़ के ढेर सारे वृक्ष ठसाठस फलों से लदे । मैं उत्साहित सा हो गया। मैंने चारों ओर नजर दौड़ायी । देखा- मेरे दाँये ओर दो-तीन सौ गज की दूरी पर एक कुँए के निकट एक गोल मटोल, गंजा, पहलवाननुमा आदमी हाथ में लोटा लेकर कुल्ला कर रहा है । उसके कान पर चढ़ाया हुआ सफेद जनेऊ फंदा प्रतीत हो रहा था । कुल्ला करते-करते उसने अपनी निगाहें गड़ा दी। हम अपने बाँये चलकर ठीक बस्ती के सामने नीम के पेड़ के नीचे रुके। कुँए के पास खड़ी औरतें अचरज में होकर हमें देख आपस में बडबड़ाने लगीं । सतीश मेरे ऊपर बरस पड़ा-- " चलिए लौट चले, यहाँ कहीं दुकान-उकान नहीं दिख रही है । गंदी-गंदी औरतें, गंदी बस्ती, यहाँ क्या मिलना है ?"

''अभी मात्र सात बजा है, ट्रेन छूटने में देर है, बिट्टू के लिए दूध तो लेना ही लेना है...चलिए वह जो दादा जी बैठे हुए हैं उनसे पूछते हैं ।'' 'दादाजी !' लौट चलिए, पता नहीं कौन.....-

मैंने अनसुनी कर दी। दस-पंद्रह कदम चलकर एक गहरा नाला पार कर हम झोपड़ी के निकट पहुँचे। हमें देख खूंटे में बँधी बकरियाँ मिमियाने लगीं। चबूरते पर उकडू बैठे वृद्ध हुक्का पी रहे थे पर स्वागतनुमा मुस्कान लहरा गई । हमने बोलना शुरू ही किया था कि वे बोले जोर से बोलिए. ऊँचा सुनता हूँ । मैं जोर से बोलने लगा तो उनकी पत्नी बाहर निकल आयी, अगल-बगल के कई लोग भी सुनने लगे। वृद्ध ने कहा-- दूध का डिब्बा मिल जायेगा, बैठिए... बच्चे को खटिया पर लिटा दीजिए ।

उनकी पत्नी हमारे लिए गुड़ और पानी ले आयी, फिर थोड़ी देर बाद रोटी, सब्जी और अचार ले आयी । सतीश गिद्ध जैसा झपटा और गपागप उड़ाने लगा । मुझसे खाया नहीं जा रहा था, भूख मर चुकी थी, गला सूख रहा था, अंधेरे में चार-पाँच किलोमीटर वापस जाने का तनाव था, रीमा भी भूखी थी। मैंने कहा- मुझसे अभी खाया नहीं जा रहा है, पेट पिरा रहा है, बिट्टू की माँ भी भूखी है, आप इसे एक कागज में लपेट दीजिए ।

बूढ़ी औरत ने कहा-- ''भूखै के ख़ातिर पेटवा पिरात है, आप एका खाए लें, बहू का खाना हम बाँध देब।'' बड़ी मुश्किल से एक-एक कौर पानी से निगल लिया।

बूढ़ी औरत ने रीमा के लिए कागज की थैली में खाना भर दिया और एक नया दूध का डिब्बा जिसे अभी तक खोला नहीं गया था हमें दिया । सतीश ने डिब्बे पर कीमत पढ़ी, रुपया निकाल कर आगे बढ़ाया मगर उन्होंने लेने से इन्कार कर दिया। सतीश ने ज़बरदस्ती की तो बूढ़े ने विनम्रता से कहा-- ''बाबूजी! इसे आप ले जाइए, पैसे की जरूरत नहीं है। हम पैसे नहीं ले सकते, आपकी बेटी हमारी पोती जैसी है....नहीं हम रुपए नहीं ले सकते, आप लोग हमारे मेहमान हैं, भगवान के भेजे हुए हैं। मैंने सोचा उनकी पोती के हाथ में ही कुछ रख दूँ. वे मना नहीं कर पायेंगे। मैंने पूछा- "आपकी पोती किधर है ?''

थोड़ी देर के लिए सन्नाटा पसर गया । कुछ पल बाद रोने की हल्की आवाज सुनाई दी । मैंने भीतर देखा। वृद्ध की बहू की आँखें नम थीं । गालों पर आँसू की धार गहरी और घनी थी । विषाद की रेखाएँ स्वयं सुना रही थीं उस तरुणी की कहानी, फिर भी मैं अपना अतिरिक्त कौतूहल रोक नहीं सका और पूछ बैठा--''माँ जी! आपकी पोती पोता किधर हैं, कहाँ हैं ?"

एक दीर्घश्वास छोड़कर वह बोली-- " दस रोज भवा उ हमका छोड़कर चली गई, हैजा होय गवा रहा सहिर मा अस्पिताल लै जात-जात काठ मार गई।' वह फूट-फूट कर रोने लगी, बहू की रोने की आवाज तेज हो गई, वृद्ध के हाथों से हुक्का गिर पड़ा । मेरा कंठ भर आया, उन्हें सांत्वना से देने के लिए मैं शब्द ढूंढ नहीं पाया ।

सतीश अब दूध का डिब्बा नहीं लेना चाहता था । उसने घृणा से डिब्बे को देखा फिर उसे खटिया पर रख दिया । सतीश के आचरण से मैं क्षुब्ध हुआ । मैंने डिब्बे को आहिस्ता से उठा लिया और हम बाहर निकल आये । वृद्ध ने कहा-- ''ठहरिए मैं आप लोगों को छोड़ आता हूँ।''

''नहीं, आप कहाँ परेशान होंगे?  हम चले जायेंगे।'' मैंने कहा। 

''अँधेरे में भटक जाइएगा। अनजान जगह है....मैं अपनी लाठी ले लूँ । जूता पहन लूँ । एक मिनट।''

  
चारों ओर अंधेरा छाया हुआ था । बस्ती के लोग अपने-अपने घरों से बाहर झुंडों में बैठे हुए थे । घने वृक्षों को चीरकर चाँद की रोशनी इधर उधर बिखरी पड़ी थी । एक-दो तारे टिमटिमाते हुए नजर आये । दरअसल अगर वह वृद्ध हमारे आगे-आगे न चलते तो हम रात भर अँधेरे में ही चक्कर काटते रहते । लगभग आधे रास्ते तक चलकर वृद्ध ने कहा- ''अब उजाला है, सब कुछ साफ़ दिखता है, आपलोग खेत के बगल से चलते रहिएगा, एकदम सीधा कहीं घुमिएगा ना कोई डर नहीं है, कहीं कोई जानवर भी नहीं है । राम राम भगवान आपलोगों का भला करे !''

वृद्ध के लौटते ही सतीश ने अपनी भड़ास निकाली ' मात्र दस दिन पहले उस घरमें गमी हुई थी। यह डिब्बा उस मरी बच्ची का था। उसका दूध मैं....अपनी संतान को कैसे दे दूँ ? अधर्म है, पाप होगा... इसे आप फेंक दीजिए । बिट्टू को उसकी माँ पिला देगी ।'' '' मगर उसकी माँ कहाँ पिला पा रही है बेचारी खुद भूखी प्यासी है ।''

"अभी खाना खायेगी, पानी पियेगी फिर पिला देगी।''

" हम सब उस घर का खाना खा सकते हैं, पानी पी सकते हैं मगर बिट्टू डिब्बे का दूध नहीं पी सकती है यह कैसा धर्म है ? कैसा भौंडा संस्कार है ?''

''यह दूध उस लड़की के लिए था जो दस दिन पहले मरी है, इसमें उसकी प्रेतात्मा अटकी हुई है। संस्कार और धर्म के अनुसार मृत व्यक्ति का सामान नहीं छूना चाहिए, फेंक देना चाहिए.....धर्म आस्था की बात है, आप नास्तिक लगते हैं...''.सतीश ने अपना विचार व्यक्त किया।

''डिब्बा डिब्बा है, दूध दूध है... मान लीजिए वे इसे बाहर बेच आते और हम इसे खरीद लाते, मान लीजिए वे रुपए ले लेते और हमसे कुछ न कहते...'' '' मैं कुतर्क में नहीं पड़ना चाहता, बिट्टू मेरी बेटी है उसके लिए जैसा मैं उचित समझँगा वैसा करूंगा।...यह डिब्बा फेंक दीजिए वर्ना यात्रा ख़राब होगी।''

''ठीक है, इसे मैंने लिया है, मैं रखूँगा अनर्थ होगा मेरा होगा, भूख लगेगी तो मेरेकामआयेग.कितने भले लोग थे वे जान न पहचान क्या कुछ नहीं किया हमारे लिए, अंधेरे में हमें छोड़ने भी आये दोनों परिवार के लोग कितने भले हैं । वाकई मेरा भारत महान है ! मगर कितने भले लोग कैसी-कैसी हालत में रहते हैं, देखकर रोना आता है।"

सतीश अब चुप था. कुछ भी नहीं बोल रहा था। मैंने भी मुँह बंद रखा। धीरे-धीरे दोनों वापस लौटे। 
 मैंने खाने का पैकेट, पानी का डिब्बा, दूध का डिब्बा बैग से निकाल कर रीमा के बगल में रखा। सतीश चीख उठा- '' दूध का डिब्बा हटाइए यहाँ से। फिर रीमा को सम्बोधित करता हुआ बोला--'' यह डिब्बा एक बच्ची के लिए खरीदा गया था, वह दस दिन पहले मर गई थी। '' रीमा ने मुँह बिचकाया। इस बीच मैंने डिब्बा उठाकर अपनी बर्थ पर रख दिया था । सतीश ने रीमा से फिसफिसाकर कहा-'' और यह खाना भी उसी घर का है, हमें लगा वह हरिजन बस्ती थी, मैंने ब्राह्मणों का अलग कुंआ देखा था....
.और यह पानी भी किसी दलित घर का है।"

"आप दोनों ने खाना खाया? उसी घर में खाये होंगे? पानी भी वहीं पिए होंगे ?'' रीमा ने धीरे से पूछा। सतीश चुप था। रीमा ने पैकेट फाड़कर जल्दी-जल्दी खाना खाया, पानी पिया और बोली ''हे भगवान ! कितने अच्छे लोग हैं वे, उनका भला हो !''

सतीश का चेहरा अदलता-बदलता रहा । पल में कुछ पल में कुछ।

अब अंधेरा और गहराने लगा था। दो-चार गाड़ियाँ चल चुकी थीं। अपनी संगम एक्सप्रेस अपने दर पर थी। बिट्टू फिर चीखने-चिल्लाने लगी थी। खाना खाये हुए रीमा को एक-डेढ़ घंटा हो चुका था । रीमा अभी भी स्तनपान कराने में असमर्थ थी । वह बिट्टू को बार-बार आँचल के पीछे ले जाती मगर बिट्टू झटका देकर सिर बाहर कर लेती। रीमा पानी भरा बोतल ढूँसती बिट्टू मुँह हटा लेती। बिट्टू का रुदन अब किसी से सहा नहीं जा रहा था। सारे लोग अपनी अपनी परेशानी से इतना तंग आ चुके थे कि बिट्टू के क्रंदन से चिढ़ रहे थे। लोगों की बातों से तंग रीमा बिट्टू को अनाप-सनाप बकती, तमाचा मारती, गालियाँ देती।

अब मुझसे रहा नहीं गया। मैंने कहा- '' कैसी माँ हैं आप ? बेवजह बच्ची को तड़पा रही हैं। तड़प-तड़प कर कहीं दम तोड़ देगी तो पछतायेंगी, उठाइए डिब्बा, दूध निकालिए और पिला दीजिए। बेहूदे संस्कार के कारण आप बिट्टू की हत्यारीन बन जायेंगी जिंदगी भर रोते रहना पड़ेगा।''

सतीश की आँखें अंगार हो गईं, मैं सतीश से भिड़ना नहीं चाहता था। मेरे हृदय की धुकधुकी बढ़ गई, मस्तिष्क में उथल-पुथल होने लगी । ट्रेन से उतरकर मैं टहलने लगा। मैंने देखा अपनी जगह से उठकर रीमा ने दूध का डिब्बा उठाया, दूध निकाल कर बोतल में डाला फिर पानी डालकर देर तक हिलाया, कुछ देर इधर-उधर देखने के बाद एक बारगी बिट्टू के मुँह में बोतल ढूँस दी। मुझसे थोड़ी दूर पर सतीश खड़ा था। वह असहाय होकर रीमा को देख रहा था और मैं सतीश के लिए अपरिचित बन चुका था।

देर रात गाड़ी छूटी। सभी ने ईश्वर को धन्यवाद दिया। भोर होते होते हमारी गाड़ी कानपुर पहुँची। मेरी नींद खुल गई। मैंने देखा सतीश सपरिवार नीचे उतर रहा है। मैं खिड़की के पास जाकर बैठ गया। दो हाथ में दो अटैची थामकर सतीश आगे-आगे चल रहा था और रीमा अपनी बेटी के साथ उसके पीछे। अचानक रीमा पीछे पलट कर तेज कदम से मेरे सामने आकर खड़ी हो गई। कुछ पल नम आँखों से एकटक मुझे देखती रही फिर मुँह खोलकर कुछ कहने जा रही थी मगर सतीश ने आवाज लगायी और वह  कुछ न कह सकी।

....रीमा की आँखों से दो-चार बूँद आँसू गालों पर लुढ़क आए, गालों को पोछती हुई वह पीछे पलट गई । मैं उसे अदृश्य होने तक देखता रहा। गाड़ी चली तो मैंने देखा दूध का डिब्बा मेरे ही बगल में रखा हुआ है। 

© सुभाष चंद्र गाँगुली 

(कहानी संग्रह: सवाल तथा अन्य कहानियाँ से, 
प्रथम संस्करण: 2002, द्वितीय संस्करण 2005, तृतीय संस्करण 2013
_______________________________
** अखबार " राजस्थान पत्रिका " 23/2/2000 में प्रकाशित ।
** पत्रिका " दस्तक " सम्पादक, राघव आलोक जमशेदपुर 12,फरवरी 2001 अंक में प्रकाशित ।
-------------------------------------------------
एक टिप्पणी :----
" यात्रा वृत्तांत शैली में आपकी यह कहानी डिब्बे में केवल दूध ही नहीं मानवोचित्त सम्बेदना, गांव गवंई लोगों का निश्छल प्यार और भी, बहुत कुछ भी भरती है । वाकई आप एक अति सम्वेदनशील कथाकार हैं जो रेगिस्तान में भी जलाशय तलाशते हैं, अमानवीयता के के खंडहर में मानवीय संवेदना ढूंढते हैं । "
कृष्णमनु, सम्पादक, ' स्वातिपथ ' ,मुनीडीह, धनवाद । पत्र दिनांक 16/6/2001


No comments:

Post a Comment