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Sunday, July 11, 2021

कहानी- प्रेम-पत्र


एक प्रेम पत्र जिसे मैंने लिखा था आज से तीस वर्ष पहले, एक उद्विग्न, अधीर गहरी रात में बन्द कोठरी में इतनी बन्द कि एक-एक छोटा-छोटा छेद भी कागज के टुकड़ों से बन्द कर दिया था, जिस प्रेम पत्र में एक-एक शब्द शब्दकोश देख कर प्रयोग किया था, जिस प्रेम पत्रमें अपनी काबिलीयत दिखलाने के लिए ढेर सारे शेरों और कोटेशनों का प्रयोग किया था, जिस पत्र को मैं दुनिया का सबसे बेहतरीन प्रेम-पत्र बनाना चाहता था, जिस पत्र में अपने हृदय के एक्स-रे को उतारने का भरसक प्रयास किया था, जिस पत्र को अपने बिस्तर के नीचे छिपा रखा था रात भर और फिर सुबह नींद खुलने पर बनियाइन के भीतर कैद कर दिया था किसी अप्रत्याशित दुर्घटना के भय से और जिसे तस्करी सा दिमाग लगाकर एक मोटी किताब के जिल्द में रखकर पहुँचाया था अपनी प्रेमिका रंजना के पास उस प्रेम-पत्र का बड़ा सा हिस्सा आ पहुँचा मेरे घर खुल्लम-खुल्ला मूँगफली का पैकेट बनकर

सारी मूँगफलियाँ खा ली गई हैं, छिलके बिखरे पड़े हैं, मेरी बेटी कमरे से निकल चुकी है, पत्नी अभी भी छिलकों को हटाकर दाना बीनकर मुँह में डाल रही है और उँगली चाटकर मिर्च-मसालेदार नमक का जायका ले रही है। इधर मेरा पसीना छूटा जा रहा है क्योंकि पत्नी ने पूरे पैकेट को बड़े सुनियोजित ढंग से फाड़ लिया है और उस पर इस तरह निगाहें गड़ायी हुई है जैसे कि कोई जासूसी किताब पढ़ रही हो।

कुछ लाइनें साफ़ हैं, पूरी की पूरी पढ़ी जा सकती हैं, कुछ आधी अधूरी, कहीं अंडरलाइन किया हुआ शब्द चमचमा रहा है और कहीं। अधूरा शब्द संकेत दे रहा है। वह अपनी उँगली किसी शब्द पर टिकाती फिर मन ही मन बुदबुदाती, स्मरण करने की भंगिमा में आँखों की पलकें मूँदती खोलती, फिर आगे बढ़ती, दूसरे शब्द पर उसका चेहरा तमतमा उठता है, वह गंभीर हो जाती, भावुक भंगिमा में गर्दन तिरछी करती। यह सिलसिला जारी है, दस मिनट से अधिक समय बीत चुका है। मैं व्याकुल हूँ। मैं सकते में हूँ। चोर की दाढ़ी में तिनका। मैंने तो अपनी राइटिंग पहचान ली है। मैं मन ही मन कहानियाँ गढ़ने के फेर में हूँ, कुछ नहीं सूझ रहा है।

अब वह मुझे इस कदर घूरने लगी है मानो उसने मेरी चोरी रंगे हाथ पकड़ ली हो। मेरा कलेजा धक-धक कर रहा है, गला सूख रहा है, होंठ फड़फड़ाने लगे हैं, माथे पर हल्का तापमान महसूस कर रहा हूँ। अभी तक कहानी नहीं बुन पाया हूँ जिसे सुनाकर अपनी जान बचा सकूँ। पैरों के अँगूठे ठण्डे होने लगे हैं, पेट के भीतर अँतड़ी सिकुड़ रही है, इतनी अकुलाहट, इतनी व्यग्रता कि मैं स्वयं को संभाल नहीं पा रहा हूँ।

अरे! अब तो वह मुझे एक टक निहार रही है, देखने का भाव भी अद्भुत है, कभी करुणा, कभी सहानुभूति, कभी जिज्ञासा, कभी आक्रोश, कभी हैरानी, कभी हताशा और कभी इतना प्यार मानो वह आगोश में लेना चाहती हो. कुछ भी वह स्वेच्छा से नहीं कर रही है, सब कुछ सहज-सरल स्वाभाविक ढंग से दृष्टिगोचर है। नायिकाओं को इन्हीं सब भावों को उकेरने के लिए ट्रेनिंग लेनी पड़ती है मगर मेरी श्रीमतीजी बिना ट्रेनिंग के ही इस वक्त ग़जब की नायिका है....अब जब उसके भाव प्रेम के हैं तो क्या मैं अपनी बात उससे कह दूँ? मगर क्यों? खुद क्यों आगे बढूँ? उसने पूछा तो नहीं...संभव है कि वह मेरे बारे में कुछ भी नहीं सोच रही है. यूँ ही मजा ले रही है... किन्तु वह तो गंभीर और भावुक हो उठी है, कहीं ऐसा तो नहीं कि उसे अपना प्रेम-प्रसंग याद आ गया है.... अरे बाबा! तब तो गड़बड़...नहीं, उसने शादी से पहले ऐसा-वैसा काम नहीं किया होगा। फिर भी मुझे अनजान बन कर पूछ लेना चाहिए। नहीं, ख़ामखाह आ बैल मुझे मार। इससे अच्छा भोलेबाबा बने रहो, देखो आगे आगे होता है क्या। अभी भी वह कागज को देख रही है और थोड़ी-थोड़ी देर में मुझे देख रही है, उसकी दृष्टि शिकारी बिल्ली जैसी है। कदाचित मैं उसकी नजरों से नजरें मिलाता हूँ तो वह अपनी नजरें कागज पर गड़ा लेती है। उफ! अजब मुसीबत में फँस गया हूँ। बहुत अद्भुत होते है, जीवन के कुछ क्षण, कठिन जटिल, भयानक दर्दनाक व अझेल। एक एक...पल, एक एक वर्ष जैसा!....मेरे मस्तिक में कोई हथौड़ा चला रहा है, नसें फड़फड़ा रही हैं, हथेलियाँ ठंडी हो चुकी हैं, मैं अपनी सुधबुध खो रहा हूँ, पता नहीं कैसा कष्ट है।.....लगता है थोड़ी ही देर में ब्रेन हैमरेज हो जाएगा या दिल का दौरा पड़ जाएगा।

उम्र तो चढ़ ही चुकी है, असर भी दिखा चुकी है दो-दो बार, यह बात दीगर है कि बालों में डाई रहने से कोई सही उम्र भाँप नहीं पाता उल्टा लोग यंग समझ बैठते हैं पर मैं खुद को कैसे धोखा दूँ! मैं खुद को यंग महसूस करना चाहता हूँ मगर नहीं कर पा रहा हूँ, मेरा पूरा शरीर, पूरा वजूद फिलहाल मेरे वश में नहीं है। निष्कृति पाने का एक ही उपाय है, खिसको यहाँ से, मगर कहाँ ? कब तक? जहाज का पंछी यहीं लौटना पड़ेगा।

अब मैं अपनी जगह से उठ चुका हूँ, खिड़की के पास रखी कुर्सी पर बैठ गया हूँ, बाहरी दुनिया देख रहा हूँ मगर मेरा मन कहाँ मानता? कभी कनखियों से, कभी सीधे उसे ही देखता हूँ। मैं बेचैन हूँ फिर भी तनिक बेहतर • महसूस कर रहा हूँ...खिड़की से देख रहा हूँ दूर उस पार्क से जलाशय के पास पलाश वृक्ष की ओट में दो प्रेमी प्रेमालाप में लीन हैं। अक्सर मैं इस दृश्य को देखता हूँ।

जाने क्यों वे मुझे अभिभूत करते हैं। बड़ी ऊर्जा भर आती है मेरे तन-मन में। वे दोनों बेख़बर हैं मेरी गुप्तचरी से उनका बेखबर रहना। मेरे लिए हितकर है। मेरी पत्नी को इस सम्बन्ध में कुछ भी मालूम नहीं है, मैं कहना भी नहीं चाहता हूँ। कहने से मेरे बारे में उसकी धारणा ख़राब हो जाएगी, मेरे प्रति उसकी श्रद्धा कम हो जायेगी। संभव है कि वह यह सोच ले कि मेरा मन भरा नहीं उसके प्यार से जिस वजह से मैं पराये प्रेम से अपना दिल बहलाता हूँ। कई बार सोचा था उस दृश्य को उसे दिखाऊँ मगर अब मेरे अतीत का टुकड़ा उसके हाथ लग जाने से कहने का प्रश्न ही नहीं उठता।

अब उसने कागज से ध्यान हटा लिया है, ऊन का गोला अपने घुटनों में लपेट रही है, स्वेटर बिनने की तैयारी चल रही है। इस बीच बेटी ने चाय का प्याला धर दिया है। मैं चाय सुड़कने लगा हूँ, मेरी आँखों में पार्क का दृश्य समाया हुआ है मगर मेरा ध्यान उसी कागज पर बल्कि मेरी पत्नी की ओर है.... ऊन का गोला फ़र्श पर रख कर पत्नी उठ रही है. बाथरूम के भीतर घुस गई, दरवाजा बन्द हो गया...मेरी इच्छा हो रही है कि मैं उस कागज पर झपट पडू, उठा लूँ, उसे चिन्दी-चिन्दी कर खिड़की से फेंक दूँ या जला कर राख कर दूँ... मगर उससे उसका संदेह पुख्ता हो जाएगा....बेवजह मैं क्यों परेशान हूँ? किस बात का डर है मुझे? तीन बच्चों की माँ, पूरी तरह मेरे ऊपर आश्रित है, जायेगी कहाँ ?...कहीं आम हत्या कर ले तो ? अधूरा हो तो मामला उतना संगीन नहीं होगा। एक नेक इंसान की तरह उससे बस इतना कह दूँगा कि रंजना मेरी दोस्त थी, मेरे साथ पढ़ती थी. नोट्स व किताबों का आदान-प्रदान होता रहा, फिर कुछ-कुछ होने लगा। था पर हुआ नहीं था। आखिर वह भेरी धर्मपत्नी है।

सात फेरे लगाकर, सैकड़ों कसमें खाकर, अग्नि देवता को साक्ष्य रखकर, सारे देवताओं की सौगन्ध खाकर, सैकड़ों लोगों को गवाह बनाकर उस निरीह, अबला को मैंने अपनाया था। पहले मैं उसका पति था फिर धीरे-धीरे उसने तीज, शिव-रात्रि करवा चौथ समेत तमाम त्योहारों में मेरे लिए निर्जल व्रत रख, पूजा-पाठ कर मुझे अपना परमेश्वर बना लिया, अब परमेश्वर में दोष पाकर उसे जो सदमा पहुँचेगा उससे उसके पैरों के नीचे जमीन खिसकने लगेगी और वह कुछ भी करने के लिए उद्यत हो जायेगी। उद्वेग और उत्तेजना उसे संचालित करेंगे। सचमुच उसे अपना अतीत सताने लगे? अगर सचमुच उसे महबूब की याद आ गयी हो। और वह अपना अतीत मेरे सामने रख दे? नहीं, नहीं, मुझसे सहा नहीं जायेगा... हम दोनों बूढ़े हो रहे हैं, हमसे से कोई अगर दम तोड़ दे? अगर किसी को डिप्रेशन हो जाये तो ?....खामोश रहना बेहतर है। स्थिति पर नजर रखूँ, ठण्डे दिमाग से काम लूँ।

उधर आसमान में गोधूली की छटा बिखर गई है वृक्ष से दुगनी लम्बी छायाएँ दिखने लगी हैं.... अरे! पलाश वृक्ष की ओट में अभी भी वे दोनों मौजूद हैं? दोनों के सिर एक दूसरे को स्पर्श किए हुए हैं, दूर से अर्द्ध गोलाकार वस्तु प्रतीत हो रही है किन्तु सिर आगे-पीछे होते रहने से बीच में जो गैप बन रहा है उससे उन दोनों की मौजूदगी का अहसास हो रहा है। कितना मनोरम दृश्य! अद्भुत सुखानुभूति हो रही है, मेरा अतीत मेरे सामने है, मैं खुद को वहाँ मौजूद पा रहा हूँ, किसे नहीं भला लगता स्मृति में जीना ?....कभी रंजना भी बैठती रही उसी तरह किसी पार्क में वर्षों से मैं उसकी यादों में जी रहा हूँ।...खूद को उस पार्क में पलाश वृक्ष के निकट रंजना के साथ बैठा महसूस करता हूँ। वर्षों से उसी पार्क में, उसी

आत्महत्या !! इतनी सी बात पर! बात इतनी सी मेरे लिए हो सकती है, उसके लिए बहुत बड़ी बात है। उसका पति झूठा, मक्कार। पति ने दगा दिया है उसे, अब तक प्रेम का नाटक रचा है, अब तक जो कहा है वही सब उसने कहा होगा रंजना से यह बड़ी बात नहीं है तो और कुछ उसने क्या? आत्महत्या करने के लिए यह कारण बहुत बड़ा कारण हो सकता है किसी स्त्री के लिए। आवेग और आवेश में औरत क्या कुछ नहीं कर बैठती? स्वयं नारद औरत के चरित्र को नहीं समझ सके थे....हॉ. एक बात कर सकता हूँ, उस कागज को उठा कर मैं देख लूँ उसमें क्या लिखा है। प्रेम पत्र मैंने कई दिए थे, सभी खतरनाक नहीं थे, कुछ तो सामान्य पत्र जैसे थे, अगर सामान्य पत्र हो और एकाध शेर व कोटेशन वह भी स्थल पर युवक-युवतियों को बैठा देखता आ रहा हूँ। कोई न कोई जोड़ा वहाँ बैठता रहा। जाने कितने जोड़े बैठे होंगे। कोई-कोई सदा के लिए एक दूजे से बँधे गए होंगे, और किसी-किसी का हाल मेरा जैसा हो गया होगा... मगर रंजना ने मुझसे शादी क्यों नहीं की थीं? क्यों दगा किया था उसने? रंजना से न जवाब मिला था और न कभी मिल पायेगा....रंजना अब इस दुनिया में नहीं रही।

लगभग एक माह रंजना से मेरा संपर्क नहीं हो सका था, फिर जब मैंने उससे संपर्क करना चाहा तो पता चला वह शहर छोड़ चुकी है। वह किस शहर, किस गाँव में बिन किसी से कुछ कहे क्यों चली गयी कुछ भी पता नहीं चल सका था। मेरा मन कह रहा था रंजना के साथ चाहे जो मजबूरी हो वह मेरे बगैर नहीं जी पायेगी, वह आयेगी जरूर भागकर आयेगी या फिर उसका ख़त आयेगा, वह मुझे धोखा नहीं दे सकती....वर्षों मैं डाक देखता रहा, वर्षों मेरी नींद टूटती, वर्षों मुझे उसकी आहट सुनाई देती....वर्षों की प्रतीक्षा के बाद मैंने हार मान ली, मैंने मान लिया कि उसने शादी कर ली होगी...फिर घरवालों के दबाव में, भविष्य की सोच कर मैंने भी जीवनसंगी ढूँढ़ ली...पत्नी को खुश रखने की कोर कसर नहीं छोड़ी। सुमन ने कहा था उस इकलौती को उसके पिता ने धमकी दी थी कि अगर वह मुझसे शादी कर लेती तो उसके पिता आत्महत्या कर लेंगे। रंजना डर गई थी। उसने पिता का कहना मान लिया था. पूरा परिवार मुंबई जा बसा था... उसके बाद मैंने डाक देखना बन्द कर दिया था मगर तभी से रंजना की यादें और अधिक सताने लगी हैं। वहीं बीस बाईस वर्ष की रंजना हमेशा मेरी आँखों के सामने मौजूद रहती है। शायद विछोह से मेरा प्यार और गहरा गया है। शायद सुमन ने मेरे मन में जमे क्रोध व घृणा को निकाल कर फेंक दिया था।

जब तक मैं अतीत को खँगारने में लगा हुआ था, मेरी पत्नी बाथरूप से निकल कर चाय खत्म कर चुकी थी। अब वह बाँये हाथ में ऊन का गोला और दाँये हाथ में चाय का प्याला और ऐतिहासिक प्रेम पत्र लेकर उठ रही है, वह किचन के अन्दर गई, उसने प्याला धर दिया, गैस के चूल्हे की बगल में कागज को रखा, धीरे-धीरे वह कागज फरफरा रहा है, पता नहीं वह क्या सोचने लगी है....तुम मेरी अद्धांगिनी हो- अब मैं तुम्हारा और सिर्फ़ तुम्हारा हूँ, उसे जला दो ना, चूल्हा पास ही है, फेंकना नहीं, रखना भी नहीं, क्या पता किसके हाथ लग जाए.....बेटी जवान हो गई है, कहीं उसके हाथ लगे और वह समझ जाए तो ? उफ! मुँह दिखाने लायक नहीं रह जाऊँगा...उसने चूल्हा जलाया, कागज हाथ में लिया......ओम शांति ! ओम! अरे! अरे! यह क्या? हाथ आगे बढ़ाकर फिर खींच क्यों लिया?.. उफ! मेरी समस्या जस की तस शायद वह उसे जलाना नहीं चाहती। मेरे हाथ का लिखा जलाने में संकोच हो रहा होगा। अब वह ठहर कर कुछ सोचने लगी है... क्या सोच रही हो श्रीमतीजी? जलाने का मन नहीं हो रहा है तो उसके टुकड़े-टुकड़े कर दो. इतने टुकड़े कर दो कि उसका अस्तित्व मिट जाय, फिर हाथ बढ़ाकर कूड़ेदान में....क्या कीमत है आज उस कागज की? महज एक कागज का टुकड़ा। पेड़ से गिरी एक टहनी या सूखा पत्ता। मेरी संवदनाएँ, मेरी भावनाएँ मेरा तन-मन, मेरी आत्मा अब सब कुछ तुम्हारा है, सिर्फ तुम्हारा। यह सच है कि रंजना मर चुकी है, यह भी सच है कि रंजना का भूत मेरे मस्तिष्क में सवार है, और मेरी मौत से ही रंजना पूर्णतया मरेगी। मगर क्या लेना देना है तुमको मेरे दिमाग से? आखिर तुम्हारे दिमाग में किसी और की तस्वीर.. किसी और की यादें हैं या नहीं मैंने जानने की कोशिश भी नहीं की। क्या फर्क पड़ता मेरे लिए अगर तुम्हारे दिमाग में भी कोई...हाँ, मुझे कहना। नहीं, कहने से गोलमाल होता है सोचने से नहीं।

'देखो! किसने घण्टी बजायी?' 'देखती हूँ' कहकर वह जा रही है. उसने फाटक खोला, वह खड़े-खड़े पड़ोसिन से बातें कर रही है। पड़ोसिन अन्दर नहीं आयेगी, ज्यादा देर रुकेगी भी नहीं, आज मैं जो हैं घर पर। पाँच मिनट बीत गए। वे दोनों खिलखिला रही हैं। उसके आने से पत्नी का तनाव कुछ कम हुआ है या फिर उसकी हँसी मैकेनिकल है मैं समझ नहीं पा रहा हूँ।

चेहरे से और आचरण से हमेशा किसी को समझ पाना संभव नहीं होता खासतौर पर महिला के मामले में.... मेरा मन फिर कह रहा है कागज को उठा लूँ, मैं डगों को आगे बढ़ाता हूँ, पत्नी की आवाज सुनाई देती है। अच्छा दीदी आप चलिए मैं तैयार होकर आती हूँ..मैं डगों को पीछे खींचता हूँ तख़्त पर बैठ गया हूँ, मेज से अख़बार उठा कर देखने लगा हूँ. मेरी निगाहें बार-बार घड़ी पर जा रही हैं, दस मिनट बीत गए..... फाटक खुला है, पड़ोसिन भीतर आती दिख रही है, मैं उसे देखता हूँ. नजरें एक होते ही वह सकुचाती है, वह रुक गयी है।

'अजी सुनती हो! पप्पू की अम्मा आयी हैं. खड़ी हैं फाटक पर..... आइए ना, अन्दर आइए।' मैंने कहा। 'ठीक है वह वहीं खड़ी है। हल्की मुस्कान उसके चेहरे पर उमड़ती है, वह अपना पल्लू संवारती है।

'आयी दीदी' आवाज लगाने के साथ-साथ मेरी पत्नी बाहर निकल आती है।

'अभी आती हूँ। चौबेजी के घर कथा है। कुछ चाहिए ? चाय साय ?.... चाहिए तो कह दीजिए, बेटी घर पर नहीं है।' 

यह खुशी कहीं रजना के ख़त के कारण गम में तबदील न हो जाए। यह सोचकर मैं रोजाना डाकघर जाने लगा था, रोजाना निराश लौटता. फिर भी मेरा मन कहता रंजना का ख़त आयेगा जरूर, वह मुझे भूल नहीं सकती, धोखा नहीं दे सकती। वह कम से कम अपनी सफाई, अपनी मजबूरी जरूर बतायेगी।

दो वर्ष पहले जब मैं मुंबई गया था तब अचनाक मेरी मुलाकात रंजना की सहेली सुमन से हुई थी। उसने कहा था रंजना के पति का किसी से नाजायज सम्बन्ध था जिसे तोड़ने में वह नाकामयाब रही। वह जब तक जीती रही, मर-मर कर जीती रही और अंततः पति के अत्याचार से तंग आकर उसने खुदकुशी कर ली थी। 'नहीं, नहीं, कुछ नहीं चाहिए, आराम से लौटना सुबह से घर बैठी हो। कुछ हड़बड़ा कर मैंने कहा अजीब सी मुस्कान बल्कि ख़ामोश व्यांगात्मक भाव उसके चेहरे पर लहरा गये। समझ गई है क्या ?....मैं मुस्कराता हूँ। मेरा मुँह मुझे भारी लगता है।

आँचल लहरा कर वह निकल रही है....कितनी प्यारी लग रही हो! साड़ी पहनना, सजना-सँवारना, खुद को मेन्टेन रखना कोई तुमसे सीखे श्रीमती जी सच! आज रंजना रहती तो वह बूढ़ी लगती। उसकी सहेली सुमन उसी के बराबर है, एकदम बूढ़ी लग रही थी। रंजना तो और भी केयरलेस थी। खैर! आज वक्त नहीं है तारीफ़ करने का तुम सोचोगी मसका लगा रहा हूँ, पूरी ताकत से फाटक ढकेलता हूँ, सिटकिनी लगाने के बाद फिर से चेक कर लेता हूँ. कागज उठाता खिड़की से देखता हूँ कहीं चौबे जी के घर से वह मुझे ताड़ तो नहीं रही....अब मैं कागज लेकर फर्श पर बैठ जाता हूँ।

अरे, मेरा चश्मा ? कमबख़्त अभी ही चश्में को इधर-उधर होना था। धत् तेरे बुढ़ापे की। माधुरी दीक्षित को देखना तो चश्मा, परायी औरत को देखना हो तो चश्मा, बस अपी पत्नी को देखने के लिए चश्मे की जरूरत नहीं। जब-जब पूछेगी देखिए ठीक है? तब-तब तुरन्त कहना पड़ेगा 'सुन्दर! अति सुन्दर! अगर कहीं गलती से कह दिया 'ठहरो जरा चश्मा पहन लूँ। तो गये काम से, तपाक से कहेगी मुझे देखने के लिए चश्मा चाहिए, परायी औरतों को तो खूब देख लेते हैं, तब चश्मे की जरूरत नहीं होती।...' चलो, चश्मा हाथ लगा।

मैं कागज यानी प्रेम पत्र पढ़ने लगा हूँ। जी हाँ, यह मेरा ही लिखा ख़त है। रंजना को लिखा था। आज भी मेरी हैंड राइटिंग वैसी की वैसी है, हूबहू वैसी, अलबत्ता भाषा में बदलाव आ गया है। एक-एक लाइन मैं कई-कई बार पढ़ता हूँ, जाने कहाँ खो हूँ. फिर सचेत हो जाता हूँ। आधे-अधूरे पत्र को कई बार पढ़ता हूँ। रंजना का चेहरा तैर रहा है, एक-एक दिन तैर रहा है....जाने क्यों मेरा दिल यकायक धड़कने लगा है। ब्लड प्रेशर का मरीज हूँ, मेरा सिर भन्नाने लगा है, साँसें तेज हो गई हैं। चारों तरफ रंजना' 'रंजना' गूँज रहा है। रंजना मरी नहीं होगी, रंजना मर नहीं सकती, सुमन ने झूठ कहा होगा, रंजना मुझे मिलेगी जरूर मिलेगी.... अभी इसी वक्त वह दस्तक दे सकती है...वर्षों बाद भी उसे मैं पहचान लूँगा। भले ही सुमन को पहचान न सका था, रंजना को पहचानने में कोई गलती नहीं होगी। रंजना की आँखों में जो ख़ूबी थी, उसके चेहरे पर जो नूर था, मुझे देखने का उसका जो अंदाज था वह किसी और को मिल ही नहीं सकता....नहीं मैं नहीं मान सकता कि रंजना अब इस दुनियाँ में नहीं है, सुमन ने मुझसे झूठ ने ही कहा था। रंजना जी रही है, मेरे साथ-साथ जी रही है, मरेगी, मेरे साथ मरेगी।

पत्नी को जो कुछ पूछना है पूछे, मैं झूठ नहीं बोलूँगा, सच्चाई को छिपाना नामुमकिन है। रंजना हकीकत है, परीकथा नहीं। मैं उस प्रेम पत्र को वहीं चूल्हे के बगल में रखे हूँ....घण्टी बजती है, अपने चेहरे पर आये। परिवर्तन को स्वाभाविक करता हूँ, दो गिलास पानी गटक कर धुकधुकी कम करता हूँ, तौलिये से मुँह और माथा पोंछ लेता हूँ. फाटक खोल देता हूँ। मुस्कराकर पत्नी को रिसीव करता हूँ। चौबेजी के घर कथा के दौरान हुई पंचायत की मोटी-मोटी बातें वह सुनाने लगती है। थोड़ी देर में बेटी घर लौटती है। खाना पकता है. टी. वी. चलती है, हम सब खाना खा लेते हैं, खाते-खाते इधर-उधर उधर की बातें होती हैं, हँसी-ठिठोली होती है। माँ-बेटी फिर से टी. वी. में मशगूल हो जाती हैं...काफी समय बीत जाता है, सब कुछ नॉर्मल है अब, मैं निश्चित हूँ. दवाइयाँ लेकर बिस्तर पर निढाल हो जाता हूँ।

बेटी अपने कमरे में सोने चली गई पत्नी सोने की तैयारी कर रही है, उसने मैक्सी पहन ली, दरवाजा बन्द कर दिया, स्विच बोर्ड के पास खड़ी है, उसने फिर दरवाजा खोला, किचन के अन्दर गई...डिब्बा ? डिब्बा क्यों खोला...शायद इलायची खायेगी। लौटी। फिर दरवाजा बन्द किया। अभी भी लाइट जल रही है।

मैंने आँखें मूँद रखी हैं। कागज की पुड़िया खोलने की सरसराहट...वह मेरे क़रीब है, अब वह बहुत क़रीब आ गयी है, उसकी साँसों की ऊष्मा महसूस कर रहा हूँ....उसने फुसफुसाया 'देखिए!...देखिए इधर! यह आपके हाथ का लिखा लग रहा है....है ना? 'होगा....सोने दो....सो जाओ, मैंने नींद की गोली ले ली है नींद आ रही है। मैंने पलकें खोलकर एक झलक उसे देखा। 'देखिए ना! मेरी ओर.... एक नजर ।'

'तुम्हारी ओर.....?' मैं चौंका। मैं शब्द ढूँढ़ रहा हूँ। मेरा मतलब इस कागज को गौर से देखिए....आपका ही लिखा हुआ है...है ना?' 'हाँ है..... यह मेरे ही हाथ का है.... उसका नाम था रंजना। उसकी आँखों की गहराई में डूब कर मैंने कहा।

वह मुस्कराकर प्रेम-पत्र को फाड़ती है, चिन्दी-चिन्दी करती है. टुकड़ों को खिड़की से बाहर फेंक देती है, लाइट ऑफ करती है....वह अपना बायाँ हाथ मेरे सीने पर रख कर सुकून से सो जाती है।


© सुभाष चंद्र गाँगुली 
( कहानी संग्रह" सवाल तथा अन्य कहानियां " संग्रह द्वितीय संस्करण -2005 से ।)
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** साहित्य एवं संस्कृति का मासिक "आजकल " पत्रिका के फरवरी -- 2002 में प्रकाशित ।
** महालेखाकार कार्यालय, उ प्र की पत्रिका ' तरंग ' के अक्टूबर-दिसंबर 2001 में प्रकाशित।
** बांग्ला कहानी संग्रह ' शेषेर लाइन ' ( आखिरी लाइन ) 10/2003 में प्रकाशित ।
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** मरू गुलशन , जोधपुर द्वारा ' प्रेम-पत्र ' कहानी के लिए 2007 में श्री  भगवती लाल शर्मा स्मृति
पुरस्कार से सम्मानित किया गया था ।
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कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियां :--------
** सुभाष चन्द्र गांगुली ने अपनी कहानी ' प्रेम-पत्र के माध्यम से ( स्त्री पुरुष दोनों ) के मनोविज्ञान को जिस तरह से रेखांकित किया है, ्मन पर गहरा प्रभाव छोड़ता है । गांगुली वस्तुस्थिति या समस्याओं का फौरी तौर पर निरुपण करने वाले कथाकार न होकर, मन की गहराइयों का विश्लेषण करने वाले और चीजों की उसकी वारिकी और गहराई के साथ पडतालने वाले कथाकार हैं। मुझे लगता है कि कहानी में उनका यह प्रयोग रंग दिखाएगा ।"
श्रीरंग 
वरिष्ठ कवि एवं समालोचक
( आजकल - 2002 अंक में प्रतिक्रिया प्रकाशित )
** " ' प्रेम-पत्र' कहानी बहुत व्यहारीक और शीक्षाप्रद रहा ।"रसिकेश शर्मा , इन्दौर ( ' आजकल ' जुन 2002 अंक में प्रकाशित )
** " प्रेम-पत्र' कहानी में भावुक मन की तरंगों का अंतर्द्वन्दात्मक स्वरुप विद्यमान है ।" (आजकल, जून 2002)
** " ' प्रेम-पत्र ' कहानी में एक प्रेमी , जो अब एक पतिव्रता पत्नी का पति ही नहीं एक पुत्र का पिता भी बन चुका है, अनायास उसके प्रेमकाल में अपनी प्रेमिका को लिखा गया प्रेम-पत्र एक खोमचे वाले के मुंगफली के लिफ़ाफे के रूप में उसकी पत्नी को प्राप्त होता है जो उसकी जिज्ञासा, कौतूहल, आकर्षण तथा जांच पड़ताल का केंद्र विंदू बनकर उसके मन-मस्तिष्क को अंतर्द्वंद्व, आशंका,भय, ग्लानि, क्षोभ, तथा क्रोध जैसी मानवीय संवेदनाओं तथा भूतकाल की स्मृति के भंवरजाल में उलझाता चला जाता है । पल पल बदलते मन के इन भावों का सुंदर सटीक तथा यथार्थवादी चित्रण करते हुए कहानीकार ने बदलती हुई विभिन्न परिस्थितियों में प्रेम पाती का तेज हवा के झोंके से पत्नी के हाथों से उड़कर जलती आग में गिरकर राख हो जाना या स्वयं अथवा पत्नी द्वारा ही उसे फाड़कर /जला दिया जाना जैसी मन की जाग्रत इच्छाओं / भावनाओं का सहज, यथार्थवादी एवं सुंदरतम प्रयोग करते हुए कहानी को चरमोत्कर्ष पर पहुंचा दिया है ।
पत्नी का रात्रि के एकांत में उसके हस्तलेख के विषय में किया गया प्रश्न तथा उसकी स्वीकारोक्ति उस चरम सीमा को लांघती सी प्रतित होती है किन्तु उसकी पत्नी का निश्चिन्त, निष्क्रिय आचरण उह चरमोत्कर्ष को एक भरे हुए गुब्बारे को वायुहीन कर देता है । दम्पति के सुखी जीवन पर पाठक भी एक सुख संतोष की सांस लेता है ।
एम डी हसनैन , बहराइच, उ प्र ( 'आजकल' अंक जून 2002 )

** " ' प्रेम-पत्र' बड़ी मोहक बड़ी प्यारी कहानी लिखी है आपने । बड़े दिनों बाद किसी इलाहाबादी रचनाकार ने पढ़ने का सुख पहुंचाया । विभोर हुआ। बधाई ।" 
सतीश चन्द्र टंडन ( पत्र दिनांक 13/2/2002 )

** " ' आजकल' का फरवरी 2002 अंक  देखा । सुभाष चन्द्र गांगुली ने ' प्रेम-पत्र' ने विशेष प्रभावित किया ।आज जहां यथार्थ के रूखेपन के कारण संवेदनाएं कुंद होती जा रही है, वहां श्री गांगुली की कहानी कोमल भावनाओं के ताने-बाने से बुनी गई है जो मनोमस्तिष्क में ठंडेपन का अहसास कराती है । कहानी के नायक द्वारा वर्षों पूर्व अपनी प्रेमिका को लिखा गया ' प्रेम-पत्र ' अनायास एक ठोंगे की शक्ल में उसकी पत्नी की नजर में चला आता है ( विडंबना है ) । पत्नी के समक्ष पूर्व प्रेमालाप की कलई खुल जाने की स्थिति में नायक के मनोदशा को शब्दों की कूंची से चित्रित करने में शब्दकार ने कमाल की सफलता हासिल की है । पाठक स्वयं को उन परिस्थितियों के साथ  तादात्म्य स्थापित कर रोमांचित हो उठता है । "
कथाकार कृष्ण मनु , सम्पादक, ' स्वातिपथ ' मुनीडीह, धनवाद ( पत्र दिनांक 19/4/2002 )
** " 'प्रेमपत्र' बड़ी मोहक, बड़ी प्यारी कहानी लिखी आपने। बड़े दिनों के बाद किसी इलाहाबादी रचनाकार को पढ़ने का सुख मिला"--सतीशचन्द्र टण्डन - इलाहाबाद पत्र दिनांक 18/022002

** " ' प्रेम-पत्र' कहानी मुझे अच्छी लगी । भाषा दिलचस्प और व्याकरण की दृष्टि से न केवल निर्दोष है बल्कि भावाभिव्यक्ति में पूर्ण सक्षम है । ' प्रेम-पत्र' में नायक का ऊहापोह और मानसिक द्वन्द्व उसका पत्नी के प्रति वफादार ईमानदार रहते हुए भी अपने पूर्व प्रेम को बता देने की तड़प पाठक को अपने में समेट लेती है । अतीत में हुए प्रेम को कहने या छिपा ले जाने की अभिव्यक्ति की कश्मकश फिर अंत में अपने प्रेमानुभव की स्वीकारोक्ति प्रभावोत्पादक बनाती है  ।"
शिवकुटी लाल वर्मा
१, चाहचंद, इलाहाबाद
( पत्र दिनांक 22/4/2002 )
** ' आजकल ' मे प्रकाशित कहानी 'प्रेमपत्र' पढ़ी। कहानी की मनःस्थिति का आपने बहुत सूक्ष्म और यथार्थ वर्णन किया है। कहानी का अंत सुकून देनेवाला है और शिक्षाप्रद है। एक छोटी किन्तु बहुत बड़ी बात को आप अपने ढंग से कह गए हैं। -- रसिकेश शर्मा, ४३- रूपराम नगर - इन्दौर ( म• प्र•} पत्र दिनांक 4/5/2004

फेसबुक पर एक कमेंट पर  दिया गया  उत्तर--

 Pandit Kamalakant Shukla कैसे  दिखाऊं  ? कोलकाता में  हूं  । वैसे शादी  से  पहले रंजना  को  लिखा  " प्रेम पत्र " जो  वर्षो बाद  पत्नी  के  पास  पहुंची  वह  तो  सार्वजनिक  हो  चुका  है  । उप्र  हिन्दी संस्थान  की  पत्रिका ' साहित्य  सौरभ  ' जनवरी-मार्च 2024 अंक ऑनलाइन  मे  मिल  जायेगा  ।
राजनीतिक  तनाव  के  बीच  थोड़ी  सी  राहत  ।
दिनांक 11/5/2024

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